SADGURU KI MAHAYATRA BOOK REVIEW HINDI

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रिव्यु – युगन युगन योगी ,सद्गुरु की महायात्रा

इस किताब की लेखिका है अरुंधती सुब्रमण्यम | वह तीन काव्य पुस्तकों की लेखिका है और साथ ही साथ उन्होंने द बुक ऑफ़ बुद्धा नामक पुस्तक गद्य रूप में लिखी है | उनके धार्मिक यात्राओं के संकलन में पिलग्रिम्स इंडिया एवं भारतीय कविताओ का संग्रह अनदर कंट्री शामिल है | इसके साथ – साथ उन्होंने और भी बहुत कुछ लिखा है | वे स्वयं को ईशा योग की एक प्रतिबद्ध साधिका और एक भक्त बताती है |

प्रह्लाद कक्कड़ जो एक फिल्म और विज्ञापन निर्माता है | इस किताब और लेखिका और किताब के बारे में लिखते है की यह किताब एक ऐसी लेखिका द्वारा लिखी गई है जो वास्विकता जानने के लिए पर्याप्त रूप से बुद्धिमान और स्वतंत्र है | किताब के शुरुवात में ऐसे ही शानदार कमेंट आपको पढने को मिलेंगे | इस किताब को मंजुल पब्लिशिंग हाउस ने प्रकाशित किया है | इस किताब का हिंदी संसकरण २०१७ में पहली बार प्रकाशित हुआ है | हिंदी में यह किताब २८५ पृष्ठों की है |

हमें तो यह किताब बहुत ही अच्छी लगी | उम्मीद है इतने प्रसिद्ध व्यक्ति के बारे में जानने के लिए आप भी उत्सुक होंगे | तो आईये जानते है इस किताब का सारांश…………..

सारांश –

इस किताब के कव्हर को देखकर ही पता चलता है की यह किताब सद्गुरु के बारे में है | इस किताब द्वारा लेखिका ने सद्गुरु के पहले के जीवन के बारे में बताया है की सद्गुरु , सद्गुरु बनने से पहले क्या थे ? वे कौन थे ? उन्हें लोग सद्गुरु क्यों कहते है ? उन्होंने ऐसा क्या किया की वह इतने प्रसिद्ध है ? सभी चैनल्स , न्यूज़ , यू – ट्यूब पर छाए रहते है | तो आइये इस किताब के माध्यम से उनको जानने का प्रयास करते है |

उनका असली नाम जगदीश है | प्यार से लोग उन्हें जग्गी बुलाते है | जब वह पच्चीस साल के हुए तब उन्हें सातवी पहाड़ी पर ज्ञान प्राप्त हुआ | वे खुद भी कहते है की वह एक दिव्यदर्शी है | ज्ञानप्राप्ति के बाद उन्हें पता चला की यह उनका चौथा जनम है | सबसे पहले के जनम में वह एक सपेरे थे पर एक ब्राह्मण की लड़की के साथ प्रेम के चलते उनके ही द्वारा पकडे हुए साँप से उनकी जान ले ली गयी | साँप द्वारा काटा हुआ निशान उनके कंधे पर आज भी है | सापो से उनकी दोस्ती बेमिसाल है | बचपन में वह सापो की गंध सूंघकर उनका पता लगा लिया करते | सापो को पकड़कर वह पैसे कमाया करते | साप पकडकर अपने घर में रखते इससे उनके घरवाले नाराज रहते | एक वक्त था जब सद्गुरु के कमरे में एक नहीं , दो नहीं बल्कि २०-२५ साप एकसाथ रहा करते वह भी एक से बढ़कर एक जहरीले…

| कभी – कभी तो वह सद्गुरु के ब्लंकेट में भी घुस जाया करते |

दूसरा जनम उनका शिवयोगी का था | जिस जनम में उनके गुरु पालनी स्वामी ने उनके माथे पर छड़ी लगाकर उनको ज्ञानप्राप्ति करवाई | यह वही जगह थी जहाँ उनको इस जनम में ज्ञानप्राप्ति हुई | उन्हें ज्ञानप्राप्ति इसलिए करवाई ताकि वह उन्हें एक जिम्मेदारी दे सके जिसे पूरा करने में कई जीवनकाल लग सकते थे |

