धनकुबेर कारनेगी: पुस्तक समीक्षा का सारांश
धनकुबेर कारनेगी
श्री अशर्फी मिश्रद्वारा लिखित
रिव्यू –
प्रस्तुत किताब के –
लेखक है – श्री अशर्फी मिश्र
प्रकाशक – हिंदी पुस्तक एजेंसी
पृष्ठ संख्या है – 196
ब्रिटिश भारत की औद्योगिक स्थिति और लेखक का खेद –
प्रस्तुत किताब प्रथम बार सन् 1924 में प्रकाशित हुई थी यानी के ब्रिटिश भारत में.. इसलिए भारत की औद्योगिक स्थिति आज के मुकाबले कुछ भी नहीं थी | इतना ही नहीं व्यापारियों को व्यवसाय करने के लिए भी अनुकूल स्थितियां नहीं थी |
इसीलिए अमेरिका जैसे धनकुबेर भारत में नहीं थे जो गरीबी से निकलकर धनकुबेर बने हो !
अमीरों का आचरण –
इसीलिए यहाँ के अमीर अपने धन का सदुपयोग यहां बसी गरीब जनता के लिए नहीं करते थे | इसके उलट यहां के अमीर और रईस राजकुल या जमींदार ही होते थे जो प्रायः गरीबों को निचोड़कर ही अमीर बने थे | उनको यहां की गरीब जनता से कोई लेना – देना ही नहीं था |
नवयुवकों की मानसिकता –
भारत देश की इस दशा पर लेखक को बहुत खेद है और दूसरा यह की , यहाँ का नवयुवक पढ़ – लिखकर बस्स् तैयार नौकरी ही करना चाहता है | वह व्यवसाय करके नौकरियों का निर्माण नहीं करना चाहता | लेखक को इस दशा पर भी बड़ा खेद है |
लेखक की आशा –
इसके साथ ही उन्होंने यह आशा भी बांध रखी है कि जब देश स्वतंत्र होगा तो यह सारी स्थितियां बदल जाएगी |
आज के भारत में परिवर्तन और लेखक की खुशी –
तब देश आत्मनिर्भर होगा | लेखक अगर आज जीवित होते तो आज देश में खुले कारोबारो की स्थिति देखकर बहुत खुश होते | इसका अच्छा – खासा उदाहरण “शार्क टैंक” है जिसमें भारत के कई व्यापारी दिखाई देते हैं | वह देखकर लगता है कि भारत बदल रहा है |
भारतीय धनकुबेरों का योगदान –
माननीय जे. आर. डी. टाटा और रतन टाटा जैसे धन कुबेरों ने अपने पैसों के थैले अपने देशवासियों के लिए खोल दिए हैं |
इनमें एक नाम श्रीमती सुधा मूर्तिजी का भी जुड़ गया है | इन धन कुबेरों ने अपने देश के लोगों की बहुत मदद की है |
जागरूकता का उद्देश्य –
यह भी देखकर लेखक जरूर खुश होते क्योंकि उन्होंने यह किताब नवयुवकों को जागृत करने के लिए ही लिखी थी |
वह नवयुवाओं को कथा -उपन्यास जैसे विषयों को साइड में रखकर धनकुबेर कारनेगी जैसा बनने की सलाह देना चाहते हैं ताकि उनके साथ -साथ देश का भी भला हो ! लेखक चाहते थे की वह अपने धन का सदुपयोग करें ना कि सिर्फ स्वार्थ के लिए उपयोग मे लाए | श्रीमान एंड्रयू कारनेगी ने बहुत पैसा कमाया पर उन्होंने आनेवाली पीढ़ियों का हक भी नहीं छीना |
जब उनको लगा कि ,उनका कमाया धन उनके लिए और उनके समाजकार्य के लिए पर्याप्त है | उन्होंने पैसा कमाना बंद कर दिया | इस तरह उन्होंने दूसरों को भी धन कमाने का मौका दिया | ब्रिटिश भारत मे जीवनचरित्र किताबो की कमी थी | अब ऐसी ढेर सारी प्रेरणादायक किताबें लिखी जा चुकी है |
भारत और अमेरिका के व्यापारियों/मजदूरों में अंतर –
भारत के व्यापारी और मजदूर और अमेरिका के व्यापारी और मजदूरो में यह फर्क है कि भारत का व्यापारी मक्खीचूस है | वह मजदूरों से ज्यादा काम लेकर कम पैसा देना चाहता है और मजदूर भी ईमानदारी की जगह बेईमानी से पूरे पैसे लेकर काम नहीं करना चाहते | उनकी इस बेईमानी के कारण कभी-कभी अच्छा व्यापारी भी उनकी मदद नहीं करना चाहता |
इसके उलट अमेरिका का मजदूर ईमानदारी से काम करता है और व्यापारी उसके मेहनत के हिसाब से पैसे चुकाता है |
एंड्रयू कारनेगी के जीवन से मुख्य सीख –
अब बात करते हैं श्रीमान एंड्रू कारनेगी की तो वह एक सफल व्यक्ति थे | सफल होने के लिए प्रायः उस व्यक्ति में महत्वकांक्षा पाई जाती है और यही महत्वाकांक्षा सफलता की सीढ़ी है | आईए , प्रस्तुत किताब के नायक श्रीमान एंड्रयू कारनेगी के जीवन से हम क्या सीख सकते हैं ? जानते हैं , सारांश में ….
