मराठ्यांचे स्वातंत्र्ययुद्ध
जयसिंगराव पवार द्वारा लिखित
रिव्यू –
लेखक के अनुसार युद्ध के दो प्रकार होते हैं | एक – स्वातंत्र्य निर्माण के लिए और दूसरा उसका रक्षण करने के लिए | शिवाजी महाराज द्वारा किया युद्ध स्वतंत्रता निर्माण के लिए था तो उनके वंशजों को उसकी रक्षा के लिए युद्ध नीति और राजनीति की पराकाष्ठा करनी पड़ी | मराठी इतिहास के भाष्यकार और इतिहासकार सुप्रसिद्ध सेतुमाधवराव पगड़ी इन्होंने इस काल को “महाराष्ट्र का महाभारत” कहा है |
मराठों के इतिहास के बारे में विदेशी लेखको ने भी लिख कर रखा | मनुची और मार्टिन इनमें प्रमुख है | इनमें से निकोलस मनुची इटालियन टूरिस्ट था और पूरे हिंदुस्तान भर घूमते रहता था | फँनसिस मार्टिन पांडिचेरी में फ्रेंच सूबे का गवर्नर था | यह लोग पास से किसी को भी नहीं जानते थे | नाही तो यहाँ की संस्कृतियों से ही वाकिफ थे | इसलिए इनके टिप्पणियों में बहुत त्रुटियां हैं |
किताब में ऐतिहासिक घटनाओं को साबित करने के लिए लेखक ने जिन-जिन किताबों , दस्तावेजों का सहारा लिया है | उन सब के बारे में किताब के अंत मे जानकारी दी है | इतिहास में “छत्रपति शिवाजी महाराज के स्वर्गवास से लेकर तो औरंगजेब के मृत्यु तक” के समय को मराठों के स्वतंत्रता युद्ध का काल कहा गया है |
यह पूरे 26 वर्षों का था | शिवाजी महाराज ने स्वराज स्थापित किया | वह भी तीन मूल्यों के आधार पर | उनमें से
पहला है – स्वराज्य स्थापना
दूसरा है – स्वराज्य वृद्धि
तीसरा है – स्वराज्य रक्षण
स्वातंत्र्ययुद्ध काल में सिर्फ “स्वराज्य रक्षण” यह एक ही परंतु कठिन कार्य उनके वंशजों को करना पड़ा | शिवकाल में स्वराज्य पर भारी से भारी संकट आए पर उन्होंने अपनी असामान्य बुद्धि और कर्तृत्व से सब पर मात की | उनके जैसा चतुरस्त्र नेता बाद में स्वराज्य को नहीं मिला | स्वराज्य के बाकी तीनों वारसदार संभाजी महाराज , राजाराम महाराज और महारानी ताराबाई औरंगजेब के सामने अनुभव में बहुत ही कम थे | शक्ति में भी कम थे फिर भी उन्होंने शक्तिशाली औरंगजेब से लड़ने की ठानी | वह लड़े और अपने स्वराज्य को बचाया |
वैसे देखा जाए तो अंग्रेज , पोर्तुगीज , सिद्दी , मुगल यह सब भी मराठों के शत्रु थे पर इनमें सबसे ज्यादा शक्तिशाली मुगल थे | शिवाजी महाराज के बाद स्वराज्य पर इतने संकट आए की कोई भी बुरी तरह टूट जाता है या फिर वह समाज ही नष्ट हो जाता पर मराठों ने हार नहीं मानी | वह सबसे बदतर परिस्थितियों में भी लड़ते रहे | आगे जाकर उनकी शक्ति इतनी बढ़ी कि वे दिल्ली तख्त के संरक्षक तक बन गए |
अब आप सोच रहे होंगे कि इतने बड़े साम्राज्य का स्वामी औरंगजेब सिर्फ मराठों के पीछे ही हाथ धोकर क्यों पड़ा ? वह भी पर्सनली दक्षिण में जाकर … जबकि अंग्रेज , पोर्तुगीज , सिद्दी , कुतुबशाही , निजामशाही जैसे दुश्मन भी अस्तित्व में थे | इसका कारण इतिहास यह बताता है की औरंगजेब का बेटा “शहजादा अकबर” बागी हो गया था |
अपने ही पिता के खिलाफ जाकर उसने मराठों की शरण ली थी | औरंगजेब को लगा कि मराठे और उसका बागी बेटा अगर एक हो गए तो उसके साम्राज्य को धोखा हो सकता है | बस इसी विचार के चलते वह खुद , अपने बाकी बेटों और चुनिंदा सरदारों के साथ बहुत सारी सेना लेकर दक्षिण में पहुंच गया |
