प्रक्षोभ
पांडुरंग सूर्यवंशी
रिव्यू –
यह एक नाटक है जो 1857 की क्रांति पर आधारित है | अंग्रेजों के दुष्ट ,अन्यायी व्यवहार के कारण भारतीय जनमानस के मन में पनपा गुस्सा इस क्रांति के रूप में फूट पड़ा था | वर्षों से मन में पनपता गुस्सा जब लावे की धधकती आग की तरह बाहर पड़ता है | तो इस क्रिया को मराठी में “प्रक्षोभ” कहते हैं | इसलिए इस मराठी किताब का नाम है – “प्रक्षोभ” | प्रस्तुत किताब के –
लेखक है – पांडुरंग सूर्यवंशी
प्रकाशक है – ई. साहित्य प्रकाशन
पृष्ठ संख्या – 175
लेखक बहुत अच्छे साहित्यकार और कवि थे | 1940 और 50 के दशक के बीच मे उन्होंने साहित्य क्षेत्र मे बहुत कुछ लिखा | उनकी लिखी पहली ही शॉर्ट स्टोरी की पहला बक्षीस मिला | उनकी कविताए और कथाये नियम से वर्तमानपत्रों मे प्रकाशित हो रही थी | वह संघ के सदस्य थे | इसलिए वह लिखने के लिए ज्यादा समय नहीं दे पाए | लेखक उच्चशिक्षित व्यक्ति थे | साहित्यकार की अच्छी प्रतिभा होते हुए भी वह साहित्य जगत मे ,कम उम्र मे ही आयी बीमारी के कारण अपनी छाप नहीं छोड़ पाए जब की वह इस प्रतिभा के धनी थे | यह आप को उनकी प्रस्तुत किताब पढ़कर समझ मे आ जाएगा | बहेरहाल , आप उनके बारे मी और ज्यादा किताब के शुरुवात मे पढ़ पाएंगे |
इतनी अच्छी किताब ई. साहित्य की टीम ने पाठकों के लिए फ्री में उपलब्ध करवाई उसके लिए हमें उनका शुक्रगुजार होना चाहिए | उनको हमारा बहुत-बहुत धन्यवाद और लेखक को भी क्योंकि उन्होंने बिना कोई शुल्क लिए यह किताब ई. साहित्य को दी | यह किताब ई. साहित्य की वेबसाईट पर उपलब्ध है जो नए मराठी लेखको को एक प्लेटफार्म उपलब्ध कराता है जहां वह अपनी प्रतिभा दिखा सके | यहां पाठकों के लिए किताबें फ्री में उपलब्ध है बस शर्त इतनी है कि किताब पढ़कर आप अपने विचार लेखक और ई. साहित्य को जरूर बताएं | अब आते है – किताब के विषय पर –
आज हम जिस स्वतंत्रता का उपभोग ले रहे हैं | उसके लिए हमारे पूर्वजों ने कितने बलिदान दिए | यह हमें पता होना चाहिए | उन्होंने देश को पहले चुना , ना कि अपने प्राणों को ,धन संपत्ति को और ना ही तो अपने रिश्तो को .. | उन्होंने सब कुछ अपने देश पर न्योछावर कर दिया | सबसे पहले हमें यह जानना जरूरी है कि 1857 का स्वातंत्र्यसमर हमारे देश के इतिहास में इतना महत्वपूर्ण क्यों है ? क्योंकि यूं तो छोटे-मोटे स्वतंत्रता के लिए युद्ध होते रहे लेकिन संपूर्ण देश ने एक साथ के लिए लड़ने वाला यह सबसे पहला युद्ध था |
जिसके निर्माता थे नानासाहेब पेशवा और अगुआ थे ,झांसी की रानी ,तात्या टोपे ,अजीमुल्ला खान ,ज्वालाप्रसाद | इन पंचप्राणों ने इस युद्ध का आगाज किया था | इस युद्ध का नेतृत्व स्वीकारा था | दिल्ली के बादशाह बहादुरशाह जफर और उनकी पत्नी झिनत महल इन्होंने |
इसी के फल स्वरूप फिर उन्हें अंग्रेजों ने बादशाह के पद से हटाकर ,लाल किले से बाहर निकाल दिया था और हमेशा के लिए रंगून भेज दिया था जिसे अभी यांगोन कहते हैं | यह स्थान अभी म्यांमार मे स्थित है | इसी क्रांति पर आधारित स्वातंत्र्यवीर सावरकरजी ने किताब लिखी थी जिसके प्रकाशन पर अंग्रेजों “बंदी” लगा दी थी |
फिर भी वह किताब कितने ही स्वातंत्र्य के उपासक लोगों ने पढ़ी और उससे प्रेरणा लेकर हमें आज की आजादी दिलाई | इन लोगों में मुख्यता शामिल थे | शहीद भगत सिंह और नेताजी सुभाष चंद्र बोस | आइये , तो बात करते है इस किताब के सारांश की ..