सारांश –
श्रीमान एंड्रयू कारनेगी का जन्म और परिवार –
श्रीमान एंड्रयू कारनेगी का जन्म 25 नवंबर 1835 को स्कॉटलैंड के डनफरलिन में हुआ | उनके पिता का नाम विलियम कार्नेगी था | वह एक जुलाहे थे याने के कपड़ा बुनकर थे | श्रीमान एंड्रयू कारनेगी का नाम उनके दादाजी के नाम पर रखा गया पर उनका व्यक्तित्व उनके नानाजी जैसा था | वह उनकी जेरोक्स कॉपी ही थे |
उनके पिता एक शांत और कम बोलनेवाले व्यक्ति थे | उनकी माता एक अत्यंत सभ्य और भद्र महिला थी | श्रीमान कारनेगी के व्यक्तित्व निर्माण में उनके माता और पिता दोनों तरफ के परिवार के लोगों का बड़ा योगदान था | उनके परिवार की स्थिति अन्य लोगों के मुकाबले अच्छी ही थी |
अपने जन्मस्थान से प्यार –
उन्हें अपने जन्मस्थान डनफरलिन ,स्कॉटलैंड से बेहद लगाव था | वहां की प्राकृतिक और ऐतिहासिक बातों ने उनके जीवन पर गहरा प्रभाव डाला | डनफरलिन में ही उन्होंने पहली बार अपनी कर्मभूमि अमेरिका का मानचित्र देखा | वह लोग उसमें पिट्सवर्ग ढूंढ रहे थे | उनके पिता ने “कॉर्न लॉ” के आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था |
उनके मामा “वैली मॉरिसन” को कैद कर लिया गया था | बाद में वह छूट भी गए | “वाष्प शक्ति” का आविष्कार होने के कारण उनके पिता का काम छूट गया | बचपन में कारनेगी ने वाद – विवाद करना , संगठन की शक्ति का इस्तेमाल करना सीख लिया था |
मनुष्यचरित्र को समझने का गुण –
वह कम पढ़े – लिखे थे | किसी वैज्ञानिक की तरह नही सोचते थे परंतु वह मनुष्यचरित्र को बखूबी समझते थे | इसी गुणों के कारण वह एक गरीब से धनकुबेर बने | पिता का काम छूटने के बाद वह लोग अमेरिका के पिट्सवर्ग में चले गए |
तब वह 13 साल के थे | उन्होंने “विसकासेट” नाम के जहाज में सफर किया | सबसे पहले वह न्यूयॉर्क पहुंचे | वहां से पिट्सवर्ग |
पहली नौकरी –
13 साल की उम्र मे उन्होंने पहली नौकरी की | वह थी कारखाने में नली भरने की | दूसरी नौकरी मे स्टीम इंजन चलाने के उन्हें $2 मिले | सन 1850 में वह टेलीग्राफ ऑफिस में लगे और यही से उनकी उन्नति शुरू हुई |
अमेरिका में उन्नति के द्वार उस हर एक व्यक्ति के लिए खुले हैं जो इमानदारी और परिश्रम से अपना काम करता है | इस बीच पीट्सवर्ग के ही कर्नल जेम्स एंडरसन नामक व्यक्ति ने गरीब बच्चों के लिए अपनी 400 किताबों के संग्रह को पुस्तकालय के रूप में अध्ययन के लिए खोल दिया |
किताबों का महत्व –
इससे कारनेगी को ज्ञान प्राप्त करने में बड़ी आसानी हुई | किताबों की संगति ने उन्हें बुरी संगति से बचाए रखा | श्रीमान कारनेगी की तार घर में काम करते हुए “मिस्टर ग्लास” से मुलाकात हुई | श्रीमान कारनेगी अपनी हमउम्र बच्चों के जैसे मौज -मस्ती में पैसे खर्च नहीं करते थे क्योंकि उनके घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी | इसलिए वह एक-एक पाई जोड़ा करते | ऐसे करते-करते आखिर उनके पास $100 जमा हुए |