और बस यही से मराठों के स्वतंत्रता युद्ध की शुरुआत हो गई | मराठों के स्वतंत्रता युद्ध की पहली पारी संभाजी महाराज के काल में खेली गई | उनकी यह कारकीर्द दुखदायी रही | उनकी हत्या होने के कारण यह और शोकग्रस्त हो गई क्योंकि बखरकारों ने बहुत सारे विवादास्पद बयान लिखकर उनके चरित्र को मैला कर दिया था पर देखा जाए तो वह शिवाजी महाराज के जैसे एक तेजस्वी योद्धा थे | बाकी फिर उनके सारे गुण उनमें हो ना हो ! क्योंकि उनके आसपास बहुत सारे षड्यंत्र पनप रहे थे |
उनके बारे में डिटेल में बातें हम उनकी बायोग्राफी बुक में करेंगे | इसलिए अभी हम दूसरे छत्रपति राजाराम महाराज के कार्यकाल मे सम्मिलित व्यक्ति , उनसे जुड़ी घटनाओं का विश्लेषण करेंगे | राजाराम महाराज का कार्यकाल जब शुरू हुआ तो सारा स्वराज्य ही खत्म होने की कगार पर था | स्वराज्य की राजधानी को मुगलों ने घेर लिया था | स्वराज्य का खजाना न के बराबर था |
उनके सारे सरदार मुगलों को जाकर मिल रहे थे | उनके सारे गढ़ , किले शत्रु द्वारा जीते जा रहे थे | औरंगजेब नए छत्रपति के पीछे इतना हाथ धोकर पीछे पड़ा कि उन्हें जान बचाने के लिए कर्नाटक जाना पड़ा | इन स्थितियों के बावजूद उन्होंने लगभग 6 महीनों में स्वराज्य को जीवनरक्षा दी | वह एक कुशल योद्धा नहीं थे क्योंकि अब तक अपने पिता और बड़े भाई की छत्रछाया में ही उन्होंने एक संरक्षित राजकुमार का जीवन बिताया था |
छत्रपति पद तो उन्हे अचानक ही संभालना पड़ा पर अपने सौजन्यपूर्ण व्यवहार और मीठे स्वभाव से उन्होंने सबका दिल जीत लिया | उनके मार्गदर्शन के नीचे धनाजी और संताजी ने कई पराक्रम किए | इतने की संताजी के नाम से बड़े-बड़े मातब्बर मुगल सरदार डरकर भाग जाते थे |
ऐसे इस शूरवीर संताजी कि अकेले में धोखे से हत्या कैसे हुई ? यह भी हम इस किताब के सारांश में दिखेंगे | इस बात को साबित करने के लिए लेखक ने असल पत्रों और जानकारीयो का उपयोग किया है | राजाराम महाराज , महारानी ताराबाई रामचंद्रपंत इनके द्वारा लिखित असल पत्रों को पढ़ने के लिए भी आपको यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए ताकि आप उनके द्वारा उपयोग में लाई हुई भाषा देख सके | यह देख सके की वह कैसी वाक्य रचना करते थे ? कौन से शब्द प्रयोग में लाते थे ? क्या अभी भी हम उस भाषा को समझ पाएंगे ? इन सब बातों के बारे में जानने के लिए भी आप यह किताब जरूर पढे |
राजाराम महाराज के काल में स्वराज्य की भावना मराठों को छोड़कर नहीं गई | यह ज्यादा महत्वपूर्ण बात है | उनकी मृत्यु के बाद उनकी पत्नी महारानी ताराबाई सिर्फ 25 साल की होते हुए भी , अपने पति के बिना इतने बड़े बादशाह के साथ संघर्ष करने के लिए खड़ी रहती है | इसी में उनका बहुत बड़प्पन है | इतिहास में महारानी ताराबाई ने जो पराक्रम किए है | उनकी स्तुति मुगलों के इतिहासकार खाफी खान ने अपने शब्दों में की है | उनकी स्तुति एक मुगल इतिहासकार ने करना | यह बहुत बड़ी बात है |
मुगलों की तरफ एक ही नेता रहा क्योंकि औरंगजेब का कार्यकाल बहुत लंबा रहा तो मराठों की तरफ तीन नेता बदल चुके | जिस जीद से मुगल लड़ रहे थे उसी जीद से मराठे भी लड़ रहे थे | इसीलिए शायद यह संघर्ष 26 सालों तक चला | औरंगजेब इतना शक्तिशाली और बड़ा राजनीतिज्ञ होने के बाद भी मराठी को क्यों नहीं जीत पाया ?
