KENJALGADHCHA KABJA BOOK REVIEW HINDI

केंजळगढचा कब्जा
श्री. विद्याधर वामन भिडे द्वारा लिखित
रिव्यू –
यह कहानी तब की है जब हर तरफ मुगल , तुर्क अफगानी लोगों का शासन था | उनके द्वारा हिंदुओं पर अनगिनत अत्याचार किए जाते थे | उनकी जान – माल की कोई सुरक्षितता नहीं थी | यहाँ तक की उनके घर की स्त्रियां भी सुरक्षित नहीं थी |
अगर कोई अपने घर की स्त्रियों को इन शासकों के हरम मे ना भेजना चाहे तो उन पर नाना तरह का इल्जाम लगाकर उन्हें ही सजा का पात्र बना दिया जाता था या फिर उन्हें मृत्युदंड दिया जाता था | अगर हिंदू जनता उन पर हुए अत्याचार के लिए किसी मुस्लिम शासक के पास न्याय मांगने जाती तो , वही इल्जाम उस पर ही थोपा जाता या उन्हें ही सजा दी जाती |
जो कोई अपना धर्म बदलकर मुस्लिम नहीं बनना चाहता था | उन्हें भी मृत्युदंड दिया जाता था | भारतदेश पर यह सत्ता पिछले 350 वर्षों से राज करती आ रही थी | भारत के लोग पता नहीं फिर भी क्यों ? किसी आशा पर जीवित थे |
अपने पुराणों , वेदों , ग्रंथों भगवानों पर विश्वास शायद उनमें जीने की एक आशा जगाए हुए था की जैसे त्रेता युग में असुर रावण का विनाश कर ने भगवान विष्णु ने भगवान राम का जन्म लिया था | द्वापर युग में उन्होंने भगवान कृष्ण के रूप में जन्म लेकर समस्त धरती को बुरे लोगों से मुक्त कर दिया था |
वैसे ही इस कलयुग में हिंदुओं की रक्षा करने के लिए कोई अवतारी पुरुष आएगा | ऐसे ही अवतारी पुरुष का नाम उन्होंने “शिवाजी” के रूप में सुना था पर उनको लगता था कि शिवाजी कोई काल्पनिक पुरुष है | असलियत में इस नाम का कोई व्यक्ति है ही नहीं |
मुस्लिम शासक तो मानते थे कि हिंदुओं ने यह कोई अफवा उड़ाई है | तब तक शिवाजी महाराज को कुछ ही लोग जानते थे क्योंकि वह खुद 16 से 17 साल के थे और स्वराज्य स्थापना की जस्ट उन्होंने शुरुआती की थी | यह कहानी उन लोगों की भी है जिन्होंने स्वराज्य के निर्माण में अपना अमूल्य योगदान दिया | उन पर ना तो किसी कवि ने , चारणों ने , भाटो ने कविता लिखी और ना ही तो इतिहास ने याद रखा | ऐसे ही कुछ परदे के पीछे के लोगों की यह कहानी है |
कहानी महाराष्ट्र में घटित हुई है | महाराष्ट्र स्थित केंजलगढ़ के आसपास इसकी कहानी घूमते रहती है | सारे पात्र किसी न किसी रूप से केंजलगढ़ से ही जुड़े हैं | संपूर्ण किताब की कहानी एक हफ्ते में घटित होती है | यानी शुक्रवार से शुरू होकर शनिवार तक खत्म हो जाती है | प्रस्तुत किताब के –
लेखक है – श्री. विद्याधर वामन भिडे
प्रकाशक है – वरदा प्रकाशन
पृष्ठ संख्या है – 240
उपलब्ध है – फ्लिपकार्ट , किंडल और अमेजॉन पर

          हमारे द्वारा पढ़ी गई लेखक की यह दूसरी किताब है | लेखक की यह खासियत है कि वह हर पात्र की विस्तृत जानकारी देते हैं | उनकी कहानी में नायक और नायिका के बारे में एक साम्य देखने को मिला | वह यह की नायक अपने असली माता-पिता से बिछुड़ा हुआ होता है |
उसका पालन – पोषण अन्य ही दांपत्य करता हैं | उसके पिता अमूमन कोई किलेदार ही होता है | नायिका खूबसूरती लिए होती है | इसीलिए प्रायः उसे किसी कामालिप्त पुरुष के लिए अगवा किया जाता है | पर वह अपने पावित्र्य को बचाते हुए उनके चंगुल से भाग निकलने में कामयाब हो जाती है |
