मराठेशाहीचे अंतरंग
डॉ. जयसिंगराव पवार द्वारा लिखित
रिव्यू –
प्रस्तुत किताब में लेखक ने 12 लेखो का संग्रह दिया है जिनमें से कुछ घटनाओं के बारे में है .. तो कुछ व्यक्तियों के बारे में … | इन 12 लेखो में से 6 लेख उनके “मराठीशाहीतील मागोवा” इस किताब में प्रकाशित हो चुके थे पर अब वह दुर्लभ हो गए है | इसलिए उनका समावेश लेखक ने प्रस्तुत किताब में किया है |
इनमें से कुछ लेख इतिहास परिषदों में पढ़े गए हैं या नियमित प्रसिद्ध होनेवाली पत्रिकाओं में लिखे गए हैं | डॉ. अप्पासाहेब पवार इन्होंने उनके “ताराबाईकालीन दस्तावेजों” के प्रथम खंड मे “यादव दफ्तर” प्रसिद्ध किया | इन दस्तावेजों की मदद से आज तक अज्ञात और अंधेरे में गुम कई सारे व्यक्तियो और घटनाओं पर प्रकाश पड़ा | उनमें से ही एक है “गिरजोजी यादव” |
छत्रपति राजाराम महाराज और महारानी ताराबाई इनका खास विश्वासू व्यक्ति | इस व्यक्ति के चरित्र से उस वक्त के राजकरण करनेवाले मराठों की मानसिकता कैसी थी ? इसके बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है |
प्रस्तुत किताब में “कुनबीण” इस विषय पर एक लेख लिखा गया है | इसे हम एक सामाजिक विषय कह सकते हैं | आज से लगभग 200 साल पहले महाराष्ट्र में मनुष्य की खरीद – फरोख्त होती थी | पशु के जैसा उन पर लगान लगाया जाता था | किसी निर्जीव वस्तु की तरह उन्हें बाजार से खरीद कर किसी ब्राह्मण को दान दिया जाता था |
मनुष्य को पशुओं से भी बदतर बतानेवाली यह प्रथा उस वक्त अस्तित्व में थी | इसकी गवाही इतिहास ही देता है जिस पर आज के व्यक्तियों को विश्वास करना मुश्किल होगा | इतने पर भी इसमे भारत में प्रचलित शोचनीय जाति व्यवस्था का ध्यान रखा जाता था |
ब्राह्मण जाति की स्त्री इससे मुक्त थी क्योंकि वह धरती के देवता माने जाते थे | शूद्र स्त्रीया भी इसमें नहीं रहती थी कारण उच्च वर्णियों के घर में अगर वह काम करेगी तो उनका घर और धर्म भ्रष्ट हो जाएगा |
इनका जीवन एक प्रकार से गुलामो जैसा ही था | जैसा क्या ? यह गुलाम ही थे | वृद्ध होने पर इन्हें मुक्त किया जाता था क्योंकि इनसे काम नहीं होता था | अपने पूरे जिंदगी की बचाई हुई कमाई से इन्हें एक नई “कुनबीण” खरीद कर अपने मालिक को देनी पड़ती थी ताकि उनकी मुक्ति हो सके |
ऐसे में उनके पास कुछ नहीं बचता था | वृद्धावस्था में उनकी दशा बड़ी दयनीय हो जाती थी | इस सोच विचार पर मजबूर करनेवाली परंपरा बाबत चर्चा “कुनबीण” इस अध्याय में की गई है | वह भी ऐतिहासिक दस्तावेजों मे मिले सबूतो के आधार पर ..
मराठीशाही में विजयदशमी का महत्व , विशालगढ़ किले का महत्व इस पर भी एक लेख दिया है | संपूर्ण मराठा साम्राज्य का चलचित्र पाठकों के सामने प्रस्तुत करना लेखक का मनोदय नहीं था तथापि इतिहास के कुछ भाग को पाठकों के सामने जरूर रखना चाहते थे | उन्होंने यह किताब भी उन्हे इस क्षेत्र में लानेवाले और उनके गुरु श्री. अप्पासाहेब पवार इन्हें समर्पित की है |
आशा है , आपको भी लेखक का यह प्रयास पसंद आएगा | वह एक इतिहासकार होने के नाते , हर एक घटना , व्यक्ति , उसकी सोच , उसके द्वारा किए गए कार्यों का विवेचन करते हैं |
जब संभाजी महाराज को कैद किया गया तो उन्हें छुड़ाने के लिए कोई प्रयत्न किए गए या नहीं ? वह कौन से प्रयत्न थे ? ऐसा कहा जाता है कि राजाराम महाराज की पहली पत्नी प्रतापराव गुर्जर की कन्या जानकीबाई शादी के तुरंत बाद ही स्वर्गवासी हो गई पर हकीकत में देखा जाए तो वह 1719 तक जिंदा थी | अगर यह सच है तो क्या है असली सच्चाई ?