“श्रीमान ग्लास” का अतिरिक्त काम संभालने के लिए श्रीमान कारनेगी को महीने में सव्वा दो डॉलर ज्यादा मिलने लगे थे | यह डॉलर मिलने से , उन्हें जो खुशी मिली | वह शायद उनको बाद में करोड़ों रुपए कमाने पर भी नहीं मिली | इन ज्यादा के पैसे को जोड़कर दोनों भाइयों ने “कारनेगी ब्रदर्स” नाम की फर्म खोलने की सोची |
वह बड़े व्यापारी बनना चाहते थे ताकि वह अपने माता-पिता को घोड़ागाड़ी पर बिठाकर उनको सवारी करा सके | वह अपने माता – पिता को भगवान की तरह मानते थे और उन्हे जीवन की हर एक खुशी देना चाहते थे |
श्रीमान कारनेगी तारघर में काम करते हुए ही , वहां के अलग-अलग काम सीखकर अपनी तरक्की करते रहे | पिट्सवर्ग में रहते हुए उनकी मुलाकात टॉम्स ए.स्कॉट से हुई | यह पेंसिलवेनिया रेलवे कंपनी में काम करते थे | जब इन्होंने श्रीमान कारनेगी को रेलवे में नौकरी करने की ऑफर दी तो उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर ली |
अब उनका पाला अलग-अलग लोगों से पडने लगा | वह लोग अपने बोलने में अपशब्दों का प्रयोग भी करते थे , जबकि श्रीमान कारनेगी ने अपने जीवन में ऐसे शब्द कभी नहीं सुने थे | उनके घर का वातावरण सुसंस्कृत था | इसी वजह से उन पर इस तरह की भाषा और लोगों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा | प्रायः यह सब लोग सामान्य श्रेणी के हुआ करते थे |
श्रीमान कारनेगी का सामाजिक योगदान –
श्रीमान कारनेगी “गुलामीप्रथा” के भी कडे विरोधी थे | 22 फरवरी 1856 को पिट्सवर्ग में गुलामीप्रथा विरोध में जो सभा हुई थी | उसमें उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था | उन्होंने रेल – सड़क में काम करनेवाले मजदूरों की भी एक समिति बनाई थी | न्यूयॉर्क स्थित “ट्रिब्यून” नामक साप्ताहिक पत्र में वह अपने लेख भेजा करते | इस पत्र ने लोगों को गुलामगिरी के विरोध में खूब जागृत किया था |
पेंसिलवेनिया रेलवे कंपनी ने अपनी खुद की तार कंपनी डाली | इसमें स्त्रियों को पहली बार शामिल करने का क्रेडिट भी श्रीमान कारनेगी को ही जाता है | एक बार मिस्टर स्कॉट की अनुपस्थिति में उनका चुनौतीपूर्ण काम करने के कारण श्रीमान कारनेगी के तरक्की के रास्ते खुल गए क्योंकि मिस्टर स्कॉट उनके उच्च अधिकारी थे और जब उच्च अधिकारियों की दृष्टि परिश्रमी और होनहार नवयुवकों पर पड़ती है तो उनके तरक्की के रास्ते खुल जाते हैं | इसलिए उन्हें चाहिए कि अच्छे और ईमानदारी से काम करें ताकि उच्च अधिकारियों के दृष्टि विशेष कर उन्ही पर पड़े |
श्रीमान कारनेगी के परिचितों की संख्या अब दिन-ब-दिन बढ़ने लगी थी जिसमें शामिल थे , मालगाड़ी के प्रबंधकर्ता मिस्टर फ्रांसिसकी , मिस्टर लंबर्ट , रॉबर्ट रीडल , मिस्टर स्ट्रोक्स | इन में से मिस्टर स्ट्रोक्स उनके गहरे मित्र बन गए थे | इनके घर की सजावट का कारनेगी पर बहुत प्रभाव पड़ा और पुस्तकालय के एक पत्र पर जो वाक्य लिखा हुआ था उससे तो वह काफी प्रभावित हुए |
