भगवान कल्याणराय के आँसू और महाराजा
रूपसिंह राठौड़
डॉ. मोहनलाल गुप्ता द्वारा लिखित
रिव्यू –
महाराजा रूपसिंह Read more एक योद्धा होने के साथ ही भगवान कल्याणराय के अनन्य भक्त भी थे | उनका मन भगवान में इतना रम गया था कि उनकी आत्मा हमेशा उन तक पहुंचाना चाहती थी पर इस संसार का मायाजाल उन्हें हमेशा ही जकड़े रखता था | इसी आशय की कविता के बोल महाराजा रूपसिंह ने लिखे थे | लिखकर अपने भगवान को समर्पित किए थे और यही शब्द लेखक ने किताब की शुरुआत में दिए हैं |
प्रस्तुत कहानी 17 वीं शताब्दी की है | जब मुग़ल बादशाह शाहजहां गद्दी पर था | जब वह बुड्ढा हो चला तो उसके बेटों में उत्तराधिकार की लड़ाई छिड़ गई | इसमे महाराजा रूपसिंह की क्या भूमिका रही ? यही इस किताब में बताया गया है | इसके अलावा भगवान विष्णु के एक अनन्य भक्त के रूप में भी उनकी पहचान दी है |
वह किशनगढ़ जैसी छोटी सी रियासत के राजा होने पर भी मुगल दरबार में बड़ा रुतबा रखते थे | साथ ही संत ना होते हुए भी श्रेष्ठ भक्तों की श्रेणी में उनकी गणना होती थी | औरंगजेब के साथ आखिरी लड़ाई में उन्हें वीरगति प्राप्त हुई | तब बहुत जोर की बारिश हुई जैसे कि उनकी मृत्यु पर भगवान रो रहे हो |
उनकी मृत्यु के बाद उनकी नाबालिग और कोमल बेटी चारुलता ने खुद को और अपने छोटे भाई को औरंगजेब से कैसे बचाया होगा ? हालांकि , महाराजा रूपसिंह की मृत्यु तक की ही कहानी इसमें सम्मिलित है | राजकुमारी चारुलता के सामने भविष्य में सुरक्षितता का प्रश्न खड़ा है | इसी के साथ इस किताब की समाप्ति होती है |
इस किताब के –
लेखक है – डॉ. मोहनलाल गुप्ता
प्रकाशक है – शुभदा प्रकाशन
पृष्ठ संख्या है – 136
उपलब्ध है – अमेजॉन और किंडल पर
डॉ. मोहनलाल गुप्ता एक प्रसिद्ध लेखक और इतिहासकार है | उन्होंने एक राजनेता के रूप मे जयपुर के पहले मेयर का कार्य किया है | वे राजस्थान विधानसभा के सदस्य भी रहे हैं |
उन्होंने कई प्रसिद्ध पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें शामिल है |
1. प्राचीन भारत का इतिहास |
2. मध्यकालीन भारत का इतिहास |
3.आधुनिक भारत का इतिहास |
4. राजस्थान का इतिहास |
5. जालोर का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास |
6. राजस्थान के ऐतिहासिक दुर्ग |
7. कैसे बना था पाकिस्तान ?