राजाराम महाराज और ताराबाई का विश्वासू व्यक्ति गिरजोजी यादव एक प्रकार का देशमुख ही था | तो उसने वतनदार बनने के लिए क्या-क्या तिकड़म लगाई ? वतनदार वतन पाने के लिए क्या-क्या कर गुजरते थे ? धनाजी जाधव ने खेड़ की लड़ाई मे ताराबाई का साथ छोड़कर शाहू महाराज का साथ क्यों दिया ? ताराबाई पुत्र शिवाजी को सिंहासन से उतारने के लिए राजमंडल ने कौन से षड्यन्त्र किए जिसे “रक्तहीन राज्यक्रांति” का नाम दिया गया जिस कारण महारानी ताराबाई को पन्हालगढ़ का सहारा लेना पड़ा ?
संभाजी पत्नी जीजाबाई ने अपनी कोल्हापुर रियासत को पेशवाओ से कैसे बचाया ? इन्हीं सब सवालों के उत्तर देने की कोशिश प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. जयसिंगराव पवार इन्होंने प्रस्तुत किताब में की है | इतिहास पर आधारित इस किताब के –
लेखक है – डॉ. जयसिंगराव पवार
प्रकाशक – मेहता पब्लिशिंग हाउस
पृष्ठ संख्या – 156
उपलब्ध है – अमेजॉन और किन्डल पर
आइए , अब जानते है इसका सारांश –
सारांश –
कुछ लोग के मन मे संभाजी महाराज की प्रतिमा एक अच्छे व्यक्ति की नहीं थी | इसीलिए ऐसे लोग मानते थे कि जब उन्हें कैद किया गया तब उन्हें छुड़ाने का एक भी प्रयास नहीं किया गया | उन्हीं लोगों की सोच को जवाब देते कुछ व्यक्ति और घटना इतिहास के पन्नों में दर्ज है जो कुछ ऐतिहासिक दस्तावेजों की वजह से सामने आए हैं |
इनमें शामिल है “ज्योत्याजी केसरकर और अप्पा शास्त्री दीक्षित” | अब इन दोनों से जुड़ी कहानियां और इनके द्वारा किया गया प्रयत्न विस्तृत मे आप किताब में पढ़ पाओगे | “मोरल ऑफ द स्टोर इज्” की संभाजी महाराज एक अच्छे व्यक्ति थे और उन्हे रिहा करने का प्रयत्न भी किया गया था लेकिन मुगलों की शक्ति ज्यादा होने के कारण यह लोग सफल न हो सके |
“इतिहासाच्या अज्ञातवासातील मराठयांची एक रानी” इस अध्याय में छत्रपति राजाराम महाराज की पहली पत्नी जानकीबाई के बारे में बताया गया है | इनके बारे में इतिहास को एक दो – लाइनों से ज्यादा पता नहीं है | यहां तक कि इन्होंने अंतिम सांस कब ली | यह भी कहीं नमूद नहीं किया गया है | इस रानी को दुर्भाग्यशाली ही बोलना पड़ेगा क्योंकि यह महारानी येसूबाई और शाहू महाराज के साथ ही कैद में चली गई थी |
अगले 30 सालों तक यह कैद में ही रही | महारानी येसूबाई के साथ यह भी छूट कर आई पर उसके बाद इनका क्या हुआ ? किसी को भी नहीं पता | शायद किसी ऐतिहासिक दस्तावेज में उनके बारे में लिखा हो ! पर अब तक वह कागज सामने आना बाकी है |
“गिरजोंजी यादव : मराठीशाहीतील एक कर्तबगार पण मतलबी मराठा ” – राजाराम महाराज और ताराबाई कालखंड के राजकारण में भाग लिए व्यक्तियों में महत्वपूर्ण व्यक्ति थी – गिरजोजी यादव | यह महाराज के जिंजी यात्रा मे उनके साथ था | इसी के द्वारा महाराज ने रायगढ़ से पुश्तैनी सोना , हीरे – जवाहरात मंगवाए थे |
चंदी के किले तक इसी ने सारे हीरे – जवाहरातो की पोटलिया संभाली थी | इसी ने चंदी के किले से महाराज की सारी पत्नियों और बच्चों को सुरक्षित निकालने का कार्य भी किया था | यह महाराज के जनानखाने का सर – हवालदार था |