अपने अमीरी के दिनों में कारनेगी जो पुस्तकालय बनवाए | उन पर वही वाक्य अंकित था | मिस्टर स्कॉट को श्रीमान कारनेगी गुरुवत मानते थे | जब उनकी अचानक तरक्की से हड़ताल हुई तो श्रीमान कारनेगी ने उनका पूरा-पूरा साथ दिया |
एक बार रेलवे कंपनी में ही घटित एक घटना का इल्जाम श्रीमान कारनेगी पर डाला गया | यह केस मिस्टर स्ट्रोक्स के पास गया | वह कारनेगी के परिचितों में से ही एक थे | उन्होंने कारनेगी को कुछ दिनों के लिए “ओहियो” भेज दिया |
भावी व्यवसाय की नींव –
“ओहियो” जाते समय जब वह गाड़ी में बैठे थे | तो एक किसान व्यक्ति ने उन्हें रात के समय सोने की सुविधावाली गाड़ी के नमूने बताएं | यह नया अविष्कार था |
यह प्रसिद्ध व्यक्ति टी. टी. उडरफ़ था | उडरफ़ को जब इस गाड़ी के लिए आर्डर मिला तो उसने इसमें कारनेगी को भी पार्टनर बनाया | मिस्टर स्कॉट की बदली होने के बाद सन 1859 में 1 दिसंबर को कारनेगी को पीट्सवर्ग का सुपरीटेंडेंट बनाया गया | अब वह एक विभाग के स्वतंत्र कर्ता – धर्ता थे |
अब उनका संबंध अच्छे विद्वान और उच्च शिक्षित लोगों के साथ आने लगा | इनमें डॉक्टर थॉमस एडिसन की बेटी का भी समावेश था | वह उच्च शिक्षित थी | इन्हीं लोगों के कारण उन्होंने खुद को उच्च शिक्षित किया और उनके जैसे ही अच्छे कपड़े पहनने में माहिर हो गए क्योंकि वह रेलवे में जिन लोगों के साथ काम करते थे | उनके विचार बिल्कुल इसके उलट थे |
अमेरिका में चल रहे गृह – युद्ध की बात हम राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन इनकी बायोग्राफी में करेंगे | युद्ध के दौरान तार और रेल विभाग का प्रबंध श्रीमान कारनेगी के हाथ में था | इसलिए उनका प्रेसिडेंट लिंकन और अन्य उच्च अधिकारियों से बार-बार मिलना होता था | प्रेसिडेंट लिंकन का व्यवहार सबके साथ एक समान था | वह मधुर वाणी से सबके साथ बात किया करते | वह एक महात्मा थे | उनके मन , वचन और कर्म में उनका आचरण एक जैसा था |
व्यवसाय की रणनीति –
अमेरिका में गृह – युद्ध के समय लोहे का भाव आसमान छू रहा था | रेलवे के लोग रेलवे लाइन के लिए समान नहीं जुटा पा रहे थे | इस स्थिति से उबरने के लिए श्रीमान कारनेगी ने सन 1864 में पीट्सवर्ग में रेल बनाने का कारखाना खोला | इसके पहले वह “सन सिटी फ़ोर्ज” कंपनी में मिस्टर मिलर के साथ लोहे का व्यापार करते थे |
रेलवे पुल निर्माण –
इन दोनों का ही और एक कारखाना पीट्सवर्ग में था जिसमें रेलवे की गाड़ियां बनाई जाती थी | इस कंपनी के 100 डॉलर के शेयरो का दाम सन 1909 में 3000 डॉलर था | रेलवे पुल की भी दुर्दशा देखकर उनके मन में इसके निर्माण की बात आई | रेलवे पुल निर्माण की इस कंपनी में , पुल के पहले निर्माता मिस्टर लिनविल , पुलों के प्रबंधकर्ता मिस्टर पाइपर , मिस्टर स्कॉट और खुद श्रीमान कारनेगी थे | यह कंपनी लोहे के पुल बनाने के लिए प्रसिद्ध थी | इसका नाम मिस्टर पाईपर के नाम पर रखा गया था | सन 1863 में इसका विलय “क्रिस्टोन ब्रिज” कंपनी में हुआ | तब से ही रेलवे में लोहे के पुल तैयार कर के उपयोग किए जाने लगे |
