अभिज्ञान शाकुंतल
कवि कालिदास
रिव्यू –
अभिज्ञान शाकुंतलम् यह संस्कृत का कालजई ग्रंथ है Read more जिसे लिखा है महाकवि कालिदास इन्होंने | यह एक नाटक के रूप में है जिसमें सात अंक है | यह संस्कृत साहित्य के साथ – साथ विश्व साहित्य का एक अत्यंत प्रसिद्ध और उत्कृष्ट नाटक है | इसमे हस्तिनापुर के महाराज दुष्यंत और शकुंतला के प्रेम, वियोग और पुनर्मिलन की मार्मिक कथा का वर्णन मिलता है |
कालिदास की रचनाएँ उनकी भावनाओं की गहरी समझ, प्रकृति के लिए प्रेम और अलंकार युक्त सीधी , सरल मधुर भाषा के लिए प्रसिद्ध हैं | उनकी रचनाए साहित्य के साथ-साथ ऐतिहासिक महत्त्व भी रखती है |
कालिदास का यह नाटक काव्य सौंदर्य और नाट्य कला का अद्भुत मिश्रण है | यह नाटक अपनी काव्यमय भाषा, सुंदर उपमाओं और अलंकारों के लिए ही प्रसिद्ध है | कालिदास ने इसमें प्रकृति, मानवीय भावनाओं और रिश्तों का अत्यंत सुंदर चित्रण किया है |
प्रस्तुत ग्रंथ के –
रचयिता है – कवि कालिदास
हिंदी रूपांतरकार है – विराज
पृष्ठ संख्या है – 112
प्रकाशक है – राजपाल एंड संस ,
उपलब्ध है – अमेजॉन और किंडल पर
अभिज्ञानशाकुंतलम् की मूल कथा का स्रोत महाभारत के आदिपर्व में वर्णित शकुंतला उपाख्यान है | कवि कालिदास ने अपनी कल्पना के बलबूते इसे एक अद्भुत और भावनात्मक रूप दिया है | इस कारण यह मूल कथा से कहीं अधिक आकर्षक और मार्मिक बन गई है |
आईए , अब कवि कालीदास के बारे मे कुछ जानकारी आप के साथ साझा करते है |
महाकवि कालिदास प्राचीन भारत के सबसे महान संस्कृत कवि और नाटककार थे | उन्हें भारतीय साहित्य का शिखर माना जाता है | उनके नाटक और कविताएँ मुख्य रूप से हिंदू पुराणों और दर्शन पर आधारित हैं | उनकी रचनाओं में भारतीय जीवन और दर्शन के विविध रूप और मूल तत्त्वों का समावेश है | अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण उन्हें “राष्ट्र कवि” का स्थान तक दिया गया है |
महाकवि कालिदास के जन्म स्थान और समय को लेकर विद्वानों में मतभेद है | कुछ विद्वानो के अनुसार वह उज्जैन के निवासी है क्योंकि उनके खंडकाव्य ‘मेघदूत’ में उज्जैन का विस्तृत वर्णन है | अगर आप “आषाढ़ का एक दिन” यह किताब पढ़ोगे तो उसमे भी उन्हे उज्जैन का ही निवासी बताया गया है | इस बुक का रिव्यू और सारांश भी हमारी वेबसाईट “सारांश बुक ब्लॉग” पर उपलब्ध है |
तो कुछ साहित्यकारों के मतानुसार उनका जन्म उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले के कविल्ठा गांव में हुआ था | उनकी कविताओं में हिमालय , गंगा नदी का भी वर्णन मिलता है | इसलिए उन्हे लगता है कि वे वहां के निवासी थे | प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व के अनुसार वह उज्जयिनी के राजा विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे, जिन्होंने 57 ईसा पूर्व में विक्रम संवत चलाया था |
ज्यादातर विद्वान उन्हें गुप्त काल से जोड़ते हैं | उनके मतानुसार यह गुप्त शासक चंद्रगुप्त द्वितीय जिन्होंने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की थी , के आश्रित कवि थे |