इसका कारण इतिहासकार बताते हैं की मराठों से 3 साल लड़ने के बाद वह बीजापुर और आदिलशाही जीतने के लिए चल पड़ा | दोनों को जीतने के बाद उसने उस राज्य की अच्छी व्यवस्था नहीं लगाई | इससे भी मराठों को वहां अपने पैर जमाने का अच्छा मौका मिला |
उसके बाद उसने संभाजी महाराज की हत्या कर के और एक बड़ी भूल की.. जिससे मराठे बहुत चिढ़ गए | वह बदले की आग में जल उठे | इस बदले की आग को ठंडा करना उसके बस की बात नहीं थी | वैसे भी उसके सैनिक पगार लेकर बादशाह के लिए लड़ते थे तो मराठे अपने स्वराज्य रक्षण के लिए लड़ते थे |
राजाराम महाराज की सत्ता जिंजी में थी | जहां पास ही फ्रेंच और पोर्तुगीजो की सत्ता स्थापित थी | इसीलिए उनके काल के सबूत इन विदेशी लोगों के डायरी और पत्रों में मिलते हैं | छत्रपति के पास तब भी डेढ़ लाख की सेना थी | मुगल सेना अपने ताम – झाम के साथ चलती थी | इसलिए उसे कहीं भी पहुंचने के लिए जरूरत से ज्यादा वक्त लगता था | तो दूसरी तरफ मराठे सैनिक कुछ भी एक्स्ट्रा सामान अपने साथ लिए बगैर चलते थे | वक्त पड़ने पर वह घोड़े पर ही बैठे-बैठे अपना सादा भोजन कर लेते थे |
ऐसा मुगल इतिहासकार खाफीखान और भीमसेन सक्सेना कहते हैं | ऐसे ही जानकारी मार्टिन अपनी डायरी में लिखता है | ऐसा ही वर्णन मल्हार रामराव करते हैं | मराठे कही भी तीव्र गति से पहुंच जाते थे | दूसरा यह कि मराठे गनीमी कावा याने छापा मार युद्ध करते थे |
इस स्वतंत्रता संग्राम में बहुत सारे पराक्रमी पुरुष आगे आए जिन पर सबको अभिमान होगा | यह सब पढ़कर यह मत सोचिए की स्वराज्य मे सारी अच्छी ही घटनाएं घटती रही | सारे लोग निष्ठावान ही बने रहे | नहीं , सिर्फ शिवाजी महाराज के काल में प्रखर स्वामी निष्ठा देखने को मिली | उनकी जान बचाने के लिए लोग वक्त आने पर अपनी जान भी दे देते थे पर संभाजी महाराज की जान उनके अपनों ने ही ली | यह बड़ी ही शर्मनाक बात मराठों के इतिहास में दर्ज रहेगी |
राजाराम महाराज को खुद उनके सेनापति संताजी घोरपडे ने कैद कर लिया था तो महारानी ताराबाई के साथ संताजी के ही भाई हिंदूराव उर्फ बहिर्जी घोरपडे ने बगावत की थी | इसका मतलब यह की उनपर इतना बड़ा मुगलों का संकट होने पर भी वह आपस में ही झगड़ते रहे | यह भी एक बुरी बात इतिहास में देखने को मिलती है |
प्रस्तुत किताब में मुख्यतः राजाराम महाराज के राज्यकाल में घटित घटनाएं और मुख्य व्यक्तियों को रेखांकित किया गया है | अंत के कुछ पन्नों में महारानी ताराबाई का कार्यकाल बताया गया है | प्रस्तुत किताब के –
लेखक है – जयसिंगराव पवार
प्रकाशक है – मेहता पब्लिशिंग हाउस
पृष्ठ संख्या है – 240
उपलब्ध है – अमेजॉन और किंडल पर
प्रस्तुत किताब के लेखक डॉ. जयसिंगराव पवार इन्होंने “शिवाजी यूनिवर्सिटी , कोल्हापुर” से एम. ए. और पीएचडी की है | पिछले 30 वर्षों से भी अधिक काल से वह शिक्षा प्रदान करने का कार्य कर रहे हैं | इस यूनिवर्सिटी में उन्होंने ऐतिहासिक दस्तावेजों पर रिसर्च किया | उन्होंने महारानी ताराबाई , संताजी घोरपडे , राजर्षी शाहू महाराज ग्रंथ इत्यादि इतिहास से जुड़ी 25 किताबें लिखी |
