ABHYUDAY1 BOOK REVIEW SUMMARY IN HINDI

ramkatha ramayana abhyudayhindi

              अभ्युदय – रामकथा 1 

                 नरेंद्र कोहली द्वारा लिखित 

रिव्यू –

आज जहां संपूर्ण देश राममय हो गया है तो हमने सोचा रामायण से इंस्पायर्ड श्री राम जी के जीवन पर आधारित अभ्युदय वॉल्यूम 1 इस किताब का रिव्यू आपको बताया जाए |

अभ्युदय राम कथा पर आधारित हिंदी का पहला और महत्वपूर्ण उपन्यास है | यह चार भागों में प्रकाशित हुआ था जिनके नाम क्रमशः दीक्षा , अवसर , संघर्ष की ओर तथा युद्ध है | यह चारों उपन्यास लोकप्रियता के शिखर तक पहुंच चुके हैं | इनका अनुवाद मराठी , उड़िया, कन्नड़ , नेपाली इन भाषाओं में हो चुका है |

उपन्यास इतना प्रसिद्ध हुआ है कि अनेक नाटक मंडलियों ने इनमें वर्णित बहुत से प्रसंगो का नाट्य रूपांतरण कर प्रस्तुति दी है | अभ्युदय की कथा को पढ़कर आपको ऐसे लगेगा कि आप पहली बार ऐसी राम कथा पढ़ रहे हैं जो तर्क – संगत है |

अभ्युदय का विषय पौराणिक कथाओ से इंस्पायर्ड जरूर है लेकिन यह पूरी तरह से मौलिक उपन्यास है | इसमें घटने वाली घटनाओं में कुछ भी अलौकिक नहीं है या फिर अती प्राकृतिक नहीं है | लगता है जैसे यह कलयुग में घटित घटनाएं हो जिसके साथ आप सहजता से जुड़ जाते हैं | प्रस्तुत किताब मनुष्य जीवन और समाज का आईना है |

लेखक नरेंद्र कोहली इन्होंने इन चारों उपन्यासों को अलग-अलग लिखा है | पहले वह संपूर्ण राम कथा एक ही उपन्यास में लिखना चाहते थे | लेकिन उन्हें लगा कि इतनी बड़ी रचना करते समय वह अपने मन को एक ही जगह स्थिर नहीं रख पाएंगे और क्या उनको इतना लंबा जीवन मिलेगा कि वह अपनी यह रचना पूरी कर पाए |

इसीलिए फिर उन्होंने इसे खंडों मे लिखना शुरू किया ताकि वह पूर्ण उपन्यास नहीं भी लिख पाए तो कम से कम एक या दो खंड पूरे तो कर पाएंगे | इस तरह उनकी वह रचना अपने आप में पूर्ण मानी जाएगी | उस रचना को कोई अधूरा नहीं कहेगा |

लेखक नरेंद्र कोहली इन्होंने रामायण की कहानी को बहुत ही तार्किक और इंटरेस्टिंग तरीके से बताया है | यह मस्ट रीडेबल बुक है | उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति के मानवीय व्यवहार को सखोलता से समझा है | उन्होंने कहानी पर अपनी अच्छी पकड़ बनाए रखी है | स्पेशली जब कहानी का नायक पूजनीय हो !

इस बेहतरीन उपन्यास के लेखक है – नरेंद्र कोहली

प्रकाशक है – डायमंड पॉकेट बुक्स

पृष्ठ संख्या – 702

उपलब्ध है – अमेजन पर

अभ्युदय 1975 में लिखी गई है और हिंदी के क्लासिक उपन्यासों में शामिल है | यह अपनी तरह की एक अलग ही राम कथा है जिसमें राम अपनी पूरी शक्ति और क्षमताओं के साथ अन्याय का सामना करते हैं और शोषित और पीड़ित व्यक्तियों की मदद करते हैं | वह मानव के रूप में सामने आते हैं | रामायण की कहानी और इसमें बहुत ज्यादा फर्क नहीं है लेकिन यह अलग तरह से प्रस्तुत किया गया है |

इसका प्रस्तुतीकरण इसे एक विशेष उपन्यास की श्रेणी में रखता है | इसमे चमत्कार नहीं होते | दिव्य शक्तियां नहीं होती | इसमें श्री राम को मिलने वाली अहिल्या पत्थर की नहीं बनी होती परंतु वह समाज द्वारा बहिष्कृत एक नारी है जो अकेली अपने आश्रम में पत्थर जैसे जीवन जीती है |