ओहियो नदी पर बने ब्रिज के संदर्भ में मिस्टर टॉमसन ने कारनेगी को खूब मदद की | “क्रिस्टोन ब्रिज” कंपनी अपना गुणवत्तापूर्ण सामग्री के कारण मार्केट में बनी रही | बाकी सब इसी क्षेत्र की कंपनियां असफल हुई | किसी भी महत्वपूर्ण कॉन्ट्रैक्ट के वक्त श्रीमान कारनेगी वहाँ उपस्थित रहते थे |
लोहे का कारोबार –
श्रीमान कारनेगी ने , उनके भाई टॉम , टॉमस मिलर , हेनरी फिप्स और एंड्रयू क्लोमन के साथ मिलकर लोहे का कारोबार शुरू किया | इन्होंने एक मिल स्थापित की | इसमें से “एंड्रयू क्लोमन” एक आविष्कारक था | वह बहुत मेहनती भी था |
इसी ने एक लोहे का बीम बना डाला जो कोई कंपनी नहीं कर सकी थी | श्रीमान कारनेगी ने अपने कारोबार में भारी सुधार किया | वह रोज के नफा – नुकसान का हिसाब – किताब रखने लगे | सन 1868 में उन्होंने तेलों की खानों को खरीद लिया |
दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की –
इससे उन्हें एक वर्ष में 10 लाख की कमाई हुई | इसी के साथ खानों का दाम 50 लाख हो गया | ओहियो में भी उन्होंने तेल की खान खरीदी | उनका कारोबार अब बहुत बढ़ चुका था | उन्हें अपने व्यवसाय को देने के लिए अब वक्त नहीं मिलता था | इसलिए उन्होंने अपने रेलवे की नौकरी छोड़ दी | अमेरिकन गृह – युद्ध खत्म होने के बाद , वहां की सरकार ने बाहर से आनेवाले सामानों पर अधिक कर लगा दिया | इससे देश के व्यापार को बड़ी बढ़त मिली |
श्रीमान कारनेगी ने अब न्यूयॉर्क को अपना व्यवसाय केंद्र बनाया | वहां के “19वें शताब्दी क्लब” के वह सदस्य बने | इससे उनके परिचितों की संख्या बढ़ गई | इन परिचितों में से बहुत से लोग वॉलस्ट्रीट से जुड़े थे | जो शेयरों के लिए प्रसिद्ध है | सब ने श्रीमान कारनेगी का ध्यान शेयरों की तरफ आकर्षित करना चाहा पर इन्होंने साफ मना कर दिया |
अपने उसूलों पर कायम रहना –
इसी तरह वह अपने उसूलों पर कायम रहते थे | एक बार एक व्यक्ति मिस्टर गोल्ड ने पेंसिलवेनिया कंपनी खरीद कर उसका काम श्रीमान कारनेगी को सौंपना चाहा | साथ में 50% की पार्टनरशिप भी ऑफर की | यहाँ भी उन्होंने साफ मना कर दिया क्योंकि मिस्टर स्कॉट पेंसिलवेनिया कंपनी मे प्रबंधकर्ता थे और कारनेगी के गहरे मित्र व गुरु थे | मिस्टर गोल्ड का ऑफर लेते ही मिस्टर स्कॉट की नौकरी छूट जाती | कारनेगी यह नहीं करना चाहते थे |
इस सन 1901 में उन्होंने अपनी कंपनी मिस्टर मोरगन को बेच दी | इसी के साथ इनका रेलवे का व्यवसाय खत्म हुआ | कंपनी बेचने के बाद वह अपनी मातृभूमि डनफरलिन गए | यहाँ उन्होंने सर्वसाधारण लोगों के लिए स्नानागार बनावाये | उन्होंने बहुत जगह दान दिए |
सही बिजनेस स्ट्रेटजी …