महाराष्ट्र के मराठी पार्श्वभूमि पर लिखी यह किताब है | पहले के सामान्य नागरिक कितना भी लंबा सफर हो पैदल ही तय करते थे या फिर घोड़े पर बैठकर | घोड़ा चलाना भी आजकल के कार या बाइक चलाने जैसा ही था | वह सफर के बीच में पड़नेवाले गांवो में से किसी के भी घर रुक सकते थे | गांव के लोग भी उन्हें अपने घर के एक हिस्से में रुकने की जगह देते थे | अनजाने लोगों पर इतना भरोसा आजकल के समय मे नदारत ही है |
सारांश –
केंजलगढ़ पर धोंडीबा नाम का व्यक्ति रहता है | उस किले पर किसी नवाबसाहब का हुक्म चलता है | यह खुद को स्वतंत्र किलेदार कहता है | किसी की हुकूमत नहीं मानता | इसी नवाबसाहब के किले के लिए मशाल बनाने का काम धोंड़ीबा करता है | इस गढ़ पर कोंडीबा भी रहता है |
दोनों बचपन के मित्र है और रिश्ते में एक दूसरे के साडू लगते हैं | धोंडीबा आज शुक्रवार के दिन चिंता में है क्योंकि उसकी खूबसूरत बेटी अरुंधति पर नवाबसाहब की बुरी नजर पड़ चुकी है | वह अरुंधति का धर्म परिवर्तन कर उसे अपने हरम में रखना चाहता है | | धोंडीबा इस बात के लिए मना करता है |
उसी रात उसे पता चलता है कि नवाब अपने जफर खान नाम के सरदार को अगले दिन अरुंधति को जबरदस्ती लाने के लिए भेजनेवाला है | अब वह अपनी बेटी को बचाने के लिए आनन – फानन में अपनी पत्नी मालती और अपने भांजे गजानन के साथ बीजापुर के लिए रवाना करता है | जब नवाब को यह बात पता चलती है तो वह धोंडीबा को कैद मे डलवा देता है |
इधर अरुंधति , मालती , गजानन केंजलगढ़ से थोड़ी दूर अस्त्रेखवली से आगे जाकर बीच में पड़नेवाले नांदेड़ गांव में रहनेवाले महेश्वर के घर में , एक रात के लिए रुकते हैं | इन्हीं महेश्वर का बेटा है “पुंडरीक” | यह करीब 20 साल का है |
इसकी देहयष्टि मजबूत है | यह खूबसूरत भी है | यह युद्ध – कौशल भी जानता है | अगले दिन यही इन तीनों को पासवाला जंगल पार करा देता है जिसमें डाकुओं का भारी खतरा है | जाफरखान और उसके सैनिक आगे जाकर अरुंधति को पकड़ पाने में कामयाब हो ही जाते हैं | वापसी मे धोंडीबा इन लोगों को रोकने की कोशिश करता है पर नाकामयाब रहता है क्योंकि वह भी कैद से भाग निकलने में कामयाब हो जाता है |
उससे कुछ ही दूर उम्बरवाड़ी गाँव में बंडोबा नाम का मराठा व्यक्ति , मुसलमान चोरों की टोली के साथ मिला हुआ है | वक्त आने पर यह उनकी मदद भी करता है और चोरी में हिस्सा भी लेता है | इसी के घर के सामने एक साधु बाबा खड़ा होकर पूछताछ करता है तो बंडोबा उसका अपमान करके उसे वहां से भगा देता है |
साधुबाबा उसका यह व्यवहार देखकर दुःख और ग्लानि से भर जाता है | वह वापस उसी रास्ते से जाने लगता है जहाँ धोंडीबा अत्यंत दीन और दुःखी अवस्था में खड़ा है | साधुबाबा , धोंडीबा की स्थिति जान उसे मदद करने की ठानते है |
अब वह महाराष्ट्र की ऐसी अवस्था देख अपना साधु रूप त्याग कर योद्धा रूप लेना चाहता है ताकि वह अपने समाज के लिए कुछ कर सके | अब यह दोनों मिलकर बिजापुर जाने के लिए निकलते हैं | इत्तेफाक से यह दोनों भी महेश्वर के ही घर रुकते हैं | बातचीत के दौरान इन्हें मालती और अरुंधती के बारे में पता चलता है |
