कोरलईचा किल्लेदार
श्री विद्याधर वामन भिड़े द्वारा लिखित
रिव्यू –
यह उस जमाने की बात है जब पेशवा , मराठा राज्य के सर्वेसर्वा थे | Read more पेशवा के गद्दी पर अब सवाई माधवराव विराजमान थे | पेशवाओ के साम्राज्य के अंतर्गत आता था कोरलई का किला जो महाराष्ट्र के कोकण में स्थित था | कोकण अरबी समंदर के किनारे बसा है |
किताब पहले दो भागों में प्रकाशित हुई थी | अब वह मिलकर एक हो गई है | इसलिए इसकी पृष्ठ संख्या बढ़ गई है | इसीलिए इसे पढ़ने में हमे बहुत वक्त लगा | लेखक ही इस कहानी के सूत्रधार है |
प्रस्तुत किताब के –
लेखक है – श्री विद्याधर वामन भिड़े
प्रकाशक है – वरदा प्रकाशन
पृष्ठ संख्या है – 678
उपलब्ध है – अमेजॉन और किंडल पर
किताब की कहानी पूरे 99 अध्यायों में सिमटी है | अब कोरलई उसके किलेदार और मराठा साम्राज्य में इसके महत्व के बारे में थोड़ा बता देते हैं | अरब समंदर के पश्चिम दिशा से हमेशा ही परकीय आक्रमणों का डर बना रहता था | इसीलिए राजनीति में चतुर मराठाओं ने मलाबार किनारो पर कुछ नए किलो का निर्माण किया और कुछ अन्य राजाओं द्वारा निर्मित किलो की दुरुस्ती की और वहां अपनी फौज तैनात कर दी |
इन्हीं सब किलो में से एक था – कोरलई का किला | वह महत्वपूर्ण जगह पर स्थित था | साथ में अत्यंत मजबूत भी | इसीलिए सब राजा चाहते थे कि वह उनके अधिकार में हो | जैसे पशुओं में सिंह और पक्षियों में गरुड़ श्रेष्ठ है | वैसे ही यह किलो में श्रेष्ठ था |
इसीलिए इसके द्वार पर यही दोनों चिन्ह मूर्तियों के रूप में स्थित थे | जिस समय का कथानक लेखक इसमें बता रहे हैं | उस समय स्थानीय राजा ही नहीं बल्कि पाश्चात्य लोग भी इस किले को युद्ध के समय महत्वपूर्ण मानते थे | 17 वे शतक के शुरुआत में “डो कुटो” ने इसकी मजबूती पर अपने विचार प्रकट किए थे |
कोरलई प्रदेश मलाबार किनारे पर मुंबई के दक्षिण दिशा में स्थित है | प्रस्तुत कहानी जिस समय की है उस समय इस किले का किलेदार कृष्णराव चौबल था | इस किले को 1735 में बाजीराव पेशवा ने जीता था | 1739 में यह किला मराठा साम्राज्य मे शामिल होने के बाद इसकी सारी देखरेख कोरलई के किलेदार के पास आ गई |
मराठी राज में सबसे पहली बार इसकी किलेदारी कृष्णराव के दादाजी “जयवंतराव” को मिली | इन्होंने 14 साल कीलेदारी की | उसके बाद उनके पिता नारायणराव ने | उनके बाद अब कृष्णराव इसके किलेदार है | यही इस कहानी के नायक है |
यह किला जिस प्रदेश में था | उस मलाबार किनारे पर किसी एक राजा का शासन नहीं था | इसलिए आए दिन एक दूसरे के प्रदेशों को जीतने के लिए उनमें छोटे – मोटे युद्ध होते रहते थे | इससे प्रजा परेशान थी | उनका जीवन और धन सुरक्षित नहीं था |
इसका कारण यात्रा और व्यापार भी धोखे में था | इन सारे कारणों से निपटना , सुरक्षितता निर्माण करना , जंजीरा के सिद्धि से अपने प्रदेश की रक्षा करना , मराठों की धाक जमाए रखना , वक्त पड़ने पर किसी बड़े आक्रमण का सामना करने के लिए पुणे से मदद लेना , कोरलई के किलेदार का कर्तव्य था |
इन सारे कर्तव्य को निभाने के लिए किलेदार को हमेशा अपना तोपखाना , फौज , बंदूक , घोड़े , जहाज तैयार रखने पड़ते थे | इन सब का खर्च निकालने के लिए उन्हें कुछ प्रदेश बख्शीश दिया गया था | इन प्रदेशों में कुछ गांव और घने जंगल शामिल थे | इन्हीं जंगल की लकड़ियों से किलेदार के समुद्री सेना के लिए जहाज बनाए जाते थे |
कोरलई प्रदेश में और भी छोटे-छोटे किले थे | उन सारे किलो का हर तरह से नियमन करना भी कोरलई के किलेदार का कर्तव्य था | इन्हीं में से एक था घोसाळगढ़ का किला जिसे राष्ट्रदोही गोविंदपंत ने सिद्दी को दे दिया था |