सोने की गाड़ियों के व्यापार में उनका एक प्रतिद्वंद्वी आ गया था | वह बहुत अच्छा बढ़ई था | अतः वह कस्टमाइज गाड़ियों के डिब्बे बना कर देता था | इसलिए सारे कॉन्ट्रैक्ट उसे ही मिलने लगे थे | इस पर कारनेगी ने उसाकी कंपनी का विलय अपनी कंपनी मे किया |
नई कंपनी का नाम उन्होंने उस नए बढ़ई पुलमैन के नाम पर रखा | इससे आपको क्या पता चला ? की इससे पुलमैन भी खुश हुआ और उनकी कंपनी घाटे में जाने से बची | सबसे बड़ी बात कारनेगी इस कंपनी के सबसे बड़े हिस्सेदार थे | यही है सही बिजनेस स्ट्रेटजी …
“लौह – सम्राट” बन गए –
उन्होंने बड़े-बड़े व्यापारियों के लिए ऋण की व्यवस्था कर के उसमें भारी लाभ कमाया | धनकुबेर कारनेगी शेयर मार्केट को सट्टे की तरह देखते थे | उनके इन्हीं विचारों का समर्थन लेखक ने भी किया है पर अब परिस्थितियां बदल गई है और इसी के साथ लोगों के विचार भी | अब शेयर मार्केट आय बढ़ाने का एक जरिया बन गया है |
श्रीमान कारनेगी दूसरों के ऋण के लिए खुद की जमानत कभी नहीं देते थे | उससे अच्छा वह पैसों से उनकी मदद कर दिया करते | उन्होंने अपने एक ही बिजनेस में फोकस किया और उसमें तरक्की की और वह था “लोहे का व्यापार” | इसलिए लोग उन्हें अब “लौह – सम्राट” कहा करते थे | इसी कारण वह इंग्लैंड के आयरन और स्टील इंस्टिट्यूट के सभापति बनाए गए |
उन्होंने इंग्लैंड के प्रसिद्ध लोह व्यवसायी मिस्टर व्हाइटहॉल के साथ सन 1870 में इस्पात बनाने का बड़ा कारखाना खोला | श्रीमान कारनेगी को उनके जैसा ही परिश्रमी और ईमानदार व्यक्ति “विलियम” के रूप में मिला | वह मूलतः जर्मनी से था |
मरने के बाद गरीब विलियम 50 हजार डॉलर वार्षिक वेतन की आय छोड़कर गया | श्रीमान कारनेगी ने उसे अपना पार्टनर बनाया था |
“दुनिया की सैर” –
श्रीमान कारनेगी की इस्पात मिल अच्छी चल निकली | तब उन्होंने संसार भ्रमण किया | अपनी इन यात्राओं का वर्णन उन्होंने “दुनिया की सैर” इस किताब में किया|
इस यात्रा के दौरान उन्होंने प्रसिद्ध तत्ववेत्ता स्पेंसर , विकासवाद के आविष्कारक डार्विन के ग्रंथ पढ़े | चीन जाने पर कन्फ्यूशियस और भारत आने पर बौद्ध ग्रंथ , हिंदू ग्रंथ पढ़े | इस यात्रा के दौरान उन्होंने यह भी जाना कि सब लोग अपने घर को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं |
सन 1881 में वह संसार भ्रमण कर वापस आए | इसके कुछ ही वर्ष बाद उनके माता का देहांत हो गया | अब वह नितांत अकेले हो गए थे | उनको इस अवस्था से उबारने में मिस व्हीटफील्ड ने बहुत मदद की | यही फिर उनकी पत्नी बनी |
गोस्पेल ऑफ़ वेल्थ’ –
अलग-अलग मासिक पत्रिकाओं में , सन 1886 से लेकर तो सन 1900 तक उन्होंने धनी लोगों के क्या-क्या कर्तव्य होते हैं ? इस पर अपने विचार प्रकट किए | इन्हीं को “गोस्पेल आफ वेल्थ” इस ग्रंथ में संकलित किया गया है |
धन कमाना बंद करना –
