GOTAVALA BOOK REVIEW AND SUMMARY

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गोतावळा
आनंद यादव द्वारा लिखित
रिव्यू –
“गोतावळा” Read more एक मराठी शब्द है जिसका अर्थ है -परिजन , सगे – संबंधी , रिश्तेदार | हमें अपने परिवारवालों से जैसा लगाव होता है | उनके बारे मे छोटी – मोटी सारी बातें हमे पता होती है | वैसे ही कहानी का नायक “नारबा” उसके परिवार के हर सदस्य से लगाव रखता है |
वह भी उनकी हर जरूरत को जानता है फर्क सिर्फ इतना है की नारबा के गोतावळा मे इंसान नहीं बल्कि जानवर शामिल है | इनमे है , शिवलिंग – म्हालिंगा नाम के दो बूढ़े बैल , सोन्या – चान्न्या नाम के दो नौजवान बैल , गाय , भैंसे उनके बच्चे , कुत्ता – कुत्ती , इनका बच्चा , बकरी , उसके बच्चे , एक शैतान मुर्गा और आसपास की प्रकृति |
नारबा के मालक के विचारों के साथ नारबा के नाम का स्तर भी निचे गिरते जाता है जैसे नारायण का नारबा फिर नारबा का सिर्फ नाऱ्या बनकर रह जाता है |
पहले नारबा का मालिक भी अपनी खेती की जमीन को माँ का दर्जा देता था पर एक दिन एक शहरी आदमी आया और उसने उसके दिमाग में आधुनिकीकरण का बीज बोया जिसमें ट्रैक्टर से खेती करना और नारबा के परिवार को बेचना शामिल था |
जानवरों को बेचने के नाम से ही नारबा के पेट में दर्द हो गया क्योंकि जानवरों के बगैर उसकी कोई जिंदगी ही नहीं थी | उसका दिन उनके साथ ही शुरू होता था और खत्म भी … जब से नारबा के मालिक के मन में आधुनिकीकरण समाया , तभी से नारबा के परिवार का पतन शुरू हो गया |
किताब साहित्य अकादमी पुरस्कृत है और मराठी की प्रसिद्ध किताब है | इसका प्रकाशन 1971 में हुआ | लेखक आनंद यादव ग्रामीण साहित्य के शीर्ष पर विराजमान है | उनके द्वारा लिखित यह किताब ग्रामीण साहित्य में मिल का पत्थर और महत्वपूर्ण मानी जाती है |
यह ग्रामीण जीवन और कृषि संस्कृति पर आधारित है | इसीलिए ग्रामीण भाषा का भरपूर उपयोग हुआ है | ग्रामीण कृषि संस्कृति पर आधुनिकीकरण का क्या प्रभाव होता है ? इसी पृष्ठभूमि पर आधारित इसकी कहानी है | नारबा जैसे जानवरों से लगाव रखता है , वैसा ही वह प्रकृति से भी रखता है |
इसीलिए शायद वह तब भी बहुत दुखी होता है जब उसके खेत में लगे पेड़ को उसका मालक रामू सोनवणे अपनी लालच के लिए काट लेता है ताकि उसे कुछ आमदनी हो सके | यह पेड़ नारबा के जानवरों को धूप मे छांव , अलग-अलग पंछियों को , छोटे-मोटे जानवरों को आश्रय देता था |
नारबा को पारंपरिक खेती और आधुनिक जीवन शैली के बीच के संघर्ष का सामना भी करना पड़ता है | लेखक ने नारबा के माध्यम से ग्रामीण जीवन के बारीक पहलुओं को , प्रकृति के साथ-साथ मनुष्य के संबंध को और आधुनिकता के कारण ग्रामीण जीवन के होनेवाले विनाश को बहुत ही सटीकता से दर्शाया है |
नारबा का अकेलापन , उसकी निष्ठा , उसका भावनात्मक जुड़ाव पाठक के मन को छू लेता है | प्रस्तुत किताब का हिन्दी ,तेलुगु , गुजराती , कन्नड ,उर्दू , अंग्रेजी और जर्मन भाषा मे अनुवाद हो चुका है | जानते है थोड़ी सी जानकारी लेखक के बारे मे –

    प्रस्तुत किताब के लेखक आनंद यादव एक प्रसिद्ध मराठी साहित्यकार थे | उन्होंने भारतीय ग्रामीण साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया है |
झोंबी यह उनकी आत्म कथात्मक किताब है | उसे पढ़कर आप बहुत कुछ उनके बारे मे जान जाओगे | उनके बारे मे मुख्यतः यही जानना जरूरी है की उन्होंने कहा तक पढ़ाई की | क्योंकि उन्हे अपनी पढ़ाई के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा |
उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा महाराष्ट्र से की | बाद मे मराठी और संस्कृत साहित्य में स्नातकोत्तर की डिग्री ली | पुणे विश्वविद्यालय से पीएचडी की |
कुछ वक्त के लिए उन्होंने आकाशवाणी में काम किया | बाद में पुणे विश्वविद्यालय के मराठी विभाग में कार्यरत हो गए | वहीं से वह विभागाध्यक्ष के पद से रीटायर हुए |