इनका शासनकाल चौथी शताब्दी मे माना जाता है | इतिहास इनके युग को “स्वर्ण युग” मानता है |
कहते है की कालिदास अपने प्रारंभिक जीवन में अनपढ़ और मूर्ख थे | उनका विवाह विद्योत्तमा नाम की राजकुमारी से हुआ था | वह एक विदुषी महिला थी | इसीलिए वह इनकी मूर्खता के कारण बार -बार इनका अपमान किया करती थी | इस अपमान से दुःखी होकर उन्होंने देवी काली की घोर तपस्या की | उनके आशीर्वाद से उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ | “कालिदास” नाम का अर्थ ही “काली का सेवक” होता है |
उनके द्वारा रचित बहुत सी रचनाओं के मंगलाचरण और आंतरिक वर्णन भगवान शिव को समर्पित होते हैं | इस कारण इतिहासकार उनके भगवान शिव का भक्त भी मानते है |
वह एक प्रसिद्ध कवि और नाटककार होने के साथ-साथ ज्योतिष के विशेषज्ञ भी थे | ‘उत्तर कालामृतम्’ नाम की ज्योतिष पुस्तिका का रचनाकार उन्हे माना जाता है | उनके द्वारा रचित किताबो मे शमिल है – विक्रमोर्वशी , मालविकाग्निमित्र , रघुवंश , कुमारसंभव , मेघदूत , ऋतुसंहार |
प्रस्तुत नाटक के हिन्दी रूपांतरकार ने बहुत लंबी चौड़ी भूमिका बांधी है | अभिज्ञानशाकुंतलम् का अनुवाद अनेक विदेशी भाषाओं में हो चुका है | यह विश्व साहित्य में एक उत्कृष्ट कृति के रूप में सराहा जाता है | जर्मन कवि “गेटे” ने अभिज्ञान शाकुंतल का अनुवाद जर्मन भाषा में पढ़ा था परंतु उसमें असली ग्रंथ का भाव आ पाना बहुत मुश्किल था फिर भी उसने इस ग्रंथ को सहृदयता का परिचय देते हुए , इसकी बहुत अच्छी आलोचना की |
इस आलोचना को इस नाटक का सही मूल्यांकन समझा जा सकता है | प्रस्तावना के बाद नाटक में उपयोग मे लाई गई शब्दावली है जिससे आपको नाटक समझने में आसानी होगी | उसके बाद नाटक के पात्रों का परिचय दिया गया है जो हम आप को सारांश के पहले बताएंगे ताकि आप को इसकी पृष्ठभूमि अच्छे से समझ मे आए |
महाकवि कालिदास ने वैसे तो अपने काव्य में अनेक रसों का उपयोग किया है लेकिन श्रृंगार रस सबसे ज्यादा उपयोग में लाया है क्योंकि वह प्रकृति के हर वस्तु में सुंदरता देखते थे | उन्हें वह जीवंत व्यक्ति जैसे ही लगती थी | जैसे की जब शकुंतला अपने ससुराल जाने लगती है तो उसके पिता कहते हैं की बेटी जिन लताओं और वृक्षों को तुमने लगाया , पानी डालकर सींचा | उनकी आज्ञा तो ले लो !
शकुंतला इतनी सुंदर और नाजुक थी कि फूलों पर मंडरानेवाले भंवरों को फूल और शकुंतला के मुख का फर्क ही समझ मे नहीं आता था | ऐसे कितने ही अलंकार और उपमाए इसमें उपयोग में लाई गई है | उस जमाने में जो वर्ण व्यवस्था थी उसका भी दर्शन होता है , साथ में स्त्रियों के लिए क्या मर्यादाएं लगाई गई थी | वह भी पता चलती है | आईए , अब जानते हैं इस नाटक का –
सारांश –
सारांश के पहले नाटक मे सम्मिलित पात्रो का परिचय जान लेते है |
नाटक के प्रमुख पात्र है महाराज दुष्यंत – यह हस्तिनापुर के वीर और पराक्रमी राजा है |
दूसरा पात्र है शकुंतला – यह ऋषि कण्व की पालिता पुत्री है | असलियत मे वह महर्षि विश्वामित्र और स्वर्ग की अप्सरा मेनका की पुत्री हैं | वह बहुत ही सीधी-सादी, प्रकृति से प्रेम करनेवाली और भावुक युवती है |