श्री राम सत्य का दर्पण सबको दिखाकर अहिल्या का सम्मान उसे वापस दिलाते हैं | जहां पीड़ित अहिल्या को न्याय दिलाने की जगह समाज उसी का बहिष्कार करता हैं और उनपर अत्याचार करनेवाले इंद्र को ऐसे ही छोड़ दिया जाता है क्योंकि वह धनी और ताकतवर है |

श्री राम हमेशा न्याय के पक्ष में खड़े नजर आते हैं | यहाँ रावण के पास उड़ने वाला पुष्पक विमान नहीं है बल्कि उसके पास तीव्र गति से दौड़नेवाले घोड़े और कवचधारी रथ है | तेज गति से चलने वाले और उन्नत विज्ञान से बने जलपोत है |

शुर्पनखा जादू से अपना रूप पलट कर युवती नहीं बनती बल्कि वह ब्यूटी स्पेशलिस्ट डॉक्टर , मेकअप मैन और ड्रेस डिजाइनर का सहारा लेकर अपनी उम्र से कम दिखने मे कामयाब होती है |

मन में यह ख्याल आता है कि वनवास के दौरान श्री राम जी एक ही जगह कुटिया बनाकर क्यों नहीं रहे ? क्यों वह संपूर्ण जंबुद्वीप पर यात्रा करते रहे | क्योंकि महर्षि विश्वामित्र चाहते थे कि श्रीराम राजा बनकर सुख संपन्नता के साथ अपना जीवन यापन ही ना करते रहे | वह सिर्फ अयोध्या की प्रजा के पालक ही ना बन कर रहे बल्कि वह संपूर्ण जंबू द्वीप भर यात्रा करते रहे ताकि दमित ,शोषित और पीड़ित लोगों को न्याय दिला सके|

वन में रहने वाले यह लोग श्रीराम के पास या अन्य शासक के पास न्याय मांगने नहीं आएंगे | श्रीराम जी को ही उनके पास जाना होगा | वह भी उन्हीं के जैसे ही एक साधारण व्यक्ति बनकर |

तभी वह उन्हें अपना समझकर अपनी पीड़ा उनके साथ बाटेंगे | अगर श्रीराम एक राजा बनकर सैन्य दल के साथ उनके समक्ष जाकर उनके दुखों का कारण पूछेंगे , तो वे दूर से ही उन्हें प्रणाम कर निकल जाएंगे | विश्वामित्र चाहते थे कि श्रीराम सिर्फ अयोध्या के लोगों का दुख दूर कर उनका जीवन स्तर ऊंचा उठाने में ही मदद ना करें बल्कि अयोध्या के बाहर जंगलों और वनों में बसे पीड़ित और शोषित लोगों को संगठित करें |

उनमें अन्याय के खिलाफ जागरूकता लाए | उनको खुद के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा दे | यह तभी हो सकेगा जब श्रीराम एक वनवासी बनकर , पैदल चलकर उनके पास जाए | यह लोग जहां रहते हैं वहां सिर्फ पैदल ही जाया जा सकता है | अगर इन जगहों पर सैनिक अभियान चलाया जाए तो जंगल के जंगल नष्ट हो जाएंगे और जंगल पर निर्भर यह लोग और परेशान हो जाएंगे |

वनवास के दौरान श्रीराम जी अपने साथ शस्त्रागार लेकर चलते हैं ताकि वह वनवासी लोगों की अन्याय के खिलाफ मदद कर सके | जैसा की महर्षि विश्वामित्र ने उनसे वचन लिया था | उनके वचन की पूर्णता चित्रकूट पर्वत पर निवास के दौरान होती है जहां उद्घोष , मुखर , सुमेधा , उसका पिता झींगुर इनको संगठित कर तुंबरण रूपी दास प्रथा के खिलाफ संघर्ष किया जाता है और विजय पाई जाती है |

श्री राम जी को जब उनकी माता कैकेयी वनवास जाने का आदेश देती है तो ऐसा नहीं की बस वे आदेश पाते ही वल्कल धारण कर वनवास चल दिए | बल्कि उसके पहले वह अयोध्या के लोगों की और अपने माता कौशल्या और सुमित्रा के सुरक्षा का भी पुख्ता इंतजाम कर जाते हैं |