जिस वक्त की यह कहानी है | उस वक्त तक शिवाजी महाराज का जन्म होकर 100 साल गुजर चुके थे | सिद्धि के तख्त पर अब्दुल रहमान विराजमान था | कोरलई के दक्षिण की तरफ सिद्दी का प्रदेश लगकर था तो उत्तर की तरफ आंग्रे प्रदेश लगकर था | यहां मानाजीराव आंग्रे विराजमान थे |
कोरलई का किला मराठी साम्राज्य में तब शामिल हुआ जब स्वराज्य का स्वर्णकाल चल रहा था | मराठे शौर्य और पराक्रम के उच्च स्थान पर थे | मराठा राज्य इस समय वैभव के शिखर पर था और इस वैभव का केंद्र पुणे शहर था | कहानी सन 1781 के दिसंबर महीने से शुरू होती है |
कहानी कोरलई और उसके आसपास के प्रदेशो में घटित होती है | यहाँ बहुत सारे पात्र है और सबके साथ कुछ ना कुछ घटित होते ही रहता है | इसलिए घटनाओं का अंबार लगा है | इसमें तीन पीढियों की बातें बताई गई है | हर एक घटना अपने आप में अलग है |
विभिन्न जगहों पर विभिन्न घटनाएं घटती है | इसलिए पाठक कभी-कभी भटक सकते हैं पर लेखक की कहानी पर पकड़ बहुत अच्छी है | वह हर एक पात्र का परिचय , उससे जुडी घटना की जानकारी अचूक देते हैं | सामान्य व्यक्तियों को सारी यात्राएं पैदल ही करनी पड़ती थी | चाहे वह कितनी भी लंबी यात्रा क्यों ना हो !
यातायात के साधन नहीं के बराबर उपलब्ध थे सिर्फ पालकी और घोड़ा थे जो सिर्फ उच्च वर्ग ही इस्तेमाल करता था या कर सकता था | शायद खर्च के कारण | इसीलिए किलेदार कृष्णराव और उनकी पत्नी को सामान्य दर्जा प्राप्त होने पर सारी यात्राए पैदल ही करनी पड़ती है |
यात्राओं में डाकुओं का भी भय लगा रहता था | इसलिए यात्राए सुखकर नहीं होती थी | लेखक अवास्तविक वर्णन करने से बचते हैं | कहानी मे जितने पुरुष पात्र है | उतनी ही स्त्री पात्र भी है | इसमें उच्च अधिकारियों से लेकर तो सेवक वर्ग तक शामिल है |
कुछ आदर्शवादी है तो कुछ आदर्शहीन है | पहले भाग में प्रायः आदर्शहींन पात्रों का बोलबाला है | बाद में अच्छे पात्र ही आपको ज्यादा नजर आएंगे | किलेदार कृष्णराव को उनके धन और उच्च पद के कारण बहुत सारे कष्ट भुगतने में पड़ते हैं | उनका जीवन कितने खतरे में पड़ जाता है | इसकी प्रचिती आपको प्रस्तुत किताब पढ़कर आएगी |
इनको इनके विश्वसनीय लोग ही धोखा देते हैं | इसी तरह कुछ कर्मचारी निष्ठावान है तो कुछ कर्मचारी धोखेबाज भी | कहानी में ऐसे बहुत सारे किरदार है जो षड्यंत्र के शिकार होते हैं | कामालिप्त और धन के लोभी पुरुष और स्त्री पात्रों के षड्यंत्रों को लेखक ने बखूबी वर्णित किया है |
हम ऐसे पात्रों को नजर अंदाज नहीं कर सकते क्योंकि ऐसे भी लोग समाज में मौजूद है | यही समाज का आईना है | लेखक हमेशा ही अच्छाई का समर्थन करते नजर आते हैं | आप इस उपन्यास को एक ऐतिहासिक उपन्यास ना समझे बल्कि इसे एक सामाजिक उपन्यास मान सकते हैं जिसमें लेखक ने नैतिकता का संघर्ष दिखाया है |
जैसा की मोहनराव अपने अच्छे कर्मों से अर्जित 1000 मोहरों को डाकू संतु को देने से मना करते हैं | हालांकि , वह बड़े आसानी से दे सकते थे पर फिर भी वह नहीं देते | गोदी , यशोदा जैसी सुलक्षणी स्त्रियां है तो अहिल्या और रुखमा जैसी कुलक्षणी स्त्रियां भी है |
हमें लगता है कि लेखक इस ऐतिहासिक कहानी के माध्यम से जीवन में नैतिक मूल्यों की स्थापना करना चाहते हैं | वह एक आदर्श समाज चाहते हैं जिसमें अच्छे व्यक्तियों का बोलबाला हो ! बुराई पर अच्छाई की जीत हो ! सच का बोलबाला हो ! सत्यमेव जयते हो !