उनके साहित्य मे विशेषतः ग्रामीण जीवन, कृषि संस्कृति और आधुनिकता के ग्रामीण समाज पर पड़नेवाले प्रभाव को दर्शाया गया है |
उन्होंने 40 से ज्यादा किताबे लिखी | उनकी प्रसिद्ध किताबो मे शामिल है – “झोंबी” | यह उनका सबसे प्रसिद्ध आत्मकथात्मक उपन्यास है | “इसका रिव्यू भी हमारी वेबसाईट “सारांश बुक ब्लॉग” पर उपलब्ध है | इसका लिंक भी निचे दिया गया है | जरूर पढ़िएगा | इस उपन्यास के लिए उन्हें 1990 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला | उन्हें महाराष्ट्र राज्य शासन की तरफ से चौदह पुरस्कारो से सम्मानित किया गया है |
दूसरा प्रसिद्ध उपन्यास है – “गोतावळा”
“घरभिंती”, “काचवेल”, “नांगरणी” उनके द्वारा लिखित अन्य उपन्यास हैं | उनके द्वारा लिखित कई किताबों का कन्नड़, हिंदी, उर्दू, तेलुगु, अंग्रेजी और जर्मन जैसी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है |
साहित्यकार आनंद यादव को साहित्य मे उनके योगदान के लिए कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया | जिसमे शामिल है – शिवाजी सावंत पुरस्कार, पु. ल. देशपांडे स्मृति पुरस्कार, आचार्य अत्रे पुरस्कार, और अन्य कई प्रतिष्ठित पुरस्कार |
साहित्यकार आनंद यादव ने कविता, कहानी, उपन्यास, समीक्षा और ललित गद्य लिखे | उन्हे ग्रामीण साहित्य का जनक भी कहाँ जाता है | 1975 के बाद उन्होंने ग्रामीण साहित्य आंदोलन शुरू किया | इस काल को ‘यादवकाल’ के नाम से जाना जाता है | इस भावनात्मक और मार्मिक किताब के –
लेखक है – आनंद यादव
प्रकाशक है – मेहता पब्लिशिंग हाउस
पृष्ठ संख्या है – 156
उपलब्ध है – अमेजॉन और किंडल पर
सारांश –
नारायण या नारबा खेत मे काम करनेवाला  मजदूर है | वह गांव से दूर खेती में ही अपने जानवरों के साथ रहता है | इसलिए उसका गांव के लोगों के साथ कोई संपर्क नहीं होता | उसके मालिक ने हामी भरकर भी , उसकी शादी नहीं करवाई |
इसीलिए भी नारबा अकेला है | कभी-कभी उसे यह अकेलापन इतना सलता था कि उसे लगता था कि वह इंसान ही क्यों बना ? जानवर ही क्यों नहीं बन गया | उसके मालिक ने भी यह सोचा होगा की उसका परिवार बढ़ेगा तो उसका खर्च भी बढ़ेगा और नारबा से उसे होनेवाला फायदा कम होगा |
नारबा का मालिक उसे सिर्फ पेट भर खाना देता था | नारबा उसके यहाँ पिछले 20 वर्षों से काम कर रहा था | उसके साथ जो जानवर थे वह भी नारबा के साथ ही बड़े हुए थे | इसलिए भी नारबा का उनके साथ एक अलग लगाव था |
खैर , नारबा की जिंदगी आगे बढ़ती रही | सुबह उठकर जानवरों को चारा डालना , उन्हें नहलाना – धुलाना , मोट को जोतकर गन्ने के खेतों को पानी देना , भैंसों का , गायों का दूध निकालना , सण -त्योहारो पर इनको सजाना जारी रहा | साथ में गन्ने के खेतों की गधों से , जंगली जानवरों से रक्षा करना भी जारी रहा |
नारबा के मालिक की आधुनिक मानसिकता का पहला शिकार उसका घोड़ा हुआ क्योंकि उसने अब साइकिल खरीद ली थी | उसे अब घोड़े की जरूरत नहीं थी | वैसे भी घोड़ा बेचारा एक आंख से अंधा हो गया था | अब उसे खाने को भी न के बराबर मिलता था , फिर भी नारबा उसे उसके मालिक से बचकर कुछ खाने के लिए जरूर देता था |
एक दिन वह घोडा कहीं गायब हो गया | कुछ दिन तक वापस ही नहीं आया | नारबा के मालिक ने सोचा अच्छा हुआ | नारबा को बाद में पता चला की बिचारा एक सूखे कुएं में गिर गया था | कुछ दिनों बाद वह मिट्टी में मिल गया |
जो भैंस दूध नहीं देती थी | उसको बेच दिया गया | जो गाय दूध नहीं देती थी | उसको किसी आश्रम में छोड़ दिया गया | जहां ऐसे जानवरों की देखभाल की जाती थी | यह काम भी नारबा के मालिक ने नारबा को ही सौंपा था |
गाय भी बिचारी , बिना सोचे – समझे नारबा के पीछे चल पड़ी | यह सोचकर की नारबा हमेशा उसके लिए अच्छा ही करेगा | वहाँ पहुंचकर गाय ने जो आर्त चीत्कार निकाली | आप अनुमान ही लगा सकते हैं की नारबा की क्या हालत हुई होगी ?
