HARSHACHARIT BY BANABHATT |सम्राट हर्षवर्धन की जीवनी का संपूर्ण रिव्यू |

बाणभट्ट द्वारा लिखित 'हर्षचरितम' पुस्तक का कवर पेज

हर्षचरित
बाणभट्ट द्वारा लिखित

रिव्यू –

किताब का परिचय – 

हर्षचरित , बाणभट्ट की पहली रचना थी | यह एक ऐतिहासिक ग्रंथ है जिसे संस्कृत भाषा में लिखा गया है | इसे संस्कृत साहित्य में ऐतिहासिक ग्रंथ लेखन की शुरुआत माना जाता है | हर्षचरित में मुख्य रूप से कन्नौज के शासक सम्राट हर्षवर्धन के जीवन और उनके समय का वर्णन किया गया है | बाणभट्ट हर्षवर्धन के दरबारी कवि थे |
प्रस्तुत ग्रंथ मे सम्राट हर्षवर्धन का जीवन-चरित्र , उनके शासनकाल की शुरुआती घटनाएँ और उनके समय के समाज, संस्कृति और राजनीतिक हालात की जानकारी समाई है | यह एक गद्य काव्य है |
यह सातवीं शताब्दी के भारत के इतिहास को जानने का एक महत्वपूर्ण स्रोत है | हालांकि, कुछ विद्वान इसे पूरी तरह से ऐतिहासिक कृति के बजाय “ऐतिहासिक रोमांस” मानते हैं क्योंकि इसमें काव्यात्मकता और कल्पना का भी समावेश है |

यह कृति भारतीय इतिहास और साहित्य दोनों की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है | हमे यह बहुत पसंद आयी | हम इसे 5 स्टार  की रेटिंग दे रहे है | यह इतनी महत्वपूर्ण है | इसीलिए शायद इसे हमारे भारत देश के शासक भी पढ़ते होंगे | यही किताब “कंगना रनौत” द्वारा अभिनीत फिल्म झांसी की रानी मे , महारानी लक्ष्मीबाई को पढ़ते हुए दिखाया गया है |

महाकवि बाणभट्ट की जानकारी –

महाकवि बाणभट्ट एक संस्कृत कवि थे |बाणभट्ट , सम्राट हर्ष के समयकाल याने के सन (606 और 648 ई. ) सन में हो गए हैं | इसीलिए इनका निश्चित काल विद्वानों को पता है | इन्होंने ही सम्राट हर्ष के जीवन पर आधारित हर्षचरित ग्रंथ की रचना की | उनकी और एक रचना का नाम “कादंबरी” है |
हर्षचरित संस्कृत साहित्य में मिलनेवाली सबसे पुरानी आख्यायिकाओं में से एक है | इसमें उन्होंने अध्यायों को उच्छ् वासों का नाम दिया है | ऐसे ही पहले दो उच्छ् वासों में उन्होंने अपना परिचय दिया | बाकी के उच्छ् वासों में उन्होंने सम्राट हर्ष और उनके परिवार का वर्णन किया है | साथ में उन्होंने उनके राज्यकाल की बहुत सी घटनाओं का उल्लेख भी किया है |
विद्वानों के मतानुसार इसमें कहीं भारी भरकम तो कहीं एकदम सरल वर्णन मिलते हैं | इसमें हर्ष सम्राट की कथा तो है | साथ में 50 वर्णनात्मक चित्र भी है | संस्कृत साहित्य में यह चित्र अद्वितीय माने जाते हैं | इन चित्रों से सातवीं शती का जीता जागता परिचय मिलता है |

हर्षचरित मे सम्मिलित मुख्य बातें – 

सम्राट हर्ष , उनका राजकुल , उनकी छावनी , उनकी बहन राज्यश्री का विवाह , सेना के कूच की तैयारी , प्रयाण करता हुआ कटक दल , विन्ध्याचल के जंगली देहात और उनके घर , बौद्ध भिक्षु दिवाकर मित्र का आश्रम इन जैसी बहुत सारी घटनाओं , व्यक्तियों का शब्द चित्रण उन्होंने अपने संस्कृत ग्रंथ हर्ष -चरित में किया है |
बीच-बीच में उन्होंने संध्याकाल , प्रातःकाल , ग्रीष्म ऋतु जैसे प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन भी अपने सरल शब्दों में किया है | प्रस्तुत किताब के –
लेखक हैं – बाणभट्ट
हिन्दी रूपांतरकार – चुन्नीलाल शुक्ल
प्रकाशक है – साहित्य भंडार
पृष्ठ संख्या है – 220
उपलब्ध है – अमेजॉन पर

सारांश –

हर्षचरित शुरू करने के पहले की स्तुति किसके वर्णन से होती है ?