आपको शौर्य का स्मरण करानेवाले बहादुर मराठा योद्धाओं की यह कहानी है | आशा करते हैं अभी आपको कहानी की पूरी पृष्ठभूमि समझ गई होगी और किलेदार का महत्व और साथ मे मराठी साम्राज्य की जानकारी के ज्ञान में वृद्धि भी …. तो कहानी आगे बढाते हैं और देखते हैं इसका –
सारांश –
कोरलई किले के वर्तमान किलेदार कृष्णराव चौबल थे | यह पद उन्हे वंशपरंपरागत तरीके से प्राप्त हुआ था पर वह इस पद के लिए पूर्णतः योग्य थे | प्रजा उनके राज में सुखी थी | उनकी सैन्य सुरक्षा एकदम कड़क थी | समंदर में भी समुद्री लुटेरे उनसे डरते थे |
सिद्धि भी उनसे डर कर ही रहता था | वह एक प्रजा वत्सल और न्यायपालक राजा थे | राजा ! जी हां , किलेदार उनके प्रदेश के राजा ही होते थे | किलेदार एक उच्च पद था | यह किताब पढ़ कर आपको पता चलेगा कि किलेदार का ओहदा कितना बड़ा होता है |
यहां तक के उनके किले के झंडे अलग होते थे पर सबसे ऊपर जरीपटका याने के भगवा झंडा ही लहेराया जाता था | उनकी मुद्रा अलग होती थी | ऐसे फिर कितने ही किले शिवाजी महाराज के स्वराज में सम्मिलित थे | जरा सोचिए वह कितने बड़े राजा होंगे |
कोरलई के कीलेदार से उनकी प्रजा बेहद प्यार करती है | वह तीरंदाजी में अव्वल है | एक बार जब वह अपनी पत्नी के साथ समुद्री जहाज पर होते हैं तो समुद्री लुटेरा गुंडोजी उनके जहाज पर हमला करने की सोचता है | वह अपने निशाने से गुंडोजी के निशान को तहस-नहस कर देते हैं | उसके बाद वह अपने जहाज पर जरीपटका लहराते हैं तो गुंडोजी डरकर भाग जाता है | ऐसा दरारा स्वराज्य का था कि बदमाश उसे देखकर ही भाग जाते थे |
किलेदार की यह निशानेबाजी देखकर उनकी पत्नी यशोदाबाई तो गदगद ही हो गई | उन दोनों का एक दूसरे पर बहुत प्रेम था | वह हर तरह सुखी संपन्न थे पर निसंतान थे | इसीलिए यशोदाबाई ने गौरीपुत्रा देवी को नवस बोला था |
उसी को पूरा करने के लिए वह समुद्री जहाज से सफर कर के मंदिर गई | वापसी में बहुत बड़ा तूफान आया और सबकी उसमें मृत्यु हो गई | पत्नी के मृत्यु शोक में कृष्णराव ऐसे डूबे की उन्हें अपने कर्तव्य का ध्यान ही नहीं रहा | एक मामूली नौकर गोविंदपंत उनका करीबी बन गया |
गोविंदपंत ने कृष्णराव का विश्वास संपादन कर लिया | गोविंदपंत एक बहुत ही महत्वाकांक्षी व्यक्ति था | वह धूर्त , चालाक और कपटी था | किसी की तरक्की , अच्छाई उससे देखी नहीं जाती थी | वह जुबान से मीठा बोलता था | वह कृष्णराव से भी बहुत ईर्ष्या करता था | उसके अनुसार कृष्णराव सिर्फ अपने वंशपरंपरा के कारण किलेदार बना , अगर गोविंदपंत को यह मौका मिले तो वह भी किलेदार बनाकर दिखाएं |
अपने यह विचार वह बहुतों के पास बताता था | जो व्यक्ति उसके विचारों से सहमत नहीं होता वहाँ वह अपनी बात तुरंत बदल देता था | ऐसे ही भिकंभट और उनका बेटा है जो कृष्णराव के बारे मे कुछ भी बुरा नहीं सुन सकते | वह कोरलई के ही एक गांव बोरलई में रहते थे |
