ICHCHAMRITYU BOOK REVIEW AND SUMMARY

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इच्छामृत्यु
देवेंद्र पांडेय द्वारा लिखित
रिव्यू –
यह किताब उन शूरवीरों के शौर्य के बारे मे बताती है जिन्होंने अपनी इच्छाशक्ति और दृढ़ता से मृत्यु को भी इंतजार Read more करने पर मजबूर किया |
यह पुस्तक इतिहास के उस हिस्से की साक्षी बनती है जो मानवीय इच्छाशक्ति की मृत्यु पर जीत और अदम्य साहस का प्रतीक है | यह 41 मील के दुर्गम सफर, 21 घंटे और हजारों शत्रुओं के बीच लड़े गए उस युद्ध की कहानी है जिसने इतिहास की दिशा बदल कर रख दी |
गंभीर रूप से घायल होने के बावजूद, उन्होंने शिवाजी महाराज के लिए महत्वपूर्ण समय खरीदने के लिए, कई घंटों तक एक बहुत बड़ी दुश्मन सेना के खिलाफ बिना रुके लड़ना जारी रखा |
उन्होंने तब तक लड़ाई जारी रखी जब तक उन्होंने तीन तोपों की आवाज का संकेत नहीं सुना, जो शिवाजी महाराज का विशालगढ़ में सुरक्षित पहुंचने का संकेत था | इसके बाद उन्होंने गंभीर रूप से घायल होने के कारण अपनी अंतीम सांस ली | उनके बलिदान को मराठा इतिहास में निष्ठा और साहस का एक सर्वोच्च कार्य माना जाता है |
बाजीप्रभु देशपांडे इस किताब के और इस लड़ाई के मुख्य हीरो है | उन्होंने स्वराज्य के लिए , अपने राजे के लिए अपना बलिदान दिया | पर क्यों ? क्यों उनके लिए स्वराज्य और राजे इतना महत्व रखते थे | इसलिए आप को शिवाजी महाराज के पहले भारत देश मे व्याप्त परिस्थितियों को जानना होगा |
इसके लिए आप “केंजलगढ़चा कब्जा” इस किताब का रिव्यू पढे | लिंक निचे दिया है | इन परिस्थितियों से पार पाने के लिए , शिवाजी महाराज ने स्वराज्य की स्थापना की | इसकी क्रांतिकारी शुरुवात उन्होंने महाराष्ट्र से की | प्रस्तुत किताब के –
लेखक है – देवेंद्र पांडेय
प्रकाशक है – बुकेमिस्ट
पृष्ठ संख्या है – 128
उपलब्ध है – अमेजन और किन्डल पर
महाभारत में पितामह भीष्म को इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त था पर क्या कलयुग में कोई अपनी इच्छा से अपने प्राण छोड़ सकता है जबकि यह सब भगवान के हाथों में होता है | हां , अपने पराक्रम , शौर्य और अपने राजे के प्राण बचाने का वचन निभाने के लिए एक महान व्यक्ति ने साक्षात मृत्यु को भी रोक के रखा |
उन्होंने अपने प्राण तब तक नहीं छोड़े जब तक उनका वचन पूर्ण नहीं हुआ | ऐसे पराक्रमी , शूरवीर , स्वराज्य के लिए अपने प्राण देनेवाले महान लोगो मे शामिल है ,बाजी प्रभु देशपांडे, फुलाजी देशपांडे , बांदल और जेधे योद्धा | उनके पराक्रम की साक्षी रही घोडखिंड अब पावनखिंड के नाम से जानी जाती है क्योंकि उनके रक्त से वह पावन हो गई थी |
जब भी आप पढ़ते हैं , सुनते हैं की फला – फला इसने बहुत बहादुरी से लड़ाई की पर हम इतने थोड़े शब्दों में उस घटना का मर्म समझ नहीं पाते | अगर यही घटना कोई हमें ऐसे बताए जैसे कि वह वहीं मौजूद हो ! तब हम उस घटना को बारीकी से समझ पाते है |
यही बात लेखक ने प्रस्तुत उपन्यास के बारे मे की है जिससे हमे उन शूरवीरों के बारे मे पता चलता है और उनका पराक्रम जानकर मन में उनके लिए बेपनाह मान – सम्मान बढ़ जाता है |
लेखक इसमें खूब कामयाब हुए हैं | स्वराज्य के लिए बलिदान देनेवाले इन हुतात्माओं के बारे में पढ़कर पग – पग पर आपका रक्त खौल उठेगा | मन में वीररस जाग उठेगा | लेखक ने भी उनके पराक्रमों का सही और सटीक वर्णन करने के लिए शब्दों का सही चुनाव किया है कि पढ़ते समय हर वक्त आपका सीना गर्व से फूल उठेगा |