      हर्षचरित की कथा के प्रारंभ में कवि बाणभट्ट ने भगवान शिव की स्तुति कर उन्हें प्रणाम किया है | इसी के साथ उन्होंने वेदव्यास , सुबंधु , सातवाहन , प्रवरसेन, भास और कालिदास जैसे प्राचीन कवियों का गुणगान भी किया है | उसके बाद उन्होंने कथा का आरंभ किया है |

एक प्राचीन कथा –

कथा एस प्रकार है – एक बार ब्रह्मलोक में देवताओं और ऋषियों की मीटिंग चल रही थी | इसी मीटिंग में क्रोध के लिए प्रसिद्ध ऋषि दुर्वासा का अन्य एक ऋषि के साथ झगड़ा हो गया |वहां गाते समय ऋषि दुर्वासा का थोड़ा सा स्वर इधर से उधर हो गया था | इस पर सरस्वती देवी को हंसी आ गई | बस फिर क्या था ? ऋषि दुर्वासा क्रोध से आग बबूला हो गए | उन्होंने आनन – फानन में सरस्वती देवी को मृत्युलोक में जन्म लेने का श्राप दे दिया |
सरस्वती देवी की सखी सावित्री भी उनके साथ ब्रह्मलोग से मृत्युलोक में उतरी | उन्होंने दंडक वन के पास ही बहनेवाली शोण नदी के तट पर अपना आश्रम बनाया और वही भगवान शिव की तपस्या करने लगी | एक दिन आश्रम में एक घुड़सवारों के टुकडी के साथ एक सुंदर युवक आया जिसका नाम “दधीचि” था |
उसके अंगरक्षक का नाम “विकुक्षी” था | कुछ दिनों बाद इसी “दधीचि” के साथ “सरस्वती” का विवाह हो गया | इन दोनों के पुत्र का नाम “सारस्वत” रखा गया | अब सरस्वती के श्राप की अवधि पूर्ण हो गई थी | इसीलिए फिर वह ब्रह्मलोक वापस चली गई |
“सारस्वत” का पालन – पोषण “दधीचि” के बड़े भाई की पत्नी “अक्षमाला” ने किया | इसी अक्षमाला का पुत्र “वत्स” था | इसी “वत्स” के नाम पर सारस्वत ने “प्रीतिकूट” नामक गांव बसाया | इसी “प्रीतिकूट” गाँव में प्रस्तुत ग्रंथ के रचयिता “बाणभट्ट” का जन्म हुआ |

“वात्सायन” वंश का निर्माण – 

“अक्षमाला” के पुत्र “वत्स” से “वात्सायन” वंश का प्रादुर्भाव हुआ | इस वंश में जन्म लेनेवाले ब्राह्मण गृहस्थ होते हुए भी मुनियों की वृत्ती रखते थे | इसी वंश में “कुबेर” नामक व्यक्ति का जन्म हुआ | कुबेर का पुत्र “पाशुपत” हुआ | “पाशुपत” का पुत्र “अर्थपति” | अर्थापति के 11 पुत्र हुए | इनमें से आठवें नंबर के पुत्र “चित्रभानु”, बाणभट्ट के पिता थे |