यहीं पर अर्जुनशेट की किराना दुकान थी | वह मीठा बोलबोल कर लोगों से जानकारी इकट्ठा करता था पर यह इस जानकारी का करता क्या था ? इसके बारे मे आगे बताते है | इस के घर में अहिल्या नाम की युवती रहती थी | इसने गोविंदपंत को अपने रूप के जाल में फंसा रखा था क्योंकि यह गोविंदपंत के विचारों के कारण अपने एक षड्यन्त्र में उसका इस्तेमाल करना चाहती थी |
उसके इस षड्यन्त्र मे उसका साथ देनेवाले थे | डाकू संतु , अर्जुन शेट , गुंडोजी और एक लीलाधर नाम का व्यक्ति जो शक्लसूरत से पूरी तरह किलेदार कृष्णराव जैसा दिखता था | संतु तीन साल पहले हबसाना यानी सिद्धि के प्रदेश में डाकूगिरी करता था |
वहां उसके हाथों अहिल्या के बूढ़े पति का खून हो गया था | इसलिए वह भागकर कोरलई आया था | उसने देखा की इस प्रदेश में बहुत से जंगल है जो छुपने के लिए उपयुक्त है |
कोरलई का प्रदेश और लोग हर तरह से संपन्न है | तो यहां लूटमार कर के अच्छा पैसा कमाया जा सकता है और वह चैन की जिंदगी जी सकता हैं पर इसके लिए उन्हें कृष्णराव को रास्ते से हटाना होगा क्योंकि वही इनके रास्ते की अड़चन है |
तभी इन लोगों को लीलाधर मिलता है | अब संतु की टोली को असली किलेदार की जगह नकली किलेदार प्लांट करना है ताकि उनका प्लान सफल हो सके |
इसी प्लान के तहत गोविंदपंत , कृष्णराव का करीबी खिदमतगार बन जाता है | एक दिन वह मौका पाकर अपने प्लान को अंजाम देते हैं | वह कृष्णराव को एक किले के रूम में बंद कर के उन्हें दीवार में चुनवा देते हैं पर किलेदार वहां से भाग कर फिर से संतु की गिरफ्त में आ जाते हैं |
वह 10 से 12 साल उसी के जहाज में कैद रहते हैं | उधर उनकी पत्नी यशोदाबाई बच जाती है | वह माँ बननेवाली है | अब वह भांगुरली गांव में रह रही है | यह प्रदेश सिद्धि की हद में आता है | इसीलिए वह अपनी पहचान छुपाती है क्योंकि सिद्धि उसके पति का दुश्मन है | ऐसे में एक गरीब स्त्री ढाली उसकी मदद करती है |
वह यशोदाबाई और उसके पुत्र गौरीशंकर की अच्छी देखभाल करती है | यशोदाबाई बहुत से जासूस और मैसेज कोरलई भेजती है पर किसी का भी जवाब नहीं आता | आखिर वह हारकर ढाली को ही कोरलई भेजती है और खुद उस सोनार के पास जाने निकलती है जिसने उसके बच्चे की कुंडली बनाई थी |
वह सोनार दूसरे गांव में रहता है | वह उस गांव में स्थित मंदिर में , उतरे एक मेहमान के पास अपने बच्चे को देकर गांव में जाती है | बीच में ही सिद्धि के लोग उसे मजदूरों का काम करने के लिए दूसरे गांव लेकर जाते हैं | यह सारे गांव सिद्धि के प्रदेश में है | इसीलिए उसे सारे काम अपमान सहकार भी करने ही पड़ते हैं |
मजदूरोवाले काम करके उसकी तबीयत बहुत ज्यादा खराब होती है क्योंकि उसे इन कामों की आदत नहीं रहती | यहां बीमारी में चार-पांच दिन सकवारबाई नाम की महिला उसकी मदद करती है |
ठीक होकर वह मंदिर पहुँचती है तो वह गलत गांव में पहुंचती है | बहुत चलने के बाद वह असली गांव में आती है पर तब तक उसके बच्चे के साथ वह लोग जा चुके होते हैं | अपने बेटे के ग़म मे वह पागल हो जाती है |