अब उन्होंने अपना धन कोष संसार के लिए खोल दिया था | उन्होंने धन कमाना बंद कर दिया था ताकि नए लोगों को भी पैसे कमाने का मौका मिल सके |
मजदूरों के लिए –
उन्होंने मजदूरों की आकस्मिक विपत्ति के समय सहायता के लिए 40 लाख डॉलर दिए | उनके लिए ही पुस्तकालय के लिए 10 लाख डॉलर दान दिए |
कारनेगी इंस्टीट्यूशन –
2 करोड़ 50 लाख डॉलर दान के साथ 28 जनवरी 1902 को वाशिंग्टन में कारनेगी इंस्टीट्यूशन स्थापित किया गया | सबसे पहले राष्ट्रपति रुजवेल्ट प्रधान सलाहकार और राष्ट्र सचिव “जॉन हे” इसके सभापति थे | इसके अध्यक्ष अमेरिका के प्रसिद्ध विद्वान होते आए हैं | साहित्य , विज्ञान , कला -कौशल और दूसरे विभागों में शोध और आविष्कार के गति को बढ़ाने के साथ-साथ यह संस्था बाकी रूप में भी संसार की सेवा कर रही है |
इसी कंपनी ने कैलिफोर्निया के विल्सन पर्वत पर विशालकाय लैब स्थापित की है |
“वीर सहायक कोष” –
“वीर सहायक कोष” में 50 लाख डॉलर दिए | यह राशि उन लोगों को पुरस्कार देती है जो अपनी जान जोखिम में डालकर विपत्ति में पड़े लोगों की मदद करते हैं | इस सहायता की मदद से किसी भी पत्नी या माता को अन्न के लिए तरसना नहीं पड़ता जिनके घर के कमानेवाले पुरुष ऐसी स्थिति में मारे जाते हैं |
शिक्षक और विद्यार्थी सहायता –
शिक्षकों के लिए भी उन्होंने सहायता शुरू की | इसके लिए उन्होंने एक करोड़ 50 लाख डॉलर दिए | शिक्षकों के साथ-साथ उन्होंने विद्यार्थियों के लिए भी सहायता राशि दी | बूकर टी. वाशिंग्टन के टस्कगी विद्यालय को 60 लाख डॉलर दान दिए |
सन 1902 में वह “सेंट एंड्रयूज विश्वविद्यालय” के लॉर्ड रेक्टर निर्वाचित किए गए जबकि उन्होंने कभी किसी हाईस्कूल में शिक्षा प्राप्त नहीं की थी पर अपनी प्रतिभा के बल पर उन्होंने यह पद प्राप्त किया था | गिरजाघर में बजनेवाले संगीत के वाद्य यंत्रों के लिए दान दिया | वह जिस रेलवे कंपनी में काम करते थे | वहां के कर्मचारियों के लिए “रेल रोड पेंशन फंड “ स्थापित किया |
“शांति मंदिर” की स्थापना –
वह शांति प्रेमी थे | वह विश्व शांति के लिए “ब्रिटिश अमेरिकन यूनियन” स्थापित करना चाहते थे | इसी विषय के तहत उन्होंने “शांति मंदिर” की स्थापना के लिए 15 लाख डॉलर दान दिए | उनके इन कार्यों के कारण बहुत से प्रसिद्ध राष्ट्रों ने उनको सम्मानित किया | सन 1919 में उनका निधन हो गया |
उनके चरित्र की यह विशेषता है कि वह दरिद्र पर धार्मिक माता-पिता के घर में उत्पन्न हुए | एक दरिद्र जुलाहे के पुत्र होकर भी , स्कूली शिक्षा न मिलने पर भी केवल अपने दृढ़ व्यवसाय ज्ञान और चरित्र बल पर उन्होंने सफलता प्राप्त की |
हाँ , यह एक बात उनके फेवर में है कि उनका देश स्वतंत्र था तो उन्हें अनुकूल परिस्थितियां और लोग मिले |
भारत देश की स्थिति –
इसके उलट भारत देश की परिस्थितियां थी क्योंकि तब भारत देश पर अंग्रेजों का राज था पर सारा दोष परिस्थितियों को भी देना उचित नहीं क्योंकि भारत के बहुत से नवयुवक उनके जैसे परिश्रमी नहीं थे |