महाराज की रानियों को जब भी कोई संतान होती तो , महाराज को सबसे पहले खबर करने का काम भी इसी का था | हर बार खबर देने पर उसे एक सूबा इनाम मे मिलता था | वह अपने काम से महाराज के विश्वासू व्यक्तियों में शामिल हो गया था |
इतना ही नहीं महाराज की मृत्यु के बाद ताराबाई के राज्यकाल में वह उनका “दीवान” तक बन गया | ऐसे इस विश्वासू व्यक्ति ने ही क्यों ताराबाई की सत्ता पलटने में दुश्मनों की मदद की ? यह आप प्रस्तुत किताब में जरूर पढे |
गिरजोजी को मिले सूबों में “पाली” भी एक सुबा था | उसे मिले सारे सूबे महाराष्ट्र में थे पर वह रहता था कर्नाटक में… क्योंकि तब छत्रपति भी कर्नाटक में थे | अपने इन सूबों का ध्यान रखने के लिए उसने अपने भाइयों को इसमें शामिल किया | उसके भाइयों ने उसे बताए बगैर “पाली” का सूबा “सेनापति धनाजी जाधव” को बेच दिया |
अब इस पाली में स्थित मंदिर की यात्रा में आए धन पर दोनों अपना हक बताने लगे | इसमें ताराबाई ने हस्तक्षेप किया और निकाल गिरिजोजी की तरफ से दिया | ऐसा दो बार हुआ | इस बात से धनाजी नाराज हो गए क्योंकि ताराबाई के हस्तक्षेप के कारण वह कोई भी एक्शन नहीं ले पा रहे थे जबकि वह स्वराज्य के शक्तिशाली सेनापति थे और गिरजोजी एक मामूली सेवक ..
पर वह ताराबाई के विश्वासू व्यक्तियों में से एक था | इसी का फायदा गिरजोजी ने उठाया था | जब शाहू महाराज स्वराज्य मे वापस आए तो राज्य में बंटवारे के लिए आपस में ही झगडे होने लगे | सिंहासन के भी दो भाग हो गए | एक के वारसदार शाहू महाराज बने तो दूसरे के ताराबाई पुत्र शिवाजी | असल में ताराबाई ही यह राज्य चलाती थी | अब ताराबाई के पास जो सरदार थे | उनमें भी बटवारा होने लगा | इनमे से कुछ शाहू महाराज को जाकर मिले | उन्होंने अपनी सेना जमाकर ताराबाई पर हमला कर दिया | ताराबाई ने अपनी तरफ से “धनाजी जाधव ‘ को भेजा |
यह युद्ध खेड़ में हुआ | यह युद्ध इतिहास को नया मोड़ देनेवाला सिद्ध हुआ क्योंकि इस युद्ध का नतीजा ना तो शाहू महाराज के हाथ मे था नाहीं तो राजमाता ताराबाई पर | इसका नतीजा पूर्णतः धनाजी जाधव पर निर्भर था |
वह जिसका साथ देते | वह पक्ष जीत जाता | उन्होंने शाहू महाराज को चुना क्योंकि शाहू महाराज का स्वभाव राजाराम महाराज जैसा था | वह सरदारों को कृतिस्वातंत्र्य देते थे | उनको सरदारों की जरूरत थी | ना की सरदारों को उनकी |
इसके उलट महारानी ताराबाई हुकूमत करनेवाली , कड़क प्रशासक थी | स्वराज्य के सरदार कितना भी करते | वह उसे सिर्फ एक कर्तव्य के तौर पर देखती | ऊपर से धनाजी की उन पर नाराजगी भी थी | इस वजह से उन्होंने शाहू महाराज को चुना | अब इनको चुनकर क्या उन्होंने महारानी ताराबाई के साथ दगा किया या स्वराज्य के सही वारिस को चुना ? इसी का ऊहापोह प्रस्तुत किताब के अध्याय – “धनाजी जाधव , इतिहासाला कलाटनी देणारा सेनापति” मे किया गया है |