जब वह सीता माता से विवाह कर अयोध्या वापस आते हैं तो अयोध्या में बिगड़ी हुई परिस्थितियों को ठीक करने के लिए बहुत सारा काम करते हैं क्योंकि उन्हे अयोध्या के राजतंत्र में अनेक खामियां दिखाई देने लगी थी जैसे अव्यवस्था , अज्ञान और असावधानी , स्वार्थ और कहीं-कहीं अत्याचार भी | वेमानते थे की सब मनुष्य समान है जो इसका स्वीकार नहीं करता वह प्रकृति के सत्य का विरोध करता है |

इन सारी परिस्थितियों को सुधारने के लिए वह अयोध्या के नवयुवकों के ग्रुप बनाते हैं | उनको अलग-अलग काम सौपते है | वह एनजीओ चलाते हैं | वन जाने के पहले वह सुयोग्य को कुछ धन देकर जाते हैं ताकि उनके अधीन कर्मचारियों का और इन सामाजिक संस्थाओं का खर्च चल सके |

वह वन तो जा रहे हैं लेकिन अयोध्या की हर खबर वक्त पर उन तक पहुँच जाए इसका इंतजाम करके जाते हैं ताकि वक्त रहते लक्ष्मण जी को अयोध्या वापस भेजा जा सके | अब श्रीराम जी को अयोध्या और उसमें बसे लोगों के सुरक्षा की इतनी चिंता क्यों ? जबकि महाराज दशरथ अभी भी राजा के पद पर आसीन हैं लेकिन यह सच्चाई नहीं क्योंकि श्री राम जी के वनवास जाते ही भरत अयोध्या के नए राजा होंगे |

श्री राम भरत को तो जानते हैं लेकिन राजा बने भरत को नहीं | अगर उन्होंने भी राजा बनने के बाद अपना पहला स्वभाव छोड़ दिया तो जैसा कैकेयी ने छोड़ा है | राजा बनने के बाद उन्होंने अयोध्या के प्रजा को प्रताड़ित किया तो ..

भरत का शासन उलटने में यही इंतजाम काम आएंगे | इसीलिए श्री राम कुछ महीनो के लिए चित्रकूट पर्वत पर रहते हैं ताकि अयोध्या से रिलेटेड कोई भी खबर उन तक जल्द से जल्द पहुंच सके | इसके लिए वह अयोध्या से चित्रकूट पर्वत तक एक पड़ाव चुनते हैं जैसे सरयू पार करते ही त्रिजट का आश्रम , त्रिजट के आश्रम से शृंगवेरपुर में निषादराज गुह का राज्य , उसके बाद भरद्वाज का आश्रम और भरद्वाज आश्रम के बाद चित्रकूट पर्वत स्थित महर्षि वाल्मीकि का आश्रम और आखरी पड़ाव दंडकारण्य .. |

विश्वामित्र के सिद्धाश्रम में राक्षस आए दिन हमला करते रहते हैं | आश्रम के लोगों पर अत्याचार करते हैं | आश्रम के लोग विश्वामित्र की ओर एक आशा की दृष्टि से देखते हैं कि वह इन राक्षसों के उत्पात से उनको छुटकारा दिलाएंगे क्योंकि वह ब्रह्म ऋषि बनने के पहले एक योद्धा थे | एक राजा थे |

वे शस्त्र उठाकर उनका निः पात करेंगे और अभी तो उनके पास अनेक दिव्यास्त्र भी है | तो क्यों नहीं वे इन राक्षसों को सबक सिखाते हैं | पर वे लोग यह नहीं जानते कि वे मन की शक्ति से दिव्यास्त्र तो प्राप्त कर सकते हैं लेकिन दिव्यास्त्र चलाने के लिए उनके पास शारीरिक बल नहीं है | ब्रह्म ऋषि बनने के बाद उनका शारीरिक बल कम हो गया है |

आश्रम में हुए अत्याचार को रोकने के लिए , इस अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए महर्षि विश्वामित्र अपने आश्रम के लोगों को आसपास के गांव में भेजते हैं ताकि उन लोगों को संगठित कर राक्षसों के खिलाफ लडा जा सके | लेकिन लोग राक्षसों का नाम सुनते ही डर से कांपने लगते हैं |

ऐसे में उन्हें गांव के गरीब लोगों पर अमीर आर्यों ने किए अत्याचार का पता लगता है | इन आर्यों ने गरीब स्त्रियों पर जो अत्याचार किया होता है उसकी बर्बरता सुन ऋषि विश्वामित्र अपने कानों पर हाथ रख लेते हैं | अत्याचार करने वाले लोग राक्षसों से मिले हुए है |

