रिव्यू –
जानिए रावण के ब्रीद वाक्य – वयं रक्षामः के बारे में – याने के हम रक्षा करेंगे |
वयं रक्षामः यह आचार्य चतुरसेन द्वारा लिखा एक कालजयी उपन्यास है जिसमे उन्होंने रावण के चरित्र को श्रेष्ठ व्यक्ति के तौर पर दिखाया है | इसमे रावण के जीवन के हर एक पहलू को बहुत बारीकी से बताया गया है | जो हमे रावण के बारे मे और ज्यादा जानने की जिज्ञासा के करीब लेकर जाती है | किताब बहुत ही अच्छे से लिखी गई है जो पाठकों को अंत तक बांधे रखती है और बीच बीच मे नई – नई जानकारियाँ हतप्रभ कर देती है जो हमे वर्तमानकाल से सीधे प्रचिनकाल मे लेकर जाती है | रावण से इतने पास से रूबरू करनेवाली इस किताब के
प्रकाशक है – राजपाल एंड संस
पृष्ठ संख्या – 416
उपलब्ध – किनडल
जिसमे उन्होंने अपने अध्ययन का पूरा सार दिया है | इसमें पुरे 127 अध्याय है | इसमें संकृत भाषा का भी उपयोग हुआ है | एक तो पूरा अध्याय ही संस्कृत में है | हिंदी भी पूरी शुद्ध और कठिन टाइप की है | लेकिन उपन्यास जरूर पढियेगा , नहीं तो आप बहुत कुछ मिस कर जाओगे | उपन्यास है तो 416 पेज का पर इसमें इतनी जानकारी समेटे हुए है की इसमें से अलग – अलग उपन्यास लिखने की बारी आए तो चार – पांच उपन्यास लिखकर हो जाये | शायद इसीलिए यह उपन्यास पढ़ने के लिए हमें इतना वक्त लगा की बीच में कोई ब्लॉग दे ही नहीं पाए | यह किताब ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी |
बहेर्हाल , एक बार का यह उपन्यास ख़त्म कर दिया है और इसका सारांश और रिव्यु आप के लिए लेकर आये है | और एक बात , यह उपन्यास इतिहासकारों के लिए विशेष महत्व रखेगा क्योंकि धरती पर अधिकांश वंश कैसे निर्मित हुए और उनकी वंशावली की जानकारी यहाँ दी गई है | जैसे की श्रीराम इश्वाकू वंश के ३९ वी पीढ़ी में जन्मे तो उनके पहले उस पीढ़ी में कौन हुए ? इश्वाकू वंश की शुरुवात कहाँ से हुई ? यह उस काल की कहानी है जब देव , दैत्य , दानव ,यक्ष , नाग , गन्धर्व धरती पर बसा करते थे | प्रस्तुत उपन्यास में लेखक ने उन लोगो को नर रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की है जिन्हें हम अंतरिक्ष और स्वर्ग के देवता के रूप में जानते है | जिनका उल्लेख पुरानो में जादुई लोगो के रूप में हुआ है |
हमें पता है इंद्र स्वर्ग के देवता है लेकिन इंद्र कोई नाम नहीं बल्कि एक उपाधि है जी देवो के मुखिया को दी जाती है | वैसे ही धरती पर बसे उर नाम के प्रदेश जिसे अभी किसी और नाम से जाना जाता है | वहां की लडकिया बहुत सुन्दर हुआ करती इसलिए उन्हें उर्वशी कहा जाता | तो इंद्र लोक की उर्वशी इसी उर प्रदेश की थी | देवो के ऐसे बहुत से इन्द्र हुए | ऐसे ही एक इंद्र जिसका नाम पुलंदर था उन्होंने श्रीराम चन्द्र की रावण के साथ हो रहे युद्ध में मदद की थी | सम्पूर्ण पृथ्वी पर स्थित कुछ – कुछ ऐसी चीजे है जिनके बारे में असलियत जानकार आप हैरान हो जाओगे | जैसे भगवान शिव का कैलाश धरती पर स्थित है , रावण की लंका धरती पर स्थित है वैसे ही भगवान् विष्णु का क्षीरसागर , इंद्र की अमरावती ,यमदेव का मृत्युलोक यह सब भी धरती पर ही स्थित है |