सारांश –
किताब नाटक के रूप में होकर भी बोर नहीं है | बहुत अच्छी है | इसे पढ़ना एक अच्छा अनुभव होगा | पर्दा उठता है और कहानी शुरू होती है | नानासाहेब पेशवा के महल में पुजारी है – “केशवभट” | और केशवभट का बचपन का मित्र है रंगराव | वह अभी घोडेसवारी का काम करता है | इन दोनों का वार्तालाप यहाँ बताया गया है जिससे पता चलता है कि केशव भट्ट हमेशा पुराने दिनों की याद करते रहता है | जिसमें उन्हें बहुत सारी दक्षिणा मिलती थी और खाने के लिए तरह-तरह के पकवान | यह स्थिति अभी बदल गई है क्योंकि नानासाहेब पेशवा की आठ लाख की पेंशन अंग्रेज सरकार ने बंद कर दी है | पर इससे केशव भट्ट को कोई फर्क नहीं पड़ता | उसे इन परिस्थितियों में भी सिर्फ अपनी दक्षिणा की चिंता पड़ी हुई है | मालिक के प्रॉब्लम से उसे कोई लेना देना नहीं |
और उसे लगता है कि , अंग्रेज भारत आए यह अच्छा हुआ | नहीं तो देश में डाक सेवाएं , रेल सेवाएं और अन्य सेवाएं भी कैसे शुरू होती ? वह इन सेवाओं का हिमायती इसलिए है क्योंकि वह सिर्फ ₹2 में अपनी मां को पत्र भेज सकता है जब की अंग्रेजों के पहले यह महंगी सेवा थी जो सिर्फ अमीर लोग ही इस्तमाल करते थे | रंगराव उसकी यह सारी बातें सुन लेता है क्योंकि दोनों बचपन के मित्र है | उसके बाद वह लाया हुआ संदेश नानासाहेब को देने के लिए चला जाता है |
पहला सीन यहीं खत्म होता है | इसके बाद अजीमुल्ला खान और ज्वाला प्रसाद का सीन है | दोनों अच्छे मित्र है | ज्वाला प्रसाद के प्रेम प्रकरण को लेकर , उनकी हंसी – ठिठोली चल रही है | नानासाहेब पेशवा को इस स्वातंत्र्य समर की तैयारियों के लिए , अंग्रेजों के मनसूबों की जानकारी चाहिए थी | इसलिए उन्होंने ज्वालाप्रसाद को मिस्टर शेपर्ड के घर संस्कृत शिक्षक के तौर पर भेजा | मिस्टर शेपर्ड उच्च ओहदे से रिटायर हुए व्यक्ति है जो भारत की संस्कृति और यहां के लोगों के लिए प्रेम के कारण यही बसे हुए हैं |
इनके यहां सर व्हीलर नाम का सैन्य प्रमुख भी आता है | इन दोनों की बातों से ज्वाला प्रसाद को अंग्रेजों के मंसूबों के बारे में बहुत जानकारी मिलती है | इसी मिस्टर शेपर्ड की बेटी है स्यु – जेनी | स्यु – जेनी और ज्वालाप्रसाद एक दूसरे से प्रेम करते है | मिस्टर शेपर्ड संस्कृत सीखकर हमारे महान ग्रंथ पढ़ रहे हैं | हमारी ऐतिहासिक समृद्धता और महान संस्कृति के सामने नतमस्तक हो रहे हैं |
इसके उलट मिसेस शेपर्ड यहां के लोगों को गुलाम कहकर , उनको हीन दर्जा दे रही है | वह सब का धर्मांतरण करना चाहती है | इसलिए जो मिले उसे , वह धर्मांतरण के डोस पिलाती रहती है | इसमें मिशनरी संस्थाएं उसकी मदद करती है | धर्मांतरण के पीछे उसका मकसद है कि जो भी धर्मांतरण करेगा उसको फिर उनके राजा के साथ ही निष्ठावान रहना होगा | इससे वह स्वतः ही इंग्लैंड के प्रति निष्ठावान हो जाएंगे और अपने मातृभूमि को भूल जाएंगे |