ऐसे में विश्वामित्र क्या करें ? कैसे इन अत्याचार को रोके ? क्योंकि ब्रह्महर्षी बनने के बाद उन्हें ऐसा व्यक्ति चाहिए जो शारीरिक बल में सक्षम हो | जिसे वे दिशा निर्देश देकर अपना लक्ष्य हासिल कर सके | ऐसे व्यक्ति की तलाश उन्हें श्रीराम तक लेकर जाती है |

वह पाते हैं कि श्री राम शारीरिक बल में ही नहीं परंतु मानसिक शक्ति में भी सबल है | वह हर परिस्थितियों में सोच विचार कर निर्णय लेते हैं | पर क्या आप ने सोचा है की देवताओ के रहते राक्षस इतने शक्तिशाली कैसे हो गए ?

सतयुग खत्म होने के साथ ही देवताओं का बल भी खत्म हो गया था | उन्होंने उनके उन्नत विज्ञान के कारण बहुत ज्यादा पैसा , शक्ति , सत्ता प्राप्त कर ली थी | इसका परिणाम यह हुआ कि वे लोग पूरी तरह से निश्चित होकर विलास में डूब गए | इस कारण राक्षसों को अपना बल बढ़ाने का मौका मिला | यह लोग देवताओं के जैसे साइंस और टेक्नोलॉजी में महारत तो हासिल नहीं कर सके लेकिन उन्होंने अस्त्र-शस्त्र के बल को बढ़ाया |

वे लोग संगठित है | अब इनके साथ रावण जैसा पराक्रमी नेता मिल गया है | रावण भूगोल के सुविधाओं को समझता है | उसके पास जलसेना है | उन्नत ज्ञान से बने जलपोत है | जो किसी भी आर्य सम्राट के पास नहीं | आर्यावर्त के किसी भी राजा को इसका एहसास तक नहीं कि वह कितने असुरक्षित है क्योंकि दक्षिण की तरफ कोई भी शक्तिशाली राजा नहीं है | जो उसे रोक सके | वहां के निवासी अर्ध विकसित जाती है उनको शास्त्र क्या होते हैं पता ही नहीं | वे रावण की सशस्त्र और सुशिक्षित सेना को कैसे रोक पाएगी ? दक्षिण की तरफ सिर्फ एक बाली है लेकिन वह रावण का मित्र है |

सिर्फ आर्यों के राज्य को छोड़कर संपूर्ण जंबू द्वीप पर राक्षसों का आतंक फैला है | इन लोगों ने सामान्य जनता को पशु से भी बदतर जीवन जीने के लिए मजबूर कर रखा है और बड़ी बात यह है कि इन लोगों को उनके अधिकार पता ही नहीं कि वह लोग भी स्वतंत्रता के साथ जी सकते हैं | स्वच्छ जगह पर रह सकते हैं |

पेट भर खाना खा सकते हैं | उनमें यह चेतना और जागृति है ही नहीं क्योंकि रावण के राक्षसों ने उन्हें कभी शिक्षित होने ही नहीं दिया | शिक्षित होने पर वह बुद्धिजीवी हो जाएंगे और अपने अधिकार मांगेंगे | इसलिए रावण बुद्धिजीवीयो से चिढ़ता है | इसीलिए उसने आश्रमों के ऋषि – मुनियों को प्रताड़ित करने वाले और परेशान करने वाले राक्षस जगह-जगह पर छोड़ रखे हैं | सारे राक्षसों की सत्ता का केंद्र है – लंकेश रावण !

रावण ने बड़ी प्लानिंग के साथ जंबू द्वीप में जगह-जगह पर अपने सैनिक शिविर स्थापित किए हैं | उसकी नजर आर्यावर्त पर है | मालाड और करुष जैसे राज्यों का विनाश कर वहाँ ताड़का वन बना दिया है |

महर्षि विश्वामित्र का सिद्धाश्रम रावण के मार्ग की बाधा है | इसलिए राक्षस अब उसे नष्ट करना चाहते हैं | एक दिन सिद्धाश्रम नष्ट हो जाएगा फिर राक्षस आर्यावर्त में घुस जाएंगे | उसके बाद वह यहां के गांव जलाएंगे| पुरुष, नारी और बच्चों को कच्चा या भूनकर खाएंगे |