8. सरदार वल्लभ भाई पटेल प्रेरक एवं रोचक प्रसंग
9. बीकानेर रियासत में कृषक असंतोष
10. तीसरा मुगल: जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर
11. दिल्ली सल्तनत की दर्द भरी दास्तान
12. बाबर के बेटों की दर्द भरी दास्तान
13. लाल किले की दर्द भरी दास्तान
14. भारत की लुप्त सभ्यताएँ
15. हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान
16. छत्रपति शिवाजी संघर्ष एवं उपलब्धियाँ
17. महाराजा सूरजमल का युग एवं प्रवृत्तियाँ
18. किशनगढ़ राज्य का इतिहास
19. ब्रिटिश शासन में राजपूताने की रोचक एवं ऐतिहासिक घटनाएँ
20. हल्दीघाटी का युद्ध और महाराणा प्रताप
21. युग निर्माता महाराजा सूरजमल
22. राजस्थान के प्राचीन दुर्ग (सिंधु सभ्यता से गुप्त काल तक)
23. अजमेर का वृहत् इतिहास
24. राजस्थान में बौद्ध स्मारक तथा मूर्तियाँ
25. राजस्थान में प्रतिहारों के दुर्ग
26. तुगलकों और खिजलियों को झुकानेवाला किला गागरोन
27. दर्शनीय अजमेर
28. ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत भारत में न्यायिक सुधार
29. आधुनिक राजस्थान के निर्माता : युग-पुरुष भैरोंसिंह शेखावत
30. सूर्य नगरी जोधपुर
31. राष्ट्रीय राजनीति में मेवाड़ का प्रभाव
32. नागौर का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास
33. राजस्थान में राजशाही का अंत
34. मुगलकालीन भारत का इतिहास (ईस्वी 1526 से 1765 तक)
संस्कृति और समाज: पर आधारित किताबे –
1. राजस्थान की पर्यावरणीय संस्कृति
2. राजस्थान ज्ञान कोश
3. राजस्थान में वन एवं वन्यजीवन
4. राजस्थान के संग्रहालय एवं अभिलेखागार
5. राजस्थान में आरक्षित जातियाँ
साहित्य (उपन्यास, लघु कथाएँ, नाटक, कविताएँ, व्यंग्य): मे शामिल है –
1. भगवान कल्याणराय के आँसू और महाराजा रूपसिंह राठौड़ (उपन्यास)
2. जालोर का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास (इतिहास पर आधारित किताब )
3. शेष यात्रा (लघु कथा संग्रह)
4. चित्रकूट का राही (नाटक)
5. सपनों का राजकुमार (नाटक संग्रह)
6. संघर्ष (उपन्यास)
7. पासवान गुलाबराय (ऐतिहासिक प्रेम कहानी पर आधारित उपन्यास)
8. मोहनजोदरो की नृत्यांगना (ऐतिहासिक उपन्यास)
9. अश्वत्थामा के आँसू (व्यंग्यात्मक नाटक)
10. नेताजी का ज्ञापन (व्यंग्य)
11. ऐलोपैथी से आलू मेथी तक (व्यंग्य संग्रह)
12. तीन औरतों की कहानियां
13. काठ का कबूतर
14. ट्रेन टू अमृतसर
उनके द्वारा लिखित अन्य किताबे है –
1. संस्कृति के स्वर (संस्कृत में लिखित)
2. भारत के महापुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल
3. युगनिर्माता सवाई जयसिंह
4. अध्यात्म विज्ञान पुराण
5. भारतीय ज्योतिष एवं काल गणना का इतिहास
6. भारत की सभ्यता एवं संस्कृति का इतिहास
7. भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या एवं हिन्दू प्रतिरोध का इतिहास
8. पुराणों की कथाएँ
9. सृष्टि निर्माण की कथाएँ
10. इक्ष्वाकु राजाओं की कथाएँ
11. चंद्रवंशी राजाओं की कथाएँ
12. चाणक्य की शपथ (हिन्दी नाटक)
13. भारत के मुगलकालीन प्रमुख भवन
14. युग निर्माता राव जोधा
यह लिस्ट और लंबी हो सकती है | उसके लिए आप अमेज़न और गूगल पर सर्च कर सकते है |
उन्होंने राजस्थान के इतिहास पर कई शोध पत्र और पुस्तकें लिखी हैं | साथ ही साथ राजस्थान की संस्कृति को बढ़ावा दिया है | इसके तहत उन्होंने कई सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया है |
डॉ. मोहनलाल गुप्ता को उनके साहित्यिक और ऐतिहासिक कार्यों के लिए कई प्रतिष्ठित पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए है | अब किताब के विषय पर वापिस आते है |
अकबर जब गद्दी पर आया तब राजस्थान में 11 रियासतें थी | इन सब पर चौहानों का राज था | चौहान राजपूत होते थे | राजपूत द्वारा शासित प्रदेशो को मुगल शासक राजपूताना कहते थे | इस राजपूताने के राजकुमारों में ,मुगलों ने फुट डालो और राज करो की नीति अपनाई | प्रस्तुत किताब मे किशनगढ़ राज्य के राजा रूपसिंह राठौड की बात बताई गई है |