फिर उनका शासन यहां अबाध रूप से चलता रहेगा | ज्वाला प्रसाद के मंसूबों के बारे में मिस्टर शेफर्ड को पता चल जाता है लेकिन वह किसी को कुछ नहीं बताते | उल्टा वह चाहते हैं कि ज्वाला प्रसाद को उसके काम में यश मिले | पर साथ में वह यह भी कहते हैं कि ,अगर रणभूमि में ज्वाला प्रसाद उनके सामने आएगा | तो वह उसकी एक अंग्रेज होने के नाते उसपर कोई नरमी नहीं बरतेगा |
अंग्रेजों को वैसे पता तो चल गया था कि कुछ तो चल रहा है लेकिन क्या ? यह पता करने के लिए उन्होंने जानबूझकर बंदूकों पर गाय की चर्बी के कारतूस लगाए थे और विद्रोह करने वाले लोगों को उनकी ही सैन्य टुकड़ी के आगे सजाए दी थी | इससे यह क्रांति वक्त से पहले ही भड़क उठी थी जबकि इसकी तारीख 31 मई 1857 तय की गई थी | क्योंकि इसी दिन अंग्रेजों को भारत में पूरे 100 साल हो रहे थे | नाना साहेब का मन था कि एक हफ्ते के अंदर ही अंग्रेजों को यहां से खदेड़ दिया जाए |
पर शायद यह किस्मत को मंजूर न था | उठाव वक्त से पहले ही शुरू हो गया जिससे अंग्रेजों को इसका पता चल गया | ब्रिटिशो का रशिया के साथ हो रहा युद्ध भी रुक गया | उन्होंने अपनी सेनाओं को भारत बुला लिया | पेशावर और पंजाब की सेनाए भी अंग्रेजों से जा मिली | रोटियों को सिंबल के तौर पर बांटा गया था | यह क्रांति शुरू करने का द्योतक था | कानपुर जहां नानासाहेब रहते थे | वह स्वतंत्र हो चुका था | पर पूरा भारत देश नहीं …. |
इस दौरान देश में भयंकर नरसंहार हुआ | अंग्रेजों का भी और भारतीय लोगों का भी | इस स्वातंत्र्यसमर में अपने काम को अंजाम देते हुए ज्वाला प्रसाद के अंग्रेजों की गोली से प्राण पखेरू उड़ जाते हैं | उस की प्रेम कहानी अधूरी रह जाती है | तात्या टोपे , झांसी की रानी , नानासाहेब पेशवा , अझीमुल्लाखान , ज्वाला प्रसाद इन पाँचप्राणों मे से एक के प्राणपखेरू उड जाते है जब की बाकी चारों शुरू हो चुके स्वातंत्र्यसमर मे कूद पड़ते है | आप को पढ़कर यह भी जानना होगा कि शेपर्ड परिवार का क्या होता है ?
क्या उन्हें नानासाहब का संरक्षण मिलता है या फिर अंग्रेज लोग उन्हें बचा लेते हैं | जब ज्वाला प्रसाद के बारे में स्यु – जेनी को पता चलता है तो उसकी क्या प्रतिक्रिया होती है ? आपको यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए | स्वातंत्र्य संग्राम के बाद एक बार फिर से अंग्रेजों का शासन आ गया तो इन चारों के साथ क्या हुआ ? यह हम आपको अपने अगले ब्लॉग में बताएंगे | मिलते हैं और एक नई किताब के साथ | तब तक के लिए –
धन्यवाद !!