सुंदर युवतियों को दासिया या बंदिनी बनाएंगे | उसके बाद सारी संस्कृति ही नष्ट हो जाएगी | लेकिन इसकी नौबत श्रीराम जी ने कभी आने ही नहीं दी | इसीलिए शायद उनका वनवास के दौरान आखिरी पड़ाव दक्षिण दिशा में स्थित दंडकरण्य था | जहां से वे रावण को रोक सकते थे और उन्होंने वैसा ही किया | रावण का खात्मा उन्होंने लंका में ही किया | उसे आर्यावर्त की बॉर्डर भी नहीं लांघने दी | इस तरह उन्होंने पूरे आर्यावर्त को राक्षसों की बर्बरता से मुक्त कर दिया |

यह सब होने के पहले महर्षि विश्वामित्र सोचने लगे कि जहां सारे राजा एक दूसरे से अलग-थलग पड़े हुए है | वहाँ यह लोग राक्षसी शक्तियों के खिलाफ एक होकर युद्ध क्यों नहीं करते ?

राक्षसों के पास अनेक दिव्यास्त्र थे जबकि एक भी आर्य राजा के पास कोई भी दिव्यास्त्र नहीं थे| और जिन ऋषि मुनियों के पास यह दिव्यास्त्र थे | उनको उनके लिए कोई सुपात्र व्यक्ति नहीं मिल रहा था | तथा वह अपनी इस ज्ञान के साथ ही स्वर्ग सीधार रहे थे |

आर्य राजा भी राजमहल में पड़े पड़े विलासी और कोमल हो गए थे | चक्रवर्ती सम्राट कहे जाने वाले महाराज दशरथ ने भी कभी सागर पार कर किष्किंधा तक भी पहुंचने का कष्ट नहीं उठाया था | आर्य राजाओं में अभी न्याय , साहस और राजनीतिक सूझबूझ नहीं रह गई थी |

उनका शासन तंत्र ढीला हो गया था | परिणाम ! उनके शत्रु सिर उठाने लगे थे | इन सबको रोकने के लिए अगर कोई कुछ नहीं करता है तो महर्षि विश्वामित्र को ही कुछ करना पड़ेगा |

इसी विचारों की उधेड़बुन उन्हें श्री राम तक पहुंचाती है | श्री राम विश्वामित्र की हर कसौटी पर खरे उतरते हैं | वह महर्षि विश्वामित्र के मार्गदर्शन में ताड़का – वन का नाश करते हैं | वहां बंदी पड़ी स्त्रियों को मुक्त कराते हैं |

वहां के पीड़ित जनजीवन को एकत्रित कर , संगठित कर , उन्हें सशस्त्र बनाते हैं | उनका पुनर्वसन करते हैं | देवी अहिल्या का उद्धार करते हैं और सीता माता के साथ विवाह कर अयोध्या वापस आते है |

इधर महाराज दशरथ महारानी कैकेयी के बढ़ते शक्ति के कारण खुद को असुरक्षित मानते हैं | इसके चलते वह श्री राम जी का जल्द से जल्द राज्याभिषेक करवाना चाहते हैं क्योंकि उन्हें पता है की संपूर्ण अयोध्या में सिर्फ राम के अलावा उनकी सुरक्षा कोई नहीं कर सकता | लेकिन राज्याभिषेक का पता कैकेयी को लग जाता है |

उसका गुस्सा प्रतिशोध के रूप में महाराज पर , राम के वनवास के रूप में टूट पड़ता है | राम वनवासी हो जाते हैं | महाराज दशरथ की इस मानसिक स्थिति के लिए कौन सी राजनीतिक घटनाएं जिम्मेदार है और इस पर उनकी क्या प्रतिक्रियाएं होती है ? यह आप किताब में जरूर पढ़ें |

चित्रकूट में रहते हुए श्री राम के मार्गदर्शन मे आसपास के गांव के लोग संगठित और जागृत होकर राक्षस तुंबरण के आतंक का अंत कर देते हैं | इस जन जागृति में शामिल है .. उद्घोष ! जो सबका मुखिया है | जिसने स्वतंत्रता से जीने के लिए और सक्षम बनने के लिए श्री राम जी की मदद मांगी |

श्री राम , लक्ष्मण और सीताजी ने भी उनकी पूरी तरह मदद की | उद्घोष के साथ सुमेधा , सुमेधा का पिता झींगुर भी अब श्रीराम के उद्देश्य को आगे बढ़ाएंगे और चित्रकूट में अन्याय के खिलाफ अपनी लड़ाई जारी रखेंगे | वैसे भी भरत का लक्ष्य अब श्री रामजी के समक्ष स्पष्ट हो गया है |