बकरियों के जिन बच्चों को नारबा ने पाल – पोसकर बड़ा किया था | उसके मालिक ने उन्हें पैसों के लिए एक-एक कर के बेच दिया | बकरी भी अपने बच्चों को एक-एक करते जाते देखती रही और उनके लिए चिल्लाती रही |
शिवलिंग और म्हालिंगा नाम के दो बूढ़े बैलों की जोड़ी में से म्हालिंगा बचा था | इसको मालिक ने हरी घास डालने के लिए मना किया था पर बेचारा बूढ़ा होने के कारण सुखी घास भी नहीं खा पाता था | मालिक को जीवन भर दी गई सेवा के बदले उसे इस उम्र मे अच्छा खाना तो मिलना ही चाहिए था |
पर नहीं , उसने तो इसे कसाइयों को बेच दिया | नारबा इन सब के साथ इतना एकरूप हो गया था कि वह इन्हीं के साथ मस्ती मजाक भी किया करता था | नारबा के पास एक कुत्ती थी जो उसी के साथ उसकी झोपड़ी में रहा करती थी |
एक पहलवान कुत्ता था जो नारबा को खेतों की रखवाली में मदद किया करता था | इन दोनों का एक बच्चा था जो नारबा के इर्द – गिर्द ही मंडराते रहता था | कुत्ता कभी भी उस कुत्ती पर ध्यान नहीं देता था पर जब उस कुत्ती को कुछ कुत्तों ने घायल किया और वह चल बसी |
तब उसे जिस सूखे कुए मे डाला गया था | उसमे वह कुत्ता ,उसके पास से एक पल के लिए भी नहीं हटा | उसने भी अपनी प्रियसी के साथ , वही अपने प्राण त्याग दिए |
उनका यह प्रेम देखकर नारबा के आंखों में आंसू आ गए | अब कुत्ती का बच्चा भी खाने के वक्त अपनी माँ की राह देखने लगा | उसको इस बात को एक्सेप्ट करने में वक्त लगा की उसकी माँ अब इस दुनिया में नहीं रही |
एक मुर्गा जिसे भगवान के नाम पर जिंदा छोड़ा गया था | नारबा ने उसे छोटे से बड़ा किया | उसे खिलाया – पिलाया , जंगली जानवरों से बचाया , बेकार मौसम से उसकी रक्षा की | अब वह मुर्गा पूरी तरह विकसित होकर अकेला ही खेती की रक्षा करने लगा |
वह कुत्तों से भी लड़ जाता था | इंसान तो उससे डर कर ही रहते थे | जब वह बांग देता था तो नारबा का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता था | ऐसे इस मुर्गे ने मालिक और उसके बच्चे को थोड़ी सी चोट क्या पहुंचाई तो उसके मालिक ने उसे काटकर सब्जी का इंतजाम किया |
मुर्गे की दावत सबको खिलाई गई और इसी तरह नारबा का गोठा की खाली होता चला गया जिसे देखकर नारबा के हृदय के टुकड़े-टुकड़े हो जाते थे | ऐसे में एक दिन नारबा के खेत पर ट्रैक्टर आया और उसके साथ उसका ड्राइवर भी …
वह नारबा के साथ नौकर जैसा बर्ताव करने लगा | इस पर नारबा और उसकी कहा – सुनी हो गई क्योंकि थे तो दोनों ही नौकर | इस पर चान्न्या बैल ने ड्राइवर के घुटने पर इतनी जोर से लात मारी कि वह दर्द से बिलबिला उठा |
उसने चान्न्या को खून निकलने तक मारा | अब नारबा से यह सब सहन नहीं हुआ और उसने ड्राइवर को हटाकर साइड में किया और फिर से जानवरों पर हाथ न उठाने के लिए धमकी भी दी | अब आप पढ़कर यह जानिए की नारबा के इस धमकी का उसपर क्या असर हुआ ?
उसके मालिक ने नारबा का साथ दिया या ड्राइवर का ? क्या हुआ नारबा और उसके बाकी बचे परिजनों का … पढ़कर जरूर जानिएगा | आखिर मे किताब एक शाश्वत सत्य बताती है कि इंसान और जानवर सबको एक दिन इस मिट्टी में ही मिल जाना है | चाहे इस धरती पर आप कितना भी धन जोड़कर रख लो |
नारबा का गोतावळा भी इसी मिट्टी मे मिल गया | पढ़कर जरूर जानिएगा नारबा और उसके परिजनों की कहानी | तब तक पढ़ते रहिए | खुशहाल रहीए | मिलते हैं और एक नई किताब के साथ | तब तक के लिए ….
धन्यवाद !!

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