अब आप पूछेंगे कि क्यों बाजीप्रभु और उनके साथियों को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी | ऐसा क्या संकट आ पड़ा था | इसी प्रश्न के उत्तर की पृष्ठभूमि पर प्रस्तुत किताब लिखी गई है |
सारांश –
बाजीप्रभु और उनके बड़े भाई स्वराज्य में आने के पहले कृष्णाजी बांदल की सेना में थे | कृष्णाजी बांदल ,रोहिडा किले के किलेदार थे | वह विजापुर के आदिलशाह की चाकरी करते थे |
राजे ने 14 साल की उम्र में ही स्वराज्य स्थापना की शुरुआत कर दी थी | इसके लिए उन्होंने वीजापुर के आदिलशाह के इलाकों और किलो को जितना शुरू कर दिया था | इसी में से एक किला रोहिडा था |
कृष्णाजी बांदल की मृत्यु के साथ ही राजे इस किले का युद्ध जीत गए थे | कृष्णाजी बांदल की मृत्यु के बाद भी बाजी और फुलाजी ने हार नहीं मानी और युद्ध के लिए तैयार थे पर जैसे ही उन्होंने राजे की आवाज सुनी और उनके तेजोमय मुखमंडल को देखा |
उन्हें इसका तक भान नहीं रहा कि उनके हाथों में हथियार है | वह बस महाराज की बातों को सुनते रहे | राजे चाहते थे कि इन दोनों भाइयों का पराक्रम स्वराज्य के काम आए | वैसे भी राजे ने उन्हें पितातुल्य सम्मान दिया क्योंकि यह दोनों शाहाजी महाराज के साथ काम कर चुके थे | शाहाजी महाराज भी बीजापुर के आदिलशाही में एक प्रतिष्ठित सरदार थे |
राजे के व्यक्तित्व के आगे और उनके तर्क के आगे बाजी और फुलाजी ने समर्पण कर दिया और इस तरह स्वराज्य को दो अनमोल रत्न प्राप्त हुए | वैसे दोनों भाइयों में राम – लक्ष्मण जैसा प्रेम था | अपने ज्येष्ठ होने की गरिमा रखने के लिए ही शायद फुलाजी ने बाजी के कुछ क्षण पहले ही अपने प्राण त्यागे |
महाराज ने एक के बाद एक आदिलशाहा के किले जीते | इसीलिए उसने महाराज को रोकने के लिए अफजलखान को भेजा | उसके साथ उसके बेटे भी थे | अफजलखान पहले वाई का सूबेदार रह चुका था |
इसलिए महाराज ने उसे संधि करने के लिए प्रतापगढ़ के नीचे बुलाया | उन्होंने उसके लिए पूरा जाल फैला रखा था अगर उसने संधि के बहाने दगा किया तो …
वैसे ही हुआ | उसने राजे पर पहले हमला किया पर महाराज पूर्वतैयारी के साथ गए थे | इसलिए बच गए | वैसे अफजलखान का डीलडौल महाकाय था | उसे अपनी शक्ति पर बहुत घमंड था कि , वह अपने हाथों से ही शिवाजी को खत्म कर देगा |
राजे को सहयाद्री का भूगोल इस तरह पता था जैसे की यह प्रदेश उन्होंने अपने हाथों से बनाया हो | इसी का फायदा उठाकर उन्होंने प्रतापगढ़ पर अफजलखान को मार दिया | वैसे उन्होंने अपनी शानों – शौकत को बहुत बढ़ा – चढ़ाकर दिखाया ताकि अफजलखान इस दौलत को पाने की लालच में आ जाए |
उन्होंने यह भी दिखाया कि वह अफजलखान से बहुत डरे हुए हैं | बस , अफजलखान महाराज के इसी जाल में फंस गया और मारा गया | अफजलखान के मारे जाने के बाद महज 23 दिनों में महाराज ने आदिलशाह के 18 किले जीते | उनके इस कदम से दिल्ली का औरंगजेब भी डर गया |
बीजापुर के दरबार का राजा भले ही आदिलशाहा हो , पर चलता था बड़ी बेगम का सिक्का | उसके चुनौती को सिद्दी जौहर ने स्वीकारा | सिद्दी ने अपने दामाद मसूद , अफजलखान के बेटे फाजिल और बहुत सारी सेना के साथ पन्हाला किले को घेरा डाला क्योंकि तब महाराज पन्हाला मे थे |
अफजलखान ने जावली भाग को नष्ट कर दिया था | उसके उलट सिद्धी जौहर शांति से सिर्फ घेरा डालकर बैठा रहा क्योंकि वह महाराज को किले के बाहर निकालना चाहता था | उसने महाराज के अनुमान को भी गलत साबित किया | वह बरसात में भी वही डटा रहा |