बाणभट्ट का जीवन की कहानी – 

बाल्यकाल में ही माता के गुजरने के बाद पिता ने उनका पालन – पोषण किया | 14 वर्ष में उनके पिता भी चल बसे , तब तक उनका विवाह हो चुका था | बाणभट्ट स्वभाव से ही घुमक्कड़ थे | पिता के ना रहने से वह स्वतंत्र हो गए थे | घर की स्थिति भी अच्छी थी | इसीलिए वह बहुत वर्षों तक बाहर घूमते रहे | उनके साथ उनकी मित्र मंडली भी थी जिनमें शामिल थे परिचारक , कवि , विद्वान , कलापारखी , शिल्पी , नाचगान के प्रेमी , वैद्य , मंत्र – साधक , साधु – सन्यासी इत्यादि |
इस प्रवास मे उन्होंने सब तरह की दुनिया देखी | हम यह कह सकते हैं कि ,उन्होंने घाट-घाट का पानी पिया | बड़े-बड़े राजकुलो का हाल-चाल जाना , कई शिक्षा केंद्रों में समय बिताया , कलावंतों की गोष्ठियों में उपस्थिति दर्ज की , देशाचार और लोकाचार के अनुभवों के साथ वह अपने गांव वापस लौट आए | इसके साथ उनमें और भी गुण मौजूद थे जिस कारण उनके काव्य प्रतिभा में चार चांद लग गए |
एक बार भरी दोपहरी के समय सम्राट हर्ष के छोटे भाई कृष्ण का दूत उनका निजी संदेश लेकर आया | उस संदेश के अनुसार दुष्ट लोगों ने सम्राट हर्ष को बाणभट्ट के खिलाफ भड़का दिया था | इसलिए उसे राज भवन में बुलाया गया था | रात भर सोच विचार करने के बाद बाद उन्होंने वहां जाने का निश्चय कर लिया तब सम्राट हर्ष की छावनी राप्ती के किनारे गणतारा गांव में पड़ी हुई थी |
वहीं पर दरबारे – खास के सामनेवाले आंगन में उन्होंने हर्ष के दर्शन किए पर हर्ष ने उसे देखते ही मुंह फेर लिया और मालव राजकुमार से कहा कि यह भारी गुंडा है | यह सुनकर सभा मंडप में बैठे सारे लोग स्तब्ध हो गए क्योंकि उस वक्त किसी को गुंडा कहना , उसका भारी अपमान समझा जाता था |
इसलिए यह शब्द सुनकर बाणभट्ट तिलमिला गए | उन्होंने इसके लिए प्रतिवाद किया | उन्होंने अपने बारे में ऐसी बातें बतायी जिससे हर्ष कुछ शांत हुए | उसके बाद दोनों अपने स्थान को चले गए | कुछ दिनों बाद हर्ष को बाणभट्ट के बारे में सच्चाई पता चली तब वह राजभवन में आकर रहने लगे |
अब उन दोनों में गहरी मित्रता हो गई | कुछ दिनों बाद वह अपने गांव लौट आए | सम्राट ने उसका सम्मान किया है | यह बात पता चलते ही उसके बंधु – बांधव , मित्र – रिश्तेदार उससे मिलने आए | वह इन सब से मिलकर बहुत खुश हुए | बाणभट्ट के चचेरे भाइयों में सबसे छोटा श्यामल था | इसी ने बाणभट्ट को हर्ष – चरित सुनाने के लिए कहा |
यहीं से हर्षचरित आरंभ होता है |

सम्राट हर्षवर्धन के पूर्वजों की कहानी – 

श्रीकंठ नाम का जनपद था जिसकी राजधानी स्थाणविश्वर थी | यहां हर तरफ संपन्नता और खुशहाली थी फिर चाहे वह किसान का घर हो , खेत खलिहान हो या फिर जंगल हो ! जंगल गोधन से भरा हुआ था | ऐसे इस संपन्न देश का राजा “पुष्पभूति” था |
यहां के सब लोग भगवान शिव के भक्त थे | ऐसे इस संपन्न देश में दक्षिण से आया हुआ भैरवाचार्य नामक महाशैव रहता था | इसकी कीर्ति चारों तरफ फैली हुई थी | महाराज इसकी कीर्ति सुनकर इससे मिलने आए | एक दिन भैरवाचार्य का शिष्य महाराज के पास “अट्टहास” नामक तलवार लेकर आया |
उसने वह राजा को दी | राजा प्रसन्न हुआ | इसके कुछ दिनों बाद भैरवाचार्य ने एक मंत्र की सिद्धि का फल देने के लिए राजा को रात में महाश्मशान में बुलाया | राजा भी वहां पहुंचा | भैरवाचार्य वहाँ साधना कर रहा था | उससे कुछ ही दूरी पर धरती फट गई और उसमें से एक काला पुरुष बाहर निकला जिसके शरीर पर चंदन के थापे लगे थे | उसका नाम “श्रीकंठ” था |
उसने भैरवाचार्य को ललकारा पर उसकी ललकार राजा पुष्पभूति ने स्वीकार कर ली | राजा के पराक्रम से देवी लक्ष्मी वहां प्रकट हुई | उन्होंने राजा पुष्पभूति को दो वरदान दिए | पहले वरदान स्वरुप भैरवाचार्य को सिद्धि प्राप्त हुई | दूसरे वरदान स्वरुप उनके वंश में हर्ष नामक चक्रवर्ती सम्राट के जन्म लेने का आशीर्वाद मिला | भैरवाचार्य विद्याधर के गति को प्राप्त हुए |
श्रीकंठ , बुलाने पर प्रकट होने का वादा कर के गायब हो गया |