अब कहानी 15 साल आगे बढ़ती है | इस दौरान संतु के टोली ने कोरलई मे त्राही – त्राही मचा रखी है | कृष्णराव के बचपन के मित्र रहे मोहनराव कोरलई के दीवान हैं | इनकी योग्यता पर कृष्णराव को यकीन है | पहले यह दोनों मित्रवत व्यवहार करते थे पर वक्त के साथ दोनों में दूरियां बढ़ती गई | कृष्णराव ने अपने ऊंचे ओहदे के कारण मोहनराव से मित्रता कम कर दी |
अब उन दोनों में मालक और सेवक का रिश्ता है | मोहनराव ने भी इस बदलाव को स्वीकार कर लिया था पर उन्होंने कभी कृष्णराव का बुरा नहीं चाहा | अब 15 साल बाद भी उनका स्वभाव वैसा ही है | यह भी निसंतान ही थे | इन्हें भी इस दरम्यान एक पुत्री की प्राप्ति हुई जो गौरीशंकर से 3 साल छोटी है |
मोहनराव को अपने सूबे की दशा देखकर बहुत चिंता होती थी | इन्होंने यह भी जान लिया था कि कीलेदार नकली है लेकिन उनके पास कोई सबूत नहीं था फिर भी इन्होंने तीन-तीन साल के अंतराल पर पांच व्यक्तियों को पुणा भेजा पर सब गायब हो गए |
आखिर में थक हारकर , यह स्वयं वहां जाने के लिए तैयार हुए पर गोविंदपंत और उनके साथियों के द्वारा इनको भी अगवा कर लिया गया | इन्हें संतु डाकू के अड्डे पर भेजा गया | इधर मोहनराव की बेटी गोदी पर नकली किलेदार की बुरी नजर है | उसे भी अगवा कर लिया जाता है पर वह गुप्त रास्ते से भाग निकालने मे कामयाब हो जाती है |
भागने के बाद उसे कुछ मददगार लोग मिलते हैं | इसे बीमार पड़ने के बाद पीशी अम्मा के पास रखा जाता है | उसी के पास रहते हुए इसकी मुलाकात मुकुंद से होती है जो अपने पिता रामराव और माता रेवती के साथ चौल मंदिर के दर्शन के लिए आया है |
उसी दिन गोदी ,अहिल्या के हाथ लगकर संतु के ठिकाने पर पहुंचाई जाती है | मुकुंद के काफिले पर डाकू हमला कर उसे और उसकी माँ रेवती को भी संतु के ही ठिकाने पर पहुंचाते है |
यहां से मुकुंद और गोदी को जनकोजीराव छुड़ा लेते है जो संतु के ही डाकू टोली के एक सदस्य है पर उनका इसमें सम्मिलित होने का कोई दूसरा ही उद्देश्य है | वह भी एक वीर व्यक्ति है | तीर चलाने में इनका कोई सानी नहीं | यह भी रोज भगवद्गीता का एक पाठ पढ़ते हैं |
हम तो जनकोजीराव की इन आदतों से जान गए थे कि असल में वह कौन है ? अगर आप भी जान गए तो हमें जरूर बताइएगा | कमेन्ट बॉक्स मे जरूर लिखिएगा | मुकुंद की माँ रेवती को भी रुखमा धन की लालच मे डाकुओ के चंगुल से छुड़ा लेती है |
वही सबको बताती है की मोहनराव डाकुओ की चंगुल से भाग गए है तब जब बहुत बडा तूफान आया था | डाकुओ के हमले के बाद रामराव को पास के ही गाँववालों ने शरण दी थी | अब सब लोगों की मुलाकात इसी गांव के घर में होती है |
मोहनराव भागकर एक गुफा में शरण लेते हैं क्योंकि अगर वह अपने महल वापस जाएंगे तो गोविंदपंत के व्यक्ति उन्हें गिरफ्तार करके मार डालेंगे | इसीलिए वह गुफा मे ही रहकर सोचते हैं कि आगे क्या करना है ?