किशनगढ़ रियासत सिर्फ 858 वर्गमील क्षेत्रफलवाली रियासत थी जो जोधपुर और जयपुर के मध्य स्थित थी | यह दोनों बहुत बड़ी रियासतें थी | इतनी बड़ी रियासतों के बीच इतनी छोटी सी रियासत को सुरक्षित रख पाना किशनगढ़ राजाओं के लिए असंभव था |
इसीलिए उन्होंने मुगलों से गहेरी मित्रता कर ली पर इसके लिए उन्होंने वह रास्ता नहीं अपनाया जो बाकी राजपूतो ने अपनाया था | उन्होंने अपनी एक भी बेटी या बहन की शादी मुगलों से नहीं करवाई थी |
उन्होंने अपनी बहादुरी और तलवार के जोर पर मुगलों की मित्रता हासिल की थी | जैसा कि हमने पहले बताया शाहजहां के समय किशनगढ़ के राजा रूपसिंह थे | वह भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे | वह वचन के पक्के, तलवार के धनी और अदम्य साहस के स्वामी थे |
बीकानेर के महाराजा कर्णसिंह , जोधपुर के राजा जसवंतसिंह और किशनगढ़ के राजा रूपसिंह शाहजहां के अच्छे मित्रों की श्रेणी में आते थे | शाहजहाँ का चहेता उसका बड़ा बेटा दारा शिकोह था | दारा शिकोह के अच्छे स्वभाव और व्यवहार के कारण यह लोग भी इसी का समर्थन करते थे |
इसीलिए औरंगज़ेब इन सब से नफरत करता था | उसके इसी नफरत ने इन सबको दुर्भाग्य के सागर में डुबो दिया | यही इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है | जीवनभर शाहजहां ने महाराजा रूपसिंह को भयानक उज्बेको और ईरानीयो के साथ युद्ध मे उलझाए रखा |
फिर भी शाहजहां के आखिरी दिनों में जब उसके बेटों में उत्तराधिकार के लिए झगडे होने लगे तो यही रूपसिंह उसके पास रहे | यही एक मात्र विश्वासू व्यक्ति शाहजहाँ के पास था | इनकी ही सुरक्षा में शाहजहां ने अपनी राजधानी और अपने बेटे दारा शिकोह को छोड़ा था |
वर्तमान समय में महाराज रूपसिंह की कहानी लगभग लोग भूल ही चुके हैं या बहुतों को पता ही नहीं | प्रस्तुत किताब मे भारतीय इतिहास के इस योद्धा नायक को उनके वास्तविक जीवन प्रसंगों के आधार पर याद करने की कोशिश की गई है |
गुमनामी के अंधेरे में गूम इस महाराजा की कहानी लोगों को पता चले | इसी का प्रयास लेखक ने यहां किया है | आशा करते है | लेखक इसमें सफल रहे |
सारांश –
हुमायूं की असमय मृत्यु के कारण उसका 13 साल का बेटा अकबर बादशाह बना | उसका संरक्षक बैरम खां था | हुमायूं के भाई जीवनभर उसके साथ लड़ते रहे जबकि वह उन्हें संभालता रहा | अपने ही लोगों द्वारा रचे गए षडयंत्रों , कुचक्रों से अकबर यह समझ गया कि वह काकशाल तुर्क अमीरों के भरोसे अपने साम्राज्य को स्थाई नहीं बना सकता |
इसलिए उसने अपना और मुगल शहजादो का विवाह विभिन्न राजवंशों की हिंदू राजकुमारीयो से करने की नीति अपनाई | इस नीती के कारण उसे जीवनभर राजपूतों का समर्पण मिला | उसने मुगल शहजादियों के विवाह पर बंदी लगा दी | क्यों ?
इसका स्पष्टीकरण जानने के लिए आप लाल किला इस किताब का रिव्यू पढे | अब बात करते है शाहेजादीयों की तो उनको लगा अब जीवनभर तो उनको यही रहना है | इसीलिए अब वह भी शहजादों की तरह राजनीति में ध्यान देने लगी |
अकबर और आमेर की राजकुमारी हीराकंवर का बेटा सलीम था | इसके सारे भाई काल का ग्रास बन चुके थे | यह अकेला ही गद्दी का वारिस था फिर भी इसने वक्त से पहले बादशाह बनने के लिए अपने पिता अकबर से बगावत की |
अकबर ने अपने आखिरी दिनों में इसे ही बादशाह घोषित किया | यह जहांगीर के नाम से तख्त पर बैठा | इसकी भी बहुत सी राजपूत कुमारियों के साथ शादी हुई | इसी में से एक थी राठौडो की राजकुमारी जगत गूसाई | इसका रुतबा नूरजहां के बराबर था |
इसी का दूसरा नाम जोधाबाई भी था | जोधपुर की राजकुमारी होने के कारण इसे जोधाबाई कहा जाता है | इसी जोधाबाई और जहांगीर का बेटा खुर्रम था जो आगे चलकर शाहजहां के नाम से गद्दी पर बैठा |
यह जोधाबाई जोधपुर के राजा उदयसिंह की पुत्री थी | इसके 16 भाई थे | पिता की मृत्यु के बाद इसका बड़ा भाई सूरसिंह जोधपुर का राजा बना | जोधाबाई का 15 वे नंबर का भाई किशनसिंह था | यह कहानी किशनसिंह द्वारा किशनगढ़ राज्य की स्थापना और उसके वंशजो की है | साथ मे उसकी बहन जोधाबाई के वंशजों की भी ..