बस अभी उन्हें किसी और नाम से जाना जाता है | वह नाम कौनसे है ? वह इस उपन्यास में दिए गए है | सत्यव्रत मनु ने पूरी पृथ्वी के राज्य को अपने पुत्रो में बाँट दिया | उनके बच्चो ने बाद में अलग – अलग वंश स्थापित किये | उन्ही के वंशजो को पूरी पृथ्वी के लोग अलग – अलग जगहों पर अलग – अलग नामो से जानते है | सत्यव्रत मनु तथा उनके पुरे परिवार को जिस मत्स्य जाती ने बचाया था | वह भी धरती पर ही निवास करती थी | मनु ने सुर्यवंश स्थापित किया तो उनके दामाद बुध ने चन्द्रवंश की | जब भी हम महाभारत का टेलीकास्ट देखते थे | वहां लिखकर आता था | “हस्तिनापुर आर्यावर्त” अब यह आर्य कौन थे ? उनका वंश कैसे निर्मित हुआ ? इनके वंशावली की जानकारी भी यहाँ है |
आर्यो के नियम अलग थे | वे यज्ञ किया करते | विवाह संस्था की स्थापना भी उन्होंने ही की थी | इसी के साथ यहाँ पुरुषप्रधान संस्कृति का उदय हुआ | जिसमे स्त्री को कोई महत्व नहीं मिला | वह सिर्फ एक प्रजनन की वस्तु भर रह गयी | ना उसे पिता के घर में कोई अधिकार मिला , ना पति के घर में | इसीलिए शायद वह पति के मरने के बाद सती हो जाती क्योंकि उसके पास जीवन यापन का कोई साधन ही नहीं रहता था | आर्यों में पुरुष ने अपने को सर्वोपरि कर लिया |
उस ज़माने में भी वशिष्ठ और विश्वामित्र इनमे राजनीति और कूटनीति चलती रही | इन दोनों के वंश की जानकारी यहाँ है | श्रीराम , लक्ष्मण , भरत , शत्रुघ्न इन चारो के आठ पुत्र हुए | इन आठो ने अलग – अलग राज्य स्थापित किये | इनमे से हर एक की वंशावली आप को यहाँ मिल जायेगी | हमें लगता है बहुत सारे लोग इसमें रूचि रखते है | तो जो रूचि रखते है वह यह उपन्यास जरूर पढ़े | बापरे………….!!!!! देखते – देखते रिव्यु इतना बड़ा हो गया | फिर भी ऐसे लगता है इसमें बहुत कुछ है बताने के लिए , लेकिन छोड़ देते है | आप को उपन्यास पढ़ना भी तो है | इसी के साथ लेखक की जानकारी भी हम अगले ब्लॉग में देंगे और एक नई किताब के साथ……
इतना आप जान लीजिये की लेखक को आचार्य की पदवी उनके अभ्यास के कारण मिली है | उनके नाम में ही आचार्य सम्मिलित नहीं है | उन्होंने “वैशाली की नगरवधू” यह उपन्यास लिखने के लिए दस साल तक बौद्ध धर्म का अभ्यास किया था | इसी से आप जानिए की वह कितने प्रतिभाशाली है | उपन्यास में लेखक ने जो प्रस्तावना दी है | उसे आप उपन्यास पढ़ने के पहले एक बार जरूर पढ़िए | चलिए तो इसी के साथ देखते है इसका सारांश ——
सारांश –
यह कहानी किशोरवयीन रावण से शुरू होती है जो लंका का राजा नहीं है | सातो द्वीपों का स्वामी नहीं है | वह अभी सिर्फ कुछ राक्षस ,अपने नाना सुमाली और मामा के साथ लंका , उसके आस पास के गाँव और द्वीपों को जय करने के लिए निकला है | राक्षसों में मातृसत्ताक पद्धति चलती थी | इसीलिए रावण पर उसके नाना और मामा के राक्षस संस्कार थे | पहले लंका रावण के नाना सुमाली की थी | किसी युद्ध में हार जाने के कारण वह लंका लौटा नहीं तो लंका उजाड़ पड़ी रही | फिर देवताओ ने इसे यक्षराज कुबेर को दे दी | रावण ने कुबेर से छीन ली | रावण बहुत पराक्रमी और साहसी था | वह अपना परशु कंधे पर डाल अकेला ही किसी राज्य में घुस जाता | वहां के राजा को युद्ध के लिए ललकारता |
युध्द में अगर जीता तो वह राज्य उसका हो जाता अगर युध्द में बंदी हो जाता उसका नाना सुमाली , उस राजा को बहुत सा धन देकर उसे छुड़ा लेता | इन दो परिस्थितियों के अलावा वह प्रबल राजाओ से अग्नि की साक्षी में मित्रता करता | रावण राक्षस धर्म को मानता था और चाहता था की पृथ्वी पर जितनी भी जातीया है जैसे यक्ष , देव , दानव , नाग , गरुड़ इ. यह सब राक्षस धर्म के छत्र के निचे आकर एक हो जाये | फिर वह अपने धर्म से खुश ही क्यों न हो ?