अयोध्या भरत के हाथों सुरक्षित है | अब श्री राम चित्रकूट पर्वत छोड़ सकते हैं | वह वहां का आश्रम इन लोगों के हाथों सौंप दंडकरण्य की और निकल पड़ते हैं जैसा कि अयोध्या में ही तय हुआ था |

कैकेयी की आज्ञा दंडकरण्य में जाने की थी | अपने इस यात्रा में वह रुक रुक कर ऋषि मुनियों , जनसाधारण के जीवन से परिचय प्राप्त करते हुए , उनकी कठिनाइयों को देखते हुए , उनके साथ समय बिताते हुए और उनकी मदद करते हुए आगे बढ़ना चाहते थे |

दंडकरण्य में भी राक्षसों का आतंक छाया हुआ है | वह जिसे चाहे उसे परेशान करते हैं | उन्हें शारीरिक और मानसिक नुकसान पहुंचाते हैं | राक्षस अगर किसी व्यक्ति की हत्या करते हैं तो उसके परिजन उसके शव को भी अपनाते नहीं बल्कि उसे चोरी छिपे उन मानव कंकालों के ढेर मे छोड़ जाते हैं जो दंडकरण्य के एक कोने में पेड़ों के पीछे जमा हो गया है |

श्रमिक और गरीब लोगों का शोषण करने के लिए राक्षस लोग क्या कम थे जो इन्द्र जैसे लोग भी राक्षसों जैसा व्यवहार करने लगे हैं | यह सब देखकर दंडकरण्य में स्थापित आश्रमों के ऋषि मुनि और बुद्धिजीवियों का खून नहीं खौलता है |

बल्कि वह तो दंडकरण्य में वास्तव्य करने आए श्री राम से दूर रहना चाहते हैं | क्यों ? क्योंकि श्री राम शास्त्रधारी है और जिसके पास शस्त्र है | राक्षस उनको अपना शत्रु मानते हैं | जिसे वे शत्रु मानते हैं | उनकी हत्या कर देते हैं | लेकिन श्रीरामजी किसी से नहीं डरते | वे वीर है | एक कुशल योद्धा है | उनके पास अपना शस्त्रागार है | उन्होंने सीता जी को भी शस्त्रधारी बना दिया है ताकि इस भयंकर वन में वह सरवाइव कर सके |

श्री रामजी ने उन्हें एक स्त्री मानते हुए अंडर एस्टीमेट नहीं किया है बल्कि समानता का अधिकार देते हुए अपने कामों में उनका सहयोग लिया है | दंडकरण्य में उपस्थित जहां सभी आश्रमों ने श्रीराम और उनके शस्त्रों से दूरी बनानी चाहि | वही धर्मभृत्य मुनि ने श्री राम को उनके शस्त्रों के साथ अपने आश्रम ले जाना चाहा | वे ऐसा करते भी है |

उन्होंने अगस्त्य मुनि और उनकी पत्नी लोपामुद्रा पर एक ग्रंथ भी लिखा है | दंडकरण्य पहुंचते ही श्री राम का स्वागत अत्रि ऋषि के आश्रम में होता है | वहां पर राक्षसों द्वारा किए जाने वाले अत्याचार पर कोई बातचीत नहीं करता है |

वहां से वे शरभंग ऋषि के आश्रम की ओर चल देते है | शरभंग ऋषि आत्मदाह कर लेते है लेकिन क्यों ? इसका पता उन्हे अनिंद्य से मिलकर लगता है | दंडकरण्य में विराज जैसे गंधर्व भी राक्षसों जैसा व्यवहार करते हैं ,ना की बुद्धिजीवियों जैसा क्योंकि रावण बुद्धिजीवियों को पसंद नहीं करता और जिसको वह पसंद नहीं करता उसका जीना बेहाल हो जाता है |

ज्ञानश्रेष्ठ मुनि , सुतीक्ष्ण जैसा ऋषि समुदाय श्री राम की तरफ से रक्षा तो पाना चाहता है लेकिन उनका पक्ष लेकर , अपने जान की बाजी लगाकर राक्षसों के विरुद्ध युद्ध नहीं करना चाहता | इसीलिए शायद शरभंग ऋषि का आत्मदाह इन लोगों में विद्रोह नहीं जगा पाता | उल्टा सारे आश्रमों में निराशा फैल जाती है | जब भय का आतंक गहरा हो जाए तो अंदर का साहस जगाने में समय लगता है |