किशनसिंह का अपने भाइयों के साथ मनमुटाव हो गया | इसीलिए वह अपनी जागीर छोड़कर अकबर की सेवा में चला गया | यह एक बहादुर युवक था | अपनी बहादुरी और पराक्रम से वह उन्नति की सीढ़ियां चढ़ने लगा | अब जहांगीर का शासन शुरू हो चुका था | इसके शासन काल मे किशनसिंह ने 1611 में अपनी स्वतंत्र जागीर स्थापित कर ली | किशनगढ़ जागीर का इतिहास हम इसके बाद आनेवाली किताब में देखेंगे |
यहां जहांगीर के बाद खुर्रम की बादशाह बनने की राजनीति बताई गई है जिसमें नूरजहां का , उसके भाई का क्या रोल रहा ? यह आप यहां पढ़ पाओगे | खुर्रम के बड़े भाई के बेटे दावर बख्श को खुर्रम और आसफ खान ने कैसे बली का बकरा बनाया | यह भी आपको यहाँ पढ़ने को मिलेगा |
रूपसिंह राठौर का उदय शाहजहाँ के ही काल में हुआ और अंत औरंगजेब का अंत करने के चक्कर में .. मुगलों का इतिहास पढ़कर एक बात तो तीव्रता से समझ में आती है कि इनमें मानवीय रिश्ते न के बराबर थे या थे ही नहीं | यह शायद उनके रिश्तों की ही विटंबना है की एक पिता अपने बेटे को मरवा देता था जबकि उसने उसका संरक्षण करना चाहिए |
भाई-भाई को मरवा देता था | तख्त के लिए पुत्र बुढ़ापे में पिता को कारागार में डलवा देते थे जबकि इस पड़ाव पर उन्होंने पिता की सेवा करनी चाहिए | बहन भाई-भाई में फर्क करती थी |
और इधर हिंदू राजपूतो में पिता या बड़े भाई के होते हुए छोटे सिंहासन की तरफ आंख उठाकर तक देखते नहीं थे | रूपसिंह 16 साल की उम्र में ही उज्बेको के साथ लड़ रहे थे | वह इसी उम्र में किशनगढ़ के महाराज बने | महाराज को उज्बेको का झंडा बहुत पसंद आया | इसी को उन्होंने किशनगढ़ का झंडा बनाया और नाम दिया “श्याम ,सुंदर ,लाल” |
बलख और बदखशां की पहाड़ियों में अपना पराक्रम दिखाकर महाराज दिल्ली लौटे | मुग़लों की सेवा करनेवाले राजपूत राजाओं को अपनी जागीर में रहने के लिए बादशाह की परमिशन लेनी होती थी | छुट्टियां मिलने पर ही वह कुछ दिनों के लिए अपनी राजधानी में रह सकते थे | बाकी वक्त उनको किसी न किसी मोर्चे पर ही रहना होता था |
किसी भी मोर्चे पर एक हिंदू और एक मुगल सरदार होता था ताकि दोनों मे से कोई भी बगावत न कर सके | बलख – बदखशां के पराक्रम के ऐवज मे शाहजहाँ ने उन्हे दुर्लभ चित्रों में शामिल भगवान वल्लभाचार्य का चित्र दिया जो शाहजहां के ख्वाबगाह में पीढ़ियों से शोभा बढ़ा रहा था |
शाहजहां ने फिर से एक बार महाराज को बलख – बदखशां की भयानक पहाड़ियों में खतरनाक उज्बेको और ईरानियो के साथ लड़ने के लिए भेजा | हालांकि , यह प्रदेश उन्ही का था | बाबर और उसके पूर्वज समरकंद , ताशकंद और बुखारा के शासक थे |
यह सब प्रदेश एक दूसरे की सीमा पर स्थित थे | इसीलिए उज्बेको और चगताई तुर्कों में सदियों से दुश्मनी थी | बाबर , अकबर , हुमायूं , जहांगीर ने समरकंद पर सत्ता स्थापित करनी चाही पर नाकामयाब रहे | शाहजहाँ भी इसी प्रयत्न में था | देखा जाए तो यह उसके लिए घाटे का सौदा था फिर भी यहाँ सवाल उसकी साख का था |