“मराठेशाहीतील एकमेव रक्तहीन राज्यक्रांति” इस अध्याय में ताराबाई को उनके ही विश्वासू व्यक्तियों ने सत्ता से हटाने की घटना का वर्णन किया है | इसका खुलासा खुद उनके ही हाथों लिखे पत्र द्वारा हुआ है | इनमें उन्होंने गिरजोजी यादव और अनंत त्रीमल का नाम बताया पर रामचंद्रपंत का नहीं जबकि रामचंद्रपंत के बगैर इन सब लोगों का इतना बड़ा कदम उठाना नामुमकिन था क्योंकि राज्य की धूरा तब भी ताराबाई के बाद रामचंद्रपंत के अधिकार में थी | तब उन्होंने इनका नाम अपने पत्र में क्यों नहीं लिखा ? इसका कारण किताब मे दिया है | आप उसे जरूर पढे |
ताराबाई “करवीर राज्य संस्थापिका” के नाम से प्रसिद्ध है | ऐसी इस रानी को जिसने खुद औरंगजेब से 7 से 8 साल स्वराज्य की रक्षा की क्योंकि वह कोई कमजोर महिला नहीं थी | उन्होंने मुगल बादशाह के विरुद्ध मोर्चे खोले थे | औरंगजेब कोई मामूली व्यक्ति नहीं था | उसके साथ ताराबाई के लड़ाई के कारण उनका पराक्रम विश्व विख्यात हो गया था |
उनके ही सरदारों ने उनके बेटे शिवाजी को सिंहासन से उतारकर उनकी सौतन के बेटे संभाजी को गद्दी पर बिठाया | करवीरकर संभाजी महाराज उतने पराक्रमी नहीं थे | इसीलिए करवीरवालों ने अपना राज्य बचाने के लिए अर्जोंजी यादव , इचलकरंजीकर घोरपडे , सिदोजी थोरात , पटवर्धन , निपाणीकर , देसाई इन जैसे छोटे सरदारों से लड़ाई करनी पड़ रही थी तो दूसरी तरफ ताकतवर पेशवा करवीरकर घराने को खालसा कर छत्रपति की एक ही गद्दी करना चाहते थे क्योंकि संभाजी महाराज की कोई संतान नहीं थी |
अब इस राज्य को बचाने की जिम्मेदारी संभाजी महाराज की पत्नी जीजाबाई ने स्वीकारी | यह जिम्मेदारी उन्होंने अच्छे से निभाई | पर कैसे ? यह आप को किताब में जरूर पढ़ना चाहिए | मराठीशाही में पांच कर्तृत्वशाली स्त्रिया हुई | इन मे समावेश है छत्रपति शिवाजी महाराज की आदरणीय माताजी जीजाबाई इनका | इनके बाद महारानी येसूबाई , ताराबाई , संभाजी महाराज की पत्नी जीजाबाई और पुण्यश्लोक अहिल्याबाई होल्कर इनका |
जीजामाता के पराक्रमी पिता और भाई की हत्या की गई | विदेशी सत्ताओ द्वारा उनके पति को कैद किया गया | उनके बड़े बेटे संभाजी की भी हत्या की गई | इन सब के कारण उनके मन में मुगल सत्ता , आदिलशाही , निजामशाही के विरुद्ध नफरत भर गई |
उन्होंने जाना की मराठा कितना भी पराक्रमी रहे | वह हमेशा इन विदेशी सत्ता के हाथों की कठपुतली ही रहेगा | इसके लिए हमारा स्वतंत्र राज्य होना बहुत जरूरी है और इन्हीं विचारों के साथ उन्होंने पराक्रमी शिवाजी महाराज को बड़ा किया |
इसीलिए शायद महाराज के राज्याभिषेक के सिर्फ 12 दिन बाद ही उन्होंने अपनी आखिरी सांस ली क्योंकि उनका सपना पूरा हो चुका था | उनके बेटे ने स्वतंत्र राज्य की स्थापना कर ली थी | मराठीशाही में विजयादशमी के त्यौहार की बड़ी मान्यता थी | इतनी की ब्रिटिश भी इसे बंद नहीं कर सके |
इस दिन सिमोलंघन कर महाराज नई लड़ाइयों पर जाते थे | इस दिन महाराज ने बड़े से बड़े मोर्चे निकाले और उसमे विजय पायी | हमें लगता है कि इस ग्रंथ का मुख्य विषय यही है कि “छत्रपति पद की गरिमा खत्म कैसे हुई ?”