इसीलिए श्रीराम , लक्ष्मण , सीता जहां जाते हैं | वहां पहले जन – जागृति करते हैं | फिर उन्हें सशस्त्र बनाते हैं | उन्हें शिक्षा देकर उत्पादन का महत्व बताते हैं | इन सारी योजनाओं को सत्यता में लाने के लिए वह तीनों कड़ी मेहनत करते हैं |

इसी क्रम में वह धर्मभृत्य का आश्रम , आनंद सागर का आश्रम , भूलर का गांव , अनिंद्य की बस्ती , भिखन का गांव इन सारी जगह के लोगों में जागृति कर उन्हें राक्षसों के आतंक से मुक्त करते हैं |

धर्मभृत्य के आश्रम में रहते हुए उन्हें खान में काम करने वाले अनिंद्य और बाकी कामगारों के बारे में पता चलता है | वे लोग दशकों से पीड़ित और शोषित है | यह लोग जिन खानों में काम करते हैं | उनके मालिक देव और राक्षस दोनों है |

यूं तो इनमें बड़ा बैर है लेकिन बात जहां सामान्य लोगों के शोषण की आती है तो यह लोग एक हो जाते हैं | जब राक्षस उन्हें पीड़ित करते हैं तो इंद्र जैसे धनी लोग विरोध करने वालों को खरीद लेते हैं | जबकि शरभंग ऋषि को लगता है कि शोषितों को न्याय दिलाने में इंद्र जैसे लोग उनकी मदद करेंगे |

पर वह इंद्र के व्यवहार से टूट जाते हैं | इसीलिए आत्मदाह कर बैठते हैं | खान में काम करने वाले लोगों के लिए आवाज उठाने वाले मांडकर्णी को भी खान मलिक खरीद लेते हैं | परिणाम इन कामगारों का और शोषण होता है |

पर परिस्थितियाँ श्रीराम के आने के बाद बदल जाती है | श्री राम उनको छोटी-मोटी विजय नहीं दिलाते बल्कि उनको और उनके क्षेत्र को राक्षसों से पूरी तरह मुक्त करते हैं | उन लोगों को पूरी तरह आत्मनिर्भर बनाते हैं | इसमें लक्ष्मणजी, सीताजी और मुखर का मुख्य योगदान होता है |

इन्हीं लोगों की सैनिक टुकड़ियां दंडकरण्य के युद्ध में उनकी मदद करती है | खर और दूषण के खिलाफ !

हर एक गांव को आत्मनिर्भर बनाने के लिए श्रीराम कौन – कौन सी योजनाएं बनाते हैं ? उनको कार्यान्वित कैसे करते हैं ? यह तो आपको किताब पढ़ कर ही समझना होगा | किताब खरीदना चाहते हैं तो उसका लिंक डिस्क्रिप्शन बॉक्स में दिया है |

धर्मभृत्य के लिखे ग्रंथ से ऋषि अगस्त्य के चरित्र के दर्शन होते हैं | वे बुद्धिजीवी होते हुए भी शस्त्र धारण करते हैं | युद्ध करते हैं | समुद्र में नाव चलाने के महत्व को जानते हैं जबकि बाकी की सामान्य जनता समुद्र को देवता मान उस पर सफर करने से डरती हैं |

वह आर्य और वानरों के बीच की कड़ी है | उनके ही कहानी में मूर्तु नाम का युवक है | मूर्तु आज के जमाने के उन युवाओं का प्रतिनिधित्व करता है जो छोटे से गांव से शिक्षा प्राप्त करने विदेश जाते हैं | वहां के उन्नत परिवेश का उन पर इतना प्रभाव पड़ता है कि जब वे अपने गांव लौट कर आते है तो उन्हे अपने ही लोग फूहड़ और सुविधाएं पिछड़ी हुई लगती है |

वह इन परिस्थितियों में एडजस्ट नहीं कर पाते | अपने ज्ञान का उपयोग अपने देश अथवा स्थान को उन्नत करने के बजाय वे वापस अपने संसार में लौट जाते हैं | दंडकारण्य में गोदावरी के उस पार जन- स्थान है | जहां की स्वामीणी शूर्पणखा है |

वहां के सेनापति उसके भाई खर और दूषण है | वहां लंका की सेना है | ऋषि अगस्त्य जानते हैं कि दंडकारण्य श्री राम , लक्ष्मण और सीता के लिए जोखिमभरा स्थान है | फिर भी वह श्री राम और लक्ष्मण के शौर्य को देखते हुए उन्हें वहां भेजते हैं |