इसीलिए वह इसे जारी रखे हुए था | महाराज रूपसिंह इन जैसे प्रदेशों में युद्ध करने के लिए माहिर थे | इसीलिए उन्हें ही बार-बार यहाँ भेजा जाता था | एक बार औरंगजेब इस अभियान में उनके साथ था | दूसरे में दारा – शिकोह | अकेला औरंगजेब वहाँ के बादशाह मोहम्मद खां से अपमानजनक संधि कर के लौटा था |
अब इस लड़ाई में फारस के बादशाह शाह अब्बास का क्या रोल रहा ? यह आप किताब मे ही पढ़ लीजिएगा | मुग़ल शहजादियां राजनीति में हिस्सा लेने लगी | षड्यंत्र भी करने लगी | एक-एक शहजादी ने अपने पसंद का भाई भी चुन लिया | उसके बादशाह बनने के लिए वह प्रार्थना भी करने लगी | वह महल की एक-एक ख़बर उन तक पहुंचाती थी ताकि उनका भाई अपनी अगली चाल चल सके |
तब के काल मे किसी भी शहजादे को किले में रहने नहीं दिया जाता था | एक बार बादशाह बहुत बीमार पड़ा | उसके बीमार पड़ते ही महल में अलग-अलग अफवाये उड़ने लगी | सब शहजादियों ने अपने-अपने भाइयों को अलर्ट कर दिया |
सब तख्ते – ताऊस , कोहिनूर हीरा और लाल किले पर कब्जा करने के लिए प्रयत्न करने लगे | इसी दरम्यान महाराजा रूपसिंह ने भगवान वल्लभाचार्य की फोटो कॉपी बादशाह के लिए लायी और पहुंचे हुए संत की भभूत भी ….
बीमार बादशाह चमत्कारिक रूप से ठीक हो गया | उसके बाद उसने आनेवाली ईद बड़ी तैयारी के साथ मनाने का ऐलान किया | ईद के दिन उसकी हाथी पर बैठकर आलीशान सवारी निकलती | उसकी सवारी जिस जिस अमीर , उमराव और हिंदू सरदार की हवेली के सामने से निकलती | वह सरदार अपनी हवेली के बाहर आकर बादशाह का इस्तकबाल करता |
बादशाह को ईद की न्योछावर पेश करता | राजधानी दिल्ली में महाराज रूप सिंह की भी हवेली पड़ती थी | इस बार तो महाराज खुद हवेली में मौजूद थे तो उन्हें ही यह रस्म निभानी थी | महाराज रोज भगवान कल्याणरायजी की सेवा और पूजा किया करते थे |
उस दिन उनका ध्यान भगवान में ऐसा रमा की वह अपनी सुध – बुध को बैठे | यहां तक की बादशाह की सवारी आने का भी वक्त हो गया फिर भी उनकी समाधि नहीं टूटी | सारे सेवक चिंतित हो गए पर महाराज है की पूजा घर से बाहर निकलने का नाम ही नहीं ले रहे थे |
आखिर में स्वयं महाराज ही हड़बड़ाते हुए बाहर निकले | पहले से ही तैयार थाल हाथ में ली और द्वार पर पहुंच गए | उन्होंने बादशाह को पूरी तरह कमर झुकाकर सलाम किया | उस दिन बादशाह को महाराज कुछ विशेष नजर आए |
उनकी सज – धज देखकर बादशाह को बहुत अच्छा लगा | आज महाराज को देखकर जो सुकून बादशाह को मिला | उसका अनुभव उसे और कहीं नहीं हुआ | बादशाह जब वापसी मे फिर से महाराज की हवेली के आगे आया तब फिर से महाराज ने न्योछावर की थाली अर्पित की |
बादशाह , महाराज की इन चेष्टाओ को देखकर हैरान था | वही बादशाह की बात सुनकर महाराज हैरान थे | वह कुछ देर हवेली के बाहर रुक कर सोचने लगे | सेवक से बात करके उन्हें समझ में आया कि भगवान कल्याणराय ने खुद उनका रूप धरकर बादशाह को न्योछावर की थाल अर्पित की थी |