तीसरे है – ऋषि कण्व – वह कण्व आश्रम के कुलपति है |
अनसूया और प्रियंवदा – शकुंतला की दो सखियाँ है जो हर सुख-दुख में उसके साथ रहती हैं | उसमे से अनसूया गंभीर और विचारशील है तो प्रियंवदा चंचल और विनोदप्रिय है |
ऋषि दुर्वासा – यह एक अत्यंत क्रोधी ऋषि है जो सबको श्राप देने के लिए ही प्रसिद्ध है | हमारी वेबसाइट “सारांश बुक ब्लॉग” पर उपलब्ध माइथोलोजी की बहुत सी किताबो मे इनका जिक्र है | इन्ही के श्राप के कारण दुष्यंत शकुंतला को भूल जाते हैं |
सारंगरव, शारद्वत और गौतमी – कण्व आश्रम के अन्य प्रमुख पात्र है जो शकुंतला को दुष्यंत के पास ले जाते हैं |
मातलि – इंद्र का सारथी है |
मारीच ऋषि – जिस आश्रम में शकुंतला और भरत रहते हैं |
सर्वदमन उर्फ भरत – दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र है जिन्हे बाद में चक्रवर्ती सम्राट भरत के नाम से जाना गया | इन्ही के नाम से भारतभूमि का नाम “भारत” पड़ा |
पहले अंक मे – राजा दुष्यंत का प्रवेश कण्व ऋषि के आश्रम में होता है | वहाँ वह अनुपम सुंदरी और तपस्वी जीवन जीनेवाली शकुंतला को देखकर पहली बार में ही उससे प्रेम करने लगते हैं |
दूसरे अंक – मे वह आश्रम मे रहते हुए ही शकुंतला से अपने प्रेम का निवेदन करते है |
तीसरे अंक मे – वह दोनों गंधर्व विवाह कर लेते है | दुष्यंत अपनी पहचान के रूप में शकुंतला को एक अंगूठी देते हैं और राजधानी लौट जाते हैं | इस वादे के साथ की वह उसे जल्द ही लेने आएंगे |
चौथे अंक मे – ऋषि दुर्वासा के श्राप के कारण राजा शकुंतला को भूल जाते हैं | अनसूया और प्रियंवदा के आग्रह पर दुर्वासा श्राप में ढील देते हैं | कण्व ऋषि को जब ज्ञात होता है की शकुंतला माँ बननेवाली है | तब वह उसे उसके पती के घर भेजने का निश्चय करते हैं | इस अंक में शकुंतला की विदाई का अत्यंत ही मार्मिक वर्णन किया है |
पाँचवे अंक मे – सारंगरव, शारद्वत , गौतमी ,शकुंतला के साथ दुष्यंत के दरबार में पहुँचते है | श्राप के कारण दुष्यंत उसे पहचान नहीं पाते और उन्हे महल से बाहर कर देते है |
छठे अंक मे – राजा को शकुंतला की खोई हुई अंगूठी मिलती है | उन्हे सब याद आता है |
सातवे और आखिर कर अंक मे – राजा दुष्यंत , शकुंतला और भरत का पुनर्मिलाप बताया गया है |
इस प्रकार इसकी सुखद सांगता होती है | नाटक में पात्रों के मनोभावों का गहरा भावनात्मक चित्रण है जो पाठकों को भावुक कर देता है | स्पेशली शकुंतला की विदाई का वर्णन , यह अत्यंत ही हृदयस्पर्शी है |
आज भी बेटियों को विदा करते समय पिता की आँखों मे आँसू आ जाते है | तब तो यह कितना कठिन रहा होगा | जब बेटिया वर्षों बाद ही अपने मायकेवालों से मिल पाती थी | अभिज्ञानशाकुंतल भारतीय संस्कृति और साहित्य का एक अमूल्य रत्न है |
प्रेम, कर्तव्य, त्याग के मूल्यों से सराबोर दुष्यंत और शकुंतला की इस प्रेमकहानी को जरूर पढिए | इस पर आधारित टॉलीवुड मे हाल ही मे फिल्म भी बनी है | आप उसे भी देख सकते है | वह हिन्दी मे भी उपलब्ध है | फिल्म देखिए या फिर किताब पढिए | तब तक पढ़ते रहिए | खुशहाल रहिए | मिलते है और एक नई किताब के साथ | तब तक के लिए ….
धन्यवाद !!