यहीं पर इन तीनों की मुलाकात जटायु से होती है | जटायु महाराज दशरथ के मित्र है और अब बूढ़े हो चुके हैं | मुखर भी इन्हीं के साथ है | दंडकारण्य में श्री राम का आश्रम जहां है वहां और उसके आसपास के गांव में राक्षसों का बहुत उत्पात है | इन सब का सामना श्री राम की जनसेना वाहिनी करती है |

श्री राम के शौर्य की खबर शूर्प नखा तक पहुंचती है | वह स्वभाव से पूरी तरह अपने भाई रावण के जैसी है | वह राम और लक्ष्मण को हासिल करना चाहती है | जब वह इसमें असफल होती है तो खर और दूषण को भड़काकर उन्हें आक्रमण करने के लिए मजबूर कर देती है |

वह दोनों 14000 सैनिकों के साथ श्री राम के आश्रम पर हमला कर देते हैं | श्री राम भी अपनी जान सेना वाहिनी के साथ युद्ध के लिए तैयार है क्योंकि मुखर ने संचार व्यवस्था ही इतनी अच्छी बना रखी है कि प्रत्येक जगह के हलचल की खबर श्री राम तक पहुंचती है |

श्रीराम फिर अपना व्यू रचते हैं | कौन से युद्ध को कैसे लड़ा जाए इसका निर्णय लेते हैं | इस बार भी वैसा ही होता है | खर और दूषण मारे जाते हैं | उनकी सम्पूर्ण सेना धराशाही हो जाती है | शूर्प नखा जनस्थान छोड़कर लंका भाग जाती है |

इसमें मणि और वज्रा मदद करती हैं जो शूर्पनखा द्वारा पीड़ित दासिया है | जान – स्थान राक्षस मुक्त हो जाता है | इस भाग में लेखक ने शूर्पणखा के लहरी स्वभाव का , श्री राम के साथ लड़े गए खर और दूषण के युद्ध का वर्णन बहुत ही खूबसूरती से किया है | जरूर पढ़िएगा |

लंका जाने के बाद वह रावण को उकसाकर सीताजी के हरण के लिए उसे तैयार करती है | रावण अपनी योजना बनाकर सीताजी का अपहरण करता है | इसमें मारीच कोई सोने का हिरन नहीं बनता | तो फिर कैसे वह श्री राम को आश्रम से दूर ले जाने में सफल होता है |

एक अलग ही दृष्टिकोण से इस वाकया को बयां किया गया है | खैर ! शूर्पनखा सोचती है कि रावण एक स्त्री – लोलुप व्यक्ति है | सीता के सौंदर्य का वर्णन सुनकर वह उसका अपहरण जरूर करेगा | फिर श्री राम और उसका युद्ध होगा |

युद्ध में राम और लक्ष्मण मारे गए तो उसका प्रतिशोध पूर्ण होगा | अगर रावण मारा गया तो भी उसका प्रतिशोध पूर्ण होगा क्योंकि रावण ने उसी के सामने उसके पति की हत्या की थी | अच्छी चिकित्सा के अभाव में उसका पुत्र भी अब इस दुनिया में नहीं रहा |

ऐसे में वह रावण को माफ नहीं कर पाई | लेकिन सीता का अपहरण होने के बाद मंदोदरी की वजह से सारी परिस्थितिया बदल जाती है | फिर भी अपने भाई के स्वभाव को जानते हुए शूर्पनखा को लगता है कि रावण सिर्फ सीता की ही बात मानेगा |

हो सकता है कि सीता के कहने पर रावण उसे मरवा दे | यह सोचकर वह घबरा जाती है | अब वह त्रिजटा को सीता के पास रखकर यह विश्वास दिलाना चाहती है कि श्री राम उसे छुड़ाने अवश्य आएंगे | वह अपने निर्णय पर कायम रहे |

इसके बाद की कहानी वॉल्यूम 2 में दी है | उसका भी रिव्यू और सारांश हम जल्दी लेकर आ रहे हैं | लेखक की जानकारी भी उसी मे बताएंगे | उसे भी देखिएगा जरुर ! तब तक पढ़ते रहिए ! खुशहाल रहिए !

श्रीराम को मन में बसाने के लिए ईर्ष्या, क्रोध , मत्सर , अहंकार रूपी रावण को बाहर निकालना होगा | राम रूपी प्रेम , करूणा , सद्भाव , सब लोगों के प्रति समभाव मन में बसाना होगा | तभी हम सच में श्रीरामजी को पा सकेंगे !

मिलते हैं और एक नई किताब के साथ ! तब तक के लिए ..

धन्यवाद !

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