जैसे ही उनको इस बात का पता चला | वह दुःख और ग्लानि से भर गए | समस्त संसार के भगवान का , उनके खातिर एक म्लेच्छ बादशाह के सामने झुकना | उनको मंजूर न था | वह रो रहे थे | बेहोश हो रहे थे | खाना – पीना छोड़ दिया था | उन्होंने अन्न – जल छोड़ा तो रानियो ने भी छोडा |
मालिक और मालकिन ही भूखे हैं तो सेवक कैसे खा पाएंगे ? पूरे हवेली का माहौल ग़म मे डूब गया | ऐसे 5 दिन बीते | आखिर भगवान कल्याणराय ने महाराज को साक्षात दर्शन दिए और उन्हें स्थिति से उबारा | बाद में महाराज ने भगवान कल्याणराय की इस मूर्ति को मांगलगढ़ में स्थापित किया |
इधर बादशाह शाहजहां चाहता था कि वह अपने आखिरी दिन कश्मीर में बिताए | यह शायद यह उसके नसीब में नहीं था | इसीलिए वह अपनी बचपन की यादों को ताजा करने के लिए आगरा चला गया | शाहजहाँ की प्रिय पत्नी मुमताज महल थी जो नूरजहां के भाई आसफ़ खां की बेटी थी |
इसी की याद में शाहजहां ने ताजमहल बनवाया था | इसी का बेटा औरंगजेब था | शाहजहां की यह तीसरी बेगम थी और बेइंतेहा खूबसूरत थी जैसे कि उसकी बुआ नूरजहां | वह भी अपनी खूबसूरती के लिए इतिहास में प्रसिद्ध है | शाहजहां अपने आखिरी दिनों में ताजमहल के पास रहना चाहता था |
शाहजहां ने बहुत पहले जान लिया था कि उसके बेटे उसकी बादशाहत और तख्त के लालची है | उनमें से दारा शिकोह अच्छे स्वभाव का था | वह हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्मों को साथ लेकर चलता था | वह एक अच्छा शासक हो सकता था | शाहजहां ने उसे वली – ए – अहद याने युवराज का पद दिया था |
दारा शिकोह के संपूर्ण चरित्र के बारे में आप प्रस्तुत उपन्यास में जान पाओगे | जब बादशाह बीमार पड़ा तो उसके बेटों में मुगल सल्तनत के लिए खूनी जंग शुरू हो गई | सब ने अपनी-अपनी बिसात बिछा दी |
दारा शिकोह को पूरी जिंदगी राजधानी में ही रहने के कारण युद्ध का अनुभव नहीं था | वह सिर्फ राजनीति कर सकता था | औरंगज़ेब इन सब मामलों में सबसे आगे था | शाहजहां ने अपने बुरे दिनों में दारा शिकोह और राजमहल का संरक्षक महाराजा रूपसिंह को नियुक्त किया था |
औरंगजेब और दारा शिकोह की सेना शामूगढ़ के मैदान में आमने-सामने आ गई | महाराज दारा शिकोह की तरफ से लड़ रहे थे | इस लड़ाई में महाराज रूपसिंह अकेले ही औरंगजेब के हाथी पर रखी अंबारी की रस्सियाँ काट रहे थे |
उस समय दारा ने थोड़ी भी बहादुरी दिखाई होती तो औरंगजेब उसी क्षण खत्म हो गया होता | तो आज भारत का इतिहास दूसरा होता | भारत जैसे महान देश को औरंगजेब जैसे धूर्त और मानवता के शत्रु बादशाह का 49 वर्षों का लंबा दुर्भाग्यपूर्ण शासन नहीं झेलना पड़ता |
खैर , औरंगजेब के भाग्य के सितारे बुलंद थे | भाग्य के आगे किसी का बस नहीं | भगवान के आगे किसी का बस नहीं | इतिहास प्रेमियों ने यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए | तब तक पढ़ते रहिए | खुशहाल रहिए | मिलते हैं और एक नई किताब के साथ | तब तक के लिए ….
धन्यवाद !!
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