इसी दिन उनके लिए रोटी बनाने मुक्ताबाई तावरे नाम की जो महिला आती है | वह बताती है कि 16 साल पहले वह केंजलगढ़ के हिंदू किलेदार के बच्चे की आया थी | दूसरे दिन गजानन अपने कुछ साथियों के साथ पुंडरीक से मिलने आता है | उसके साथियों में मल्हारी नाम का नव किशोर भी है | उसने प्रत्यक्ष रूप से शिवाजी महाराज को देखा है |
यह सुनकर बाकी सब लोग हैरत में पड़ जाते हैं क्योंकि अब तक इन सारे लोगों को लगता था कि शिवाजी कोई काल्पनिक पुरुष है | असल में ऐसा कोई व्यक्ति है ही नहीं | मल्हारी की बात सुनकर अब सब अपने महाराष्ट्र के लिए कुछ करना चाहते हैं | गजानन और उसके साथी पहले , अपने ही दम पर अरुंधति को छुड़ाने के लिए केंजलगढ़ जानेवाले थे पर अब सब मिलकर बाल शिवाजी से मिलने निकल पड़ते हैं |
यह सब उस जगह पहुंचते हैं जहां बड़ा सा मैदान है | वहां कुछ किशोर अलग-अलग खेल खेल रहे हैं | उन्ही मे से मल्हारी शिवाजी महाराज को पहचान लेता है | शिवाजी महाराज के साथ उनके अत्यंत ही खास मित्र तानाजी मालुसरे , बाजी पासलकर और येसाजी कंक है |
इन चारों के देह तो अलग है पर आत्मा एक है | एक जो सोचता है | समझो बाकी तीनों भी वही सोच रहे होते हैं | यह चारों अभी लगभग 16 से 17 साल के हैं | महेश्वर के गाँव के निकले कुछ युवक शिवाजी महाराज से मिलकर उनको केंजलगढ़ की बात बताते हैं |
अब अरुंधति को छुड़ाने के लिए केंजलगढ़ पर हमले की बात महाराज सोचते हैं | अब इसके लिए वह क्या-क्या प्लान बनाते हैं ? उसे कैसे अंजाम देते हैं ? यह आप किताब में पढ़ लीजिएगा | इधर हमले के वक्त अरुंधति चाकू से नवाब को खत्म कर देती है | तो उधर महेश्वर के गांव के बहुत सारे पुरुष केंजलगढ़ पर हमला करने के लिए गए रहते हैं |
तब इस स्थिति का फायदा उठाकर कुछ चोर महेश्वर के घर में चोरी करते हैं | अब इन चोरों का पीछा बंडोबा करते रहता है ताकि यह चोर उसके साथ धोखा ना करें | चोरी के सामान में से कोई मूल्यवान चीज गायब न कर दे ! अब यह चोर भी उम्बरवाड़ी गाँव न जाकर केंजलगढ़ के पासवाले गांव अस्त्रेखवली जाने के लिए निकलते हैं |
उसके पहले ही महेश्वर की पत्नी भवानी , मुक्ताबाई तावरे , दयालसिंह घोड़े पर सवार होकर केंजलगढ़ महेश्वर के पास पहुंचते हैं | वह उनको चोरी की खबर देते हैं जिसमें पुंडरीक के बचपन से जुड़े सामान थे | इतने में केंजलगढ़ से घूमने के लिए निकले कुछ सिपाही उन दो चोरों को और बंडोबा को इन सबके सामने लाते हैं |
अब पुण्डरीक से जुड़े सामान को देखकर कौन-कौन चौंकता है ? साधु से योद्धा बने वीर से बंडोबा क्यों नज़रें चुराता है ? पुंडरीक आखिर है कौन ? साधु बने वीर योद्धा के पास करोड़ों रुपए कहां से आए जो वह स्वराज को दान कर देता है और आखिर में पुंडरीक और अरुंधती के प्रेम की परिणति सुखद होती है या दुखद ?
यह जानने के लिए जरुर पढिए “केंजलगढ़चा कब्जा” | तब तक पढ़ते रहिए | खुशहाल रहिए मिलते हैं और एक नई किताब के साथ | तब तक के लिए.. धन्यवाद !!

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