सम्राट हर्षवर्धन की कहानी – 

सम्राट पुष्पाभूति के वंश में अनेक राजाओं के बाद प्रभाकरवर्धन नाम का राजा हुआ | उनकी महारानी का नाम यशोमती था | इन्हीं को दो पुत्र रत्न थे | पहले का नाम राज्यवर्धन था और दूसरे का हर्षवर्धन | जब 6 साल के थे तब उन्हें “राज्यश्री” के रूप में एक बहन मिली |
अब वह दोनों भाई राज दरबार में जाने लगे | उनके साथ उनके मामा का पुत्र “भण्डी” भी जाने लगा था | हर्षवर्धन के पिता प्रभाकरवर्धन ने अपने पुत्रों के सखाओ के रूप में मालव के दो राजकुमारों को नियुक्त किया था | इनका नाम कुमारगुप्त और माधवगुप्त था |
युवती होने पर राज्यश्री का विवाह कन्नौज के राजा अवंतीवर्मा के बड़े बेटे ग्रहवर्मा से हो गया | उनके विवाह का वर्णन बाणभट्ट ने अपने शब्दों में किया है जिससे लगता है जैसे वह काल जीवित हो गया हो ! आप जरूर पढ़िएगा की प्राचीन काल में राजकुमारीयो की शादी कैसे होती थी ?
विवाह के 10 दिन बाद ग्रहवर्मा अपनी पत्नी राज्यश्री को लेकर चला गया | अब तक भारत देश पर हूणों का आक्रमण शुरू हो चुका था | वह कश्मीर और गंधार में जमे बैठे थे | उनसे भारत की सीमा को मुक्त करना आवश्यक था | इसीलिए अब उनका मुकाबला करने युवा राज्यवर्धन को उत्तरापथ भेजा गया | तब हर्षवर्धन मात्र 15 वर्ष के थे |
युद्ध में वह कुछ दूर तक अपने भाई के साथ गए पर शिकार खेलने के लिए हिमालय की तराई में ही रुक गए | उन्हें बड़ा बुरा सपना आया | यह सपना सच साबित हुआ | उनके पिता बीमार थे | वह तुरंत राजधानी लौट गए | कुछ दिनों की बीमारी के बाद महाराज का निधन हुआ | उनके पिता की मृत्यु के पहले ही उनकी माता सती हो गई |
अब हर्षवर्धन अपने बड़े भाई की राह देखने लगे | कुछ दिनों पश्चात युद्ध में घायल होकर राज्यवर्धन वापस आए | दोनों भाइयों ने माता-पिता का शोक मनाया | राज्यवर्धन ने शोक मे रहते हुए ही अपने शस्त्र त्यागे और किसी आश्रम में जाने की इच्छा प्रकट की |
यह सुनकर हर्षवर्धन और शोक में डूब गए | तभी कन्नौज से खबर आई कि जिस दिन हर्षवर्धन के सम्राट पिता प्रभाकरवर्धन के मरने की खबर फैली | उसी दिन मालवराज ने राज्यश्री के पति ग्रहवर्मा को मार डाला और राज्यश्री के पैरों मे बेड़िया डाल उसे कान्यकुब्ज के कारागार में डाल दिया |
अब वह स्थाणविश्वर पर भी हमला करना चाहता हैं | यह सुनकर राज्यवर्धन का विषाद जाता रहा और वह क्रोध में भरकर सिर्फ दस हजार घुड़सवारों और भण्डी को लेकर मालवराज से युद्ध करने चल पड़े | हर्षवर्धन को फिर से बुरा सपना देखा | इस बार उन्हें खबर मिली कि , उनके बड़े भाई ने मालवराज को तो हारा दिया परंतु गौड़ के राजा ने विश्वासघात कर राज्यवर्धन को मार डाला |
यही परिस्थितियां हर्ष के चक्रवर्ती सम्राट बनने की निमित्त बनी | हर्ष ने जैसे ही अपने भाई के मृत्यु की खबर सुनी | वह क्रोध से फट पड़े | इसी क्रोध में उन्होंने प्रतिज्ञा की कि वह कुछ ही दिनों में धरती को गौडरहित बना देंगे | नहीं तो ! खुद जलकर मर जाएंगे |
इसके साथ ही उन्होंने पूर्व में बसे उदयाचल , दक्षिण में बसे चित्रकूट , पश्चिम में अस्तानचल और उत्तर में गंधमादन पर्वत तक बसें सब राजाओं को लिख भेजा की या तो वह उसकी अधीनता स्वीकार कर ले या फिर युद्ध के लिए तैयार रहे |
इस दिग्विजय यात्रा में हर्षवर्धन के सेनापति सिंहनाद भी उनके साथ थे | सम्राट हर्षवर्धन के इस यात्रा को बाणभट्ट ने “चार दिशाओं की विजय” का नाम दिया है | उस काल की राजनीतिक पद्धति के अनुसार चारों दिशाओं में दिग्विजय प्राप्त करनेवाले राजा को “महाराजाधिराज” की उपाधि मिलती थी |
उनके राज्य के लोगों की जय जयकार में , वह अपने युद्ध – शस्त्रों से सजी सेना और दलबल के साथ जगह-जगह पर पड़ाव डालते हुए , दिग्विजय के लिए निकले | एक पड़ाव पर कामरूप के कुमार भास्करवर्मा का दूत अनेकों प्रकार की मूल्यवान सामग्री और धन लेकर उनसे आ मिले | इसके बाद के पड़ाव में , कुछ ही दूर भण्डी के साथ वह सेना थी जिसे राज्यवर्धन की सेना ने जीत लिया था |
भण्डी जब हर्षवर्धन से मिले तो उन्होंने बताया कि राज्यवर्धन के मरने के बाद गुप्त नाम के व्यक्ति ने कान्यकुब्ज पर अधिकार कर लिया था | तब उनकी बहन राज्यश्री पकड़ी गई | वह किसी तरह छूटकर विंध्याचल के जंगलों में भाग गई | उसे ढूंढने जो गया लौट के नहीं आया | अब उसे ढूंढने का जिम्मा खुद हर्षवर्धन ने लिया | वह विंध्याचल के जंगलों में पहुंच गए | वहाँ दिवाकरमित्र नाम के भिक्षु का आश्रम था |
यह ग्रहवर्मा का बचपन का मित्र था | इनके पूछने पर हर्षवर्धन ने अपने आने का कारण बता दिया | तभी एक भंते ने आकर राज्यश्री के बारे में बताया जो अग्नि में प्रवेश करने की तैयारी कर रही थी |
खबर लानेवाले भन्ते की मदद से ही हर्षवर्धन और बाकी लोग राज्यश्री तक पहुंचे | हर्षवर्धन ने अपनी बहन को बचाया | उसका दुख दूर करने की कोशिश की फिर सब लोग आश्रम लौट आए | उसके बाद दिवाकरमित्र ने एक दिव्य मोतियों की माला जिसका नाम “मंदाकिनी” था | हर्षवर्धन को दी |
कुछ समय बीतने के पश्चात राज्यश्री ने संन्यास लेने की इच्छा जाहिर की | इस पर “दिवाकरमित्र” ने कहा कि तुम्हारा बड़ा भाई जो कहे , तुम्हें वही करना चाहिए | इस पर हर्षवर्धन ने कहा कि मेरी प्रतिज्ञा पूरी होने के बाद हम दोनों भाई-बहन एक साथ संन्यास लेंगे तब तक आप मेरी बहन को अपने आश्रम में रखें |
उस दिन हर्षवर्धन उसी आश्रम में रुके | उसके बाद वह अपने अभियान पर निकले | यहीं पर हर्षवर्धन के कहानी की अचानक समाप्ति होती है | इससे ऐसा लगता है की बाणभट्ट का उद्देश्य हर्षवर्धन का संपूर्ण चरित्र लिखना नहीं था |
सम्राट हर्षवर्धन के बारे में और जानने के जरूर पढिए बाणभट्ट द्वारा लिखित “हर्ष – चरित” | तब तक पढ़ते | खुशहाल रहिए | मिलते हैं और एक नई किताब के साथ | तब तक के लिए ….
धन्यवाद !!