अलग – अलग जातियों के झगड़ो के कारण बारह देवासुर संग्राम हो चुके थे | जिनकी वजह से बहुत हानि हो चुकी थी | राक्षस धर्म को स्वीकारने के लिए रावण का एक ही नारा था | “ वयं रक्षामः ” मतलब हम रक्षा करेंगे लेकिन रावण उनकी रक्षा करता था जो राक्षस धर्म स्वीकार करता है और उनका तुरंत ही शिरच्छेद कर देता था जो यह धर्म स्वीकार नहीं करते |
रावण एक स्त्री – लोलुप व्यक्ति था | इसी कारण उसका नाश हुआ और साथ में अपने परिवार को ले डूबा | वह साहसी , पराक्रमी , ओज और तेज से ओतप्रोत था | उसके बहुत सी महिलाओ से सम्बन्ध रहे | उन सब के बारे में आप एक एक कर के जान पाओगे |
अध्याय ७५ है “राम” और यही से राम और सीता के जीवन सी जुडी घटनाये पढ़ने को मिलती है | बीच – बीच में रावण के लंका में होनेवाली घटनाओ का भी विवरण है | तील – तंदुल अध्याय में रावण के पहले प्रेम का जिक्र है | बाद में क्रमशः लंका की महिषी मंदोदरी और चित्रांगदा इनका है | इनके आलावा देव, दैत्य, दानव , यक्ष , गन्धर्व , नर , नागराजो की भी सुन्दर और सुकुमारी बेटिया भी रावण की पत्नियाँ थी | प्रस्तुत उपन्यास के आधार पर अगर कहा जाये तो रावण के कालखंड में लंका में श्रीसमृद्धि पानी भरती थी |
लंका नगरी के वैभव के बारे में सुनकर तो आप हैरान हो जाओगे | इसी के साथ वहां हर चीज की सुव्यवस्था का भी बोलबाला था | रावण , उसका पुत्र मेघनाथ जो शस्त्रों के साथ एक अजेय योद्धा था | कुम्भकर्ण , उसके दो बेटे कुम्भ और निकुम्भ इसके साथ – साथ और भी महारथी थे जिनके नाम सुनकर ही धरती पर बसी सारी प्रजातीया घबरा जाती थी | रावण न सिर्फ लंका का बल्कि उसके आस – पास के सात द्वीपों का भी स्वामी था |
जिस समय राम ने रावण का वध किया तब रावण पृथ्वी का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति था | रावण के मरने के बाद बिभीषण लंका का राजा बना | यह तो सब जानते है लेकिन इसके बाद क्या हुआ ? क्या आप को पता है | युद्ध के बाद लंका में बची विधवाए , बच्चे , बूढ़े बिभीषण को तिरस्कार की दृष्टी से देखने लगे | उसे उन लोगो ने अपना राजा कभी स्वीकार नहीं किया | इस कारण उसकी जल्दी ही मौत हो गई |
मंदोदरी ने बिभीषण की पत्नी बनना स्वीकार किया | बिभीषण और उसके वंशज कमजोर निकले | उनका राज्य सिर्फ श्रीलंका बेट तक ही सिमित रहा | सब जानते है की रावण परम शिवभक्त था | उनकी कृपा के कारण रावण पुत्र मेघनाथ को तरह – तरह की सिद्धिया मिली थी | जिसकारण वह अजेय योद्धा बन चूका था | इसकी पत्नी सुलोचना के बारे में जरूर पढि येगा | अशोकवन का नाम तो आप ने सुना ही होगा जहाँ सीता माता को रखा गया था | क्या आप को पता है वह कितने एकड़ में फैला हुआ था ? वहां कौन – कौन सी सुखा सुविधाए मौजूद थी | नहीं…… तो यह उपन्यास जरूर पढ़े |
हमने रामायण के टेलीकास्ट में बहुत साड़ी घटनाओ को जादू के रूप में होते देखा | यह बड़ा ही मजेदार होता है जब कोई लेखक उन्ही घटनाओ को वास्तविकता की पृष्ठभूमि लेकर लिखता है | इसमें हमें बड़ी जिज्ञासा होती है लेखक उन घटनाओ को किस तरह बताएँगे | जैसे की हमें पता है की हनुमानजी ने समंदर उड़कर पार कर लिया था लेकिन उपन्यास में लेखक ने यह लिखा है की हनुमानजी के पास इतनी शक्ति थी की वह बहुत दूर तक तैर सकते थे |
वह कुछ दूर तक तैरते फिर थोडा आराम करते , द्वीपों पर मौजूद कंद मूल खाकर अपनी भूख मिटाते और फिर तैरने निकल पड़ते | यह सब पढ़ना बड़ा ही मजेदार लगता है | साथ में मन में यह जिज्ञासा भी होती है की सच क्या है ? यह की, पुरानो में लिखी बाते | क्योंकि , हमने न्यूज़ में तो सुना था की श्रीराम द्वारा बनाया गया पूल समंदर में दिखाई दे रहा है | ऐसे ही कई घटनाओ का वर्णन यहाँ है | यह उपन्यास बहुत ही उम्दा है | इसे जरूर पढ़िए | आप के ज्ञान में बहुत वृद्धि होगी | यह हमारा आप से वादा है |
धन्यवाद !!!
Wish you happy reading…………
FAQs about this book –
- वयं रक्षामः का हिन्दी मे अर्थ क्या है ?
- उत्तर – वयं रक्षामः का हिन्दी मे अर्थ हम रक्षा करेंगे होता है |
2. वयं रक्षामः किसकी रचना है ?
उत्तर – यह आचार्य चतुरसेन की रचना है
3. आचार्य चतुरसेन का जन्म कब हुआ ?
उत्तर – इनका जन्म 26 August 1891 को उत्तरप्रदेश के सिकंदराबाद के एक छोटे से गाँव मे हुआ |