तीसरा उनका जनम था सद्गुरु श्री ब्रह्मा का और चौथा अभी सद्गुरु का………

इन सारी घटनाओ को आप चित्ररूप में कोयंबटूर के ईशा योग सेण्टर में देख सकते है | तो प्रश्न यह उठता है की ऐसा कौनसा कार्य है जो उनके गुरु ने उनको दिया था जिसको पूरा करनेके लिए उनको इतने सारे जनम लेने पड़े | तो वह है “ ध्यानलिंग ” की प्राणप्रतिष्ठा |

यह पढने के लिए जितना आसान लगता है करने के लिए उतना ही कठिन है क्योंकि जितने भी साधक लोग है वह जानते है की प्राणप्रतिष्ठा मतलब मूर्ति में प्राणों को अर्थात जीवन को स्थापित करना | यह एक प्रकार से उस मंदिर के मूर्ति को मंत्रो से सजीव करना है पर सद्गुरु ने मंत्रो का इस्तमाल न करते हुए अपने शरिर के उर्जा का इस्तमाल कर के “ ध्यानलिंग ” को प्राणप्रतिष्ठित किया है | क्योंकि वह एक योगगुरु है | इसमें उनका साथ उनकी शिष्या भारती ने दिया है | वह उनकी पहले के जनम में भी शिष्य रह चुकी थी | सद्गुरु का मतलब उन्होंने बताया की अज्ञानी शिक्षक | वैसे सद्गुरु ने योग के उपर कोई भी किताब पूरी तरह नहीं पढ़ी है नाही तो कोई शास्त्र पढ़े है | ज्ञानप्राप्ति के पहले तो वह घोर नास्तिक थे | एक अच्छे बाईकर थे | जबतक जरुरत न हो अपने बाइक से निचे उतरते नहीं थे | गोल्फ खेलते थे | वह अभी भी ऐसा कर सकते है |

सद्गुरु को ध्यानलिंग की प्राणप्रतिष्ठा करने में पुरे १८ महीने लगे | उन्होंने एक –एक चक्र को जागृत कर के ध्यानलिंग में स्थापित किया है | ऐसा करते समय हर बार उनके प्राणों पर बन आती थी | जो साधक है इस तरह के अनुष्ठान करते है वह इस बात को भालीभाती जानते है की भगवानो को धरती पर बुलाना कोई मामूली बात नहीं |

ध्यानलिंग की प्राणप्रतिष्ठा एक बहुत ही उच्च कोटि का कार्य था जिसे सद्गुरु ने पूर्ण कर दिखाया | इसीलिए शायद उन्हें इतने सारे जनम लेने पड़े क्योंकि यह तो एक जनम में पूर्ण होनेवाला कार्य है ही नहीं | सद्गुरु को हमेशा से ही स्वतंत्रता प्यारी रही है इसीलिए वह ईशा योग सेण्टर बनाने के खिलाफ थे लेकिन उनके शिष्यों के कुछ तर्कों के कारण वह मान गए | ईशा योग सेण्टर में उन्होंने बहुत सारे कार्यक्रम लिए | इस कार्यक्रम के दौरान बहुत से साधको को बहुत अलग – अलग अनुभव हुए है |

ऐसे ही साधको के अनुभवों से यह किताब भरी पड़ी है | लेखिका ने सद्गुरु को हर तरह से जांचने – परखने की कोशिश की है | उनको हमेशा से ही ऐसे गुरुओ का गुस्सा आता रहा है | लेकिन लेखिका के हर एक जिज्ञासा को सद्गुरु ने ही शांत किया | वह एक गुरु बनने के बजाय एक मित्र बनना पसंद करते है | यू –ट्यूब के कुछ वीडियोज , उनके कुछ साक्षात्कार देखकर हम उनको उतना नहीं जान पाएंगे | तो सद्गुरु को जानने के लिए यह किताब एक अच्छा विकल्प हो सकता है | अगर आप पर्सनली सद्गुरु से नहीं मिल पाते तो ……. इस किताब को एक बार जरुर पढ़िए |

धन्यवाद !

wish you a happy reading…

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