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सवाल है? जवाब यहाँ है | (FAQs SECTION)

Q1. बाणभट्ट की लिखी किताबें कौन सी हैं?
उत्तर: बाणभट्ट ने सिर्फ दो किताबें लिखीं है | पहली हर्षचरित और दूसरी कादंबरी |
Q2. हर्षचरित की रचना किसने की थी ? क्या ह्वेन त्सांग ने ?
उत्तर: ऐसा सोचना गलत है | हर्षचरित के रचनाकार बाणभट्ट हैं | यह सिद्ध हो चुका है क्योंकि हर्षचरित के पहले दो उच्छ्‌वासों में उन्होंने अपना परिचय बताया है |
Q3. बाणभट्ट द्वारा लिखित ‘हर्षचरित’ किसका उदाहरण है ?
उत्तर: यह कन्नौज के शासक सम्राट हर्षवर्धन की जीवनी है |
Q5. बाणभट्ट द्वारा लिखित रोमांटिक उपन्यास कौन सा है ?
उत्तर: कादंबरी यह उनकी दूसरी रचना है | यह एक रोमांटिक नॉवेल है | यह दो प्रेमी युगलों की कई जन्मों की कहानी है | इस उपन्यास को बाणभट्ट के निधन के बाद उनके पुत्र भूषणभट्ट ने पूर्ण किया |

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