महाराज उसके इरादे भाप गए थे | किले पर की रसद , गोला – बारूद सब खत्म होते आ रहा था | बाहर से कोई अंदर तक नहीं आ सकता था | ऐसे में एक जासूस बहुत ही खतरनाक रास्ते से महाराज के पास पहुंचा | इससे बाजी के मन में एक आशा की किरण जागी , महाराज को किले से बाहर निकालने की …
बाजी ने इस पर अमल करना शुरू किया | इस योजना के तहत शिवा नाई को महाराज बनाकर सिद्दी के खेमे में संधि के लिए भेजा गया | वह इस काम के लिए हंसते-हंसते तैयार हो गया | उसको तैयार करते समय महाराज के मन पर बड़ा बोझ था और आंखों में आंसू …
जिस रास्ते से 600 मावले महाराज को किले के बाहर निकालनेवाले थे | वह रास्ता हर तरह से जोखिम भरा था | एक क्षण की गलती और मौत होना तय था | जरासा पैर फिसला और खाई मे गिरने से कोई नहीं बच सकता था |
बिना जूते के उनके पैरों में कांटे गड़े , सांप पैरों के ऊपर से गुजरे , दल दलों में पैर फंसे , जोंक चिपकी , नुकीले पत्थरों से पैर घायल हुए , पैरों पर घाव और छाले पड़े , पर एक भी मावला रुका तक नहीं |
रुकना मतलब मौत ..क्योंकि पीछे आ रही थी सिद्दी जौहर की देढ़ हजार की ताजा दम की टुकड़ी , तो वही यह बेचारे भरी बरसात में रात भर के भूखे – प्यासे और थके हारे थे | फिर भी वह अपने राजे के लिए मरते दम तक लड़े | इतिहास में अपना नाम अमर कर गए | उनके पराक्रम को जानने के लिए आपको यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए |
उन्होंने अपनी क्षमताओं की क्षमताओं के भी परे जाकर अपना कर्तव्य निभाया | उन्हें तो मरने की भी फुर्सत नहीं थी , तो आराम करने की कहां से होगी ? इसीलिए शायद बाजीप्रभु ने साक्षात यम देवता को भी इंतजार करवाया |
अपना कर्तव्य पूरे होने के बाद ही वह अपनी मर्जी से उनके साथ गए जैसे कि उन्हें इच्छामृत्यु का वरदान मिला हो ! जैसे ही वह घोडखिंड में पहुंचे | मसूद की सेना को रोकने के लिए 300 मावले वही रूके रहे जबकि 300 मावलों के साथ राजे विशालगढ़ या खेलना की तरफ बढ़ चले क्योंकि प्रतापगढ़ के मुकाबले खेलना ही पास में था |
वैसे भी उन सबको पैदल ही यह सफर तय करना था | महाराज का जीवन सचमुच चुनौतीपूर्ण था | जिस विशालगढ़ पर उन्हें जल्द से जल्द पहुंचकर तोफ दागनी थी ताकि बाजीप्रभु घोड़खिंड से निकल सके |
इस खेलना किले को सूर्यराव सुर्वे ने घेर रखा था ताकि राजे किले पर जाकर सुरक्षित ना हो सके और घोडखिंड मे अटके लोगों के लिए मदद ना भेज सके | महाराज ने सुर्वे को हराया | तोफ भी दागी और मदद भी भेजी , पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी |
बाजीप्रभु , फूलाजी और उनके साथी अपनी अंतिम यात्रा के लिए निकल पड़े थे | बाजीप्रभु ने अपने शौर्य , बलिदान से अपना नाम इतिहास में अमर करवा लिया | जब-जब सहयाद्री की , शिवाजी महाराज की , स्वराज्य की बात होगी | बाजीप्रभु का नाम जरुर लिया जाएगा |
इसके साथ ही कुल कलंकित सूर्यराव सुर्वे का भी.. क्योंकि वह जागीर के लालच में ऐसा कदम नहीं उठाता | अपने लोगों का साथ देता | तो , शायद बाजीप्रभु कुछ और वक्त के लिए जिंदा होते | स्वराज्य और तेज गति से बढ़ता | और आज इतिहास.. . कुछ और होता | इतिहास को जरूर पढिए | तब तक पढ़ते रहिए | खुशहाल रहिए | मिलते है और एक नई किताब के साथ | तब तक के लिए ….
धन्यवाद !!

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