वह इसी गुफा में आगे बढ़ते है | यह देखने के लिए की आगे क्या है ? तभी एक आदमी उन्हें वहां आता हुआ दिखाई देता है | वह उस गुप्त जगह पर रखे अपने खजाने में धन जमा करने आया था और अपने कागज पत्र भी जाँचने आया था |
यह डाकुओं का सरदार संतु था | वह गुफा कर्नेश्वर मंदिर की सुरंग से जुड़ी हुई थी | कर्नेश्वर का मंदिर अपनी गुप्त जगह , रहस्यमय शक्तियों और भूत – प्रेतों के लिए विख्यात , घने जंगल में स्थित टूटा मंदिर था |
मोहनराव , संतु की सारी कारवाई पत्थर के पीछे छिपकर देख रहे थे | उन्होंने देखा कि संतु के जाने के बाद एक और व्यक्ति वहां आया | वह अपने आप से जो बातें कर रहा था | उनसे मोहनराव को पता चला की यह भी संतु का दुश्मन है |
अब वह अंधेरे से बाहर आकर उस व्यक्ति से मिले | असल मे वह जनकोजीराव थे जिन्हें श्रीमंत पेशवा ने अपना जासूस बनाकर सबूत इकट्ठा करने कोरलई भेजा था ताकि कोरलई में अराजकता मचानेवाले लोगों को सजा दी जा सके |
अब मोहनराव और जनकोजीराव ने नरसू के साथ मिलकर संतु के सारे कागज पत्र पढे |उनमें उन्हें बहुत ही ठोस सबूत मिले | इसके बाद यह तीनों रामराव के ठिकाने पर पहुंचे | वहां इन सब लोगों ने नकली किलेदार , गोविंदपंत , संतु , अर्जुन शेट , गुंडोजी , अहिल्या का पर्दाफाश करने के लिए योजना बनाई |
अब वह कौन सी थी ? किसके हिस्से में कौन सा काम आया ? यह आप किताब पढ़ कर ही जान लीजिएगा | श्रीमंत पेशवा से मोहनराव के मिलने के बाद पुणे से एक जांच दल भेजा जाता है | वह यहां आकर सारे मुजरिमों से उनके गुनाह कबूल करवाने में कैसे सफल होते हैं ? यह आप जरूर पढ़िएगा |
वह सारे मुजरिमों को अपने साथ पुणे लेकर जाते हैं | अब श्रीमंत उनको क्या सजा देते है ? यह भी जरूर पढ़िएगा | सजा ही देंगे माफ तो नहीं करेंगे क्योंकि उन्होंने प्रजा को जो छला है | इधर पता चलता है जनकोजीराव ही असली किलेदार , कृष्णराव है |
पीशी अम्मा उनकी पत्नी यशोदाबाई है और मुकुंद उनका खोया पुत्र गौरीशंकर है पर इन सबको जोड़नेवाली कड़िया भांगुरली की ढाली और सकवारबाई कृष्णराव तक कैसे पहुंची ? वैसे भी मुकुंद ही गौरी शंकर है ? यह कैसे पता चला ? इन सबकी मदद के बदले कृष्णराव ने क्या किया ?
उपर्युक्त सारी बातों के साथ – साथ सबको यह भी पता चलता है की गोविंदपंत ने महज कुछ मुद्राओं के लिए घोसाळगढ़ के किले का गुप्त रास्ता सिद्धि को बताया था | जिसकारण सिद्धि ने उस किले पर अधिकार कर लिया | मोहनराव और कृष्णराव के रिश्ते अब पहले जैसे मित्रवत हो गए हैं |
अब तो मुकुंदा और गोदी के विवाह के कारण यह रिश्ता और मजबूत हो गया है | अब कृष्णराव और यशोदाबाई में परिस्थितियों के कारण पहले जैसी महत्वाकांक्षा नहीं रह गई है | फिर भी उन्हें अपने कर्तव्य निभाने है |
अब आप पढ़कर यह जानीए की क्या वह दोनों अपने कर्तव्य सफलता से निभाने में कामयाब होते हैं ? क्या कोरलई के किले को पहले जैसा मान – सम्मान प्राप्त होता है ? क्या यह सब लोग कोरलई की बिगड़ी हुई सारी स्थिति को सुधार पाते हैं या नहीं ? पढ़कर जरूर जानिएगा | कोरलई का किलेदार – भाग 1 व 2 ….
तब तक पढ़ते रहिए | खुशहाल रहिए | मिलते हैं और एक नई किताब के साथ | तब तक के लिए ….
धन्यवाद !!