ऐतिहासिक घटनाओं और व्यक्तियों पर नजर डालें तो इसका पता चलेगा | छत्रपति शिवाजी महाराज और छत्रपति संभाजी महाराज के वक्त स्वराज्य की सारी शक्ति छत्रपति के हाथों में रहती थी | उनका निर्णय ही सर्वोपरि था | छत्रपति पद का मतलब ही यही था कि देश में उपस्थित किसी भी सत्ता का नियंत्रण इस मराठी सत्ता ने स्वीकार नहीं है | बाद में महाराज के ही वंशज रहे शाहू महाराज ने दिल्ली सल्तनत का मंडलिक बनकर अपनी सत्ता संभाली |
महारानी ताराबाई यह बात जानती थी | इसीलिए शाहू महाराज को उनका विरोध था | मुगल जब संकट में आए तो उसका फायदा उठाना शिवाजी महाराज की नीति थी पर शाहू महाराज ने तो दिल्लीपति पर संकट आने पर अपने पेशवा को उनकी मदद करने के लिए भेजा | इसमें प्रस्तुत किताब के लेखक का कहना है कि ” शिवाजी त्यांना समजलाच नाही” |
यह सच भी है क्योंकि उनके द्वारा छत्रपति पद की गरिमा का तभी ऱ्हास हो गया था जब उन्होंने मुगलों का मांडलिक बनकर गद्दी संभाली थी | राजाराम महाराज जिंजी में थे | इसलिए उनको यहाँ का अधिकार रामचंद्र पंत और शंकराजी नारायण को देना पड़ा |
इसका मतलब कि उनके द्वारा किए गए निर्णय छत्रपति के निर्णय के बराबर होने लगे | छत्रपति राजाराम महाराज ने जो वतनदारी देना शुरू की थी इसका मतलब की स्वराज्य की भूमि का हिस्सा उन्हें वतन के रूप में देना जिस पर वतनदायर की हुकूमत चलती थी | इस वजह से स्वराज के पास बहुत थोड़ी जमीन बाकी रह गई | तो फिर इतने छोटे राज्य के लिए फौज का निर्माण कैसे हो ? और इसके लिए पैसे कहां से आए ? इसीलिए फिर वतनदार ही खुद की फौज खड़ी करने लगे |
यही वतनदार खुद की सेना के साथ छत्रपति के लिए लड़ते थे | अगर वह चाहते तो छत्रपती का साथ देते | नहीं चाहते तो ! नहीं देते | इस तरह सरदारों के लिए छत्रपति का महत्व कम होने लगा | उधर पेशवा भी ताकतवर हो गए | अब राज्य की कमान उनके ही हाथों में आ गई थी | छत्रपति सिर्फ पेशवा पद के वस्त्र देने के लिए ही रह गए थे | इस तरह छत्रपति का महत्व कम होने लगा |
इतना ही नहीं नौकरों का नौकर नाना साहेब फड़नवीस जिसकी इतिहास बहुत स्तुति करता है , ने छत्रपति को नजरकैद मे रखा | इस जानकारी के साथ ही विशालगढ़ किले का महत्व भी आप को यहां पढ़ने को मिलेगा जिससे आपको मराठा राज्य से संबंधित बहुत सारी जानकारी मिलेगी |
उम्मीद है ऐसी इतिहास की किताबें पढ़कर आपका ज्ञान उत्तरोत्तर बढ़ता जाएगा | किताबें जरूर पढ़ा कीजिए | इससे हमारा विकास होता है | किताबें आपको सही समय पर सही निर्णय लेने में मदद करती है |
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तब तक पढ़ते रहिए | खुशहाल रहिए | मिलते हैं और एक नई किताब के साथ | तब तक के लिए …
धन्यवाद !!
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