वह तो अंग्रेजी शिक्षा पाकर सिर्फ टेबल कुर्सीवाली जॉब करना चाहते थे | मेहनत का काम करने में उन्हें शर्म महसूस होती थी | वह व्यवसाय करने से डरते थे या फिर जिनके पास पैसा है | वह अपना पैसा शेयर मार्केट में बर्बाद करते थे |
वह अपना पैसा अपने देशवासियों के लिए उपयोग में न लाकर गोरों से अपने लिए “रायबहादुर” या “सर” का खिताब पाने के लिए खर्च करने में शान समझते थे | वह लोग अगर अपना पैसा अपने देश और लोगों के लिए खर्च करते तो देश की स्थिति कुछ और होती |
मनुष्य जीवन का लक्ष्य –
केवल धन कमाना ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य नहीं होना चाहिए | वह तो जीवन यात्रा सुखमय बनाने का एक साधन मात्र है | श्रीमान कारनेगी ने इस बात को हमेशा ध्यान में रखा | लेखक ने यह किताब तो तब के नवयुवकों को जागृत करने के लिए लिखी थी | पर हमे लगता है की इसकी जरूरत आज भी है | पैसों के मामले मे नहीं बल्कि चरित्र मे ऊनके जैसा बनने के लिए | तभी तो हमारा देश भी तेजि से तरक्की करेगा | अगर आप व्यवसायी है तो आप के व्यवसाय के लिए हमारी तरफ से बहुत – बहुत शुभकामनाए | उदार , दानवीर और सफल व्यक्तियों के जीवनचरित्र को जरूर पढिए ताकि हमारे जीवन मे सकारात्मक चेंजेस आ सके |
तब तक पढ़ते रहिए | खुशहाल रहिए | मिलते हैं और एक नई किताब के साथ | तब तक के लिए …. धन्यवाद !!
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सवाल है ? जवाब यहाँ है | (FAQs SECTION)
1. धनकुबेर कारनेगी पुस्तक के लेखक और प्रकाशन का वर्ष क्या है ?
उत्तर: इस किताब के लेखक श्री अशर्फी मिश्र हैं और यह पहली बार सन् 1924 में ब्रिटिश भारत में प्रकाशित हुई थी |
2. लेखक को ब्रिटिश भारत के नवयुवकों से किस बात का खेद था ?
उत्तर: लेखक को खेद था कि भारत के नवयुवक पढ़-लिखकर केवल तैयार नौकरी करना चाहते थे, वे व्यवसाय करके नई नौकरियों का निर्माण नहीं करना चाहते थे |
3. एंड्रयू कारनेगी के माता-पिता कौन थे और वे किस काम से जुड़े थे ?
उत्तर: उनके पिता का नाम विलियम कारनेगी था और वे एक जुलाहे (कपड़ा बुनकर) थे। उनकी माता एक अत्यंत सभ्य और भद्र महिला थीं |
4. कारनेगी को सफलता के लिए सबसे महत्वपूर्ण गुण क्या लगता था ?
उत्तर: कारनेगी को सफलता के लिए सबसे महत्वपूर्ण गुण महत्वाकांक्षा लगता था, जिसे वह सफलता की सीढ़ी मानते थे |
5. कारनेगी ने अपने जीवन में कौन सा महत्वपूर्ण व्यापार किया और उन्हें किस नाम से जाना जाता था ?
उत्तर: उन्होंने मुख्य रूप से लोहे का व्यापार किया और अपनी सफलता के कारण उन्हें “लौह-सम्राट” कहा जाता था |
6. कारनेगी ने धन कमाना बंद क्यों कर दिया था ?
उत्तर: जब उन्हें लगा कि उनका कमाया धन उनके लिए और उनके समाजकार्य के लिए पर्याप्त है, तो उन्होंने पैसा कमाना बंद कर दिया ताकि नई पीढ़ियों और नए लोगों को भी धन कमाने का मौका मिल सके |