वह इतिहास परिषदो के अध्यक्ष भी रहे हैं | उन्होंने 1992 में “महाराष्ट्र इतिहास प्रबोधिनी संस्था” की स्थापना की | इतिहास पर संशोधन और उसके द्वारा समाज जागृति उनका उद्देश्य रहा है | उनके द्वारा लिखित राजर्षी शाहू स्मारक ग्रंथ का देसी और विदेशी भाषाओं में रूपांतरण शुरू है |
इतिहास के संशोधन में अपने अमूल्य योगदान के लिए उनका भारत सरकार की तरफ से सम्मान किया गया है | श्रेष्ठ इतिहासकारो द्वारा लिखित बहुत सारी किताबो का रिव्यू हम आपके लिए लेकर आ रहे हैं | उन्हें पढ़ने के लिए जुड़े रहिए “सारांश बुक ब्लॉग” के साथ |
आइए , अब जानते इसका
सारांश –
मराठों के स्वातंत्र्यकाल की सबसे पहली दुःखद घटना है संभाजी महाराज की हत्या | इसके तुरंत बाद ही दूसरी दुखद घटना है – स्वराज की राजधानी रायगढ़ का मुगलों के कब्जे में जाना | साथ में महारानी येसूबाई और राजकुमार शाहू का औरंगजेब का कैदी बनना | इसके लिए सूर्याजी पिसाळ जिम्मेदार माना जाता है | अब इस व्यक्ति ने सचमुच मे क्या किया ? क्या नहीं ? और उसका वतनदारी इतिहास डिटेल में किताब में पढ़ लीजिएगा | एक पाठक की नजर से हमें उसकी जानकारी उतनी महत्वपूर्ण नहीं लगी पर एक इतिहासकार के लिए इसका महत्व हो सकता है | इसलिए इसके बारे में पढ़ना आप पर छोड़ दिया है |
रायगढ़ मुगलों के अधीन होने के पहले महारानी येसूबाई ने राजाराम महाराज को छत्रपति बनाया | न कि , अपने बेटे को … छत्रपति राजाराम महाराज वहां से निकलकर तुरंत ही पास में प्रतापगढ़ पहुंच गए | वहां से वह पन्हाला गए | मुगलों ने उनका यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ा तो उन्हे दूर दक्षिण में स्थित चंदी जाना पड़ा |
महाराज का यह सफर इतिहास प्रसिद्ध हुआ जैसे छत्रपति शिवाजी महाराज का आगरा से छूटकर आने का हुआ | दोनों को औरंगजेब से बचने के लिए ही यह यात्राएं करनी पड़ी | इन यात्राओं के पहले स्वराज्य पर संकट छाया था | जैसे ही यह दोनों राजा अपने इच्छित स्थान पर पहुंचे | स्वराज्य की स्थिति इन्होंने यथावत कर दी |
शिवाजी महाराज जहां आगरा से महाराष्ट्र में आए | वही राजाराम महाराज महाराष्ट्र से बाहर गए | पर वह क्यों कर्नाटक जाना चाहते थे ? क्या वह वहां मुगलो से सुरक्षित हो जाते ? ऐसा नहीं होता पर यहाँ उनकी अनुपस्थिति मे मुगल सेना का प्रभाव जरूर कम हो जाता |
दूसरा एक कारण यह की , कर्नाटक में हिंदू नायक और पालेगार इनको बादशाह के विरुद्ध एकत्रित किया जा सकता था | इस यात्रा के लिए महाराज और उनके साथी मध्य रात्रि को पन्हालगढ़ से बाहर निकले | उन्होंने लिंगायत किराना दुकानवाले का भेस बनाया था |
इस यात्रा में “केशव पंडित” नाम का ब्राह्मण उनके साथ था | उसने “राजाराम चरितम्” नाम का एक काव्य ग्रंथ लिखा | उसी से इतनी डिटेल जानकारी मिलती है | इस यात्रा का थोड़ा सा वर्णन हमने “शिवपुत्र राजाराम” इस किताब के रिव्यू और सारांश में किया है | उसे भी आप जरुर पढ़िएगा |
सर्जाखान बीजापुर की आदिलशाही का प्रतिष्ठित सरदार था | आदिलशाही नष्ट होने के बाद वह औरंगजेब का प्यादा बन गया | इसको उसने रुस्तूमखान की पदवी दी | इसी ने सातारा के किले को घेरा डाला था | मराठों ने छापामार युद्ध से इसको हराया | छत्रपति राजाराम महाराज ने जिन आपातकालिन परिस्थितियों में स्वराज्य को संभाला | उनमें भी उन्होंने पूरी हिम्मत के साथ दिल्ली जीतने की अपनी इच्छा जाहीर की थी |
यह उनके राज्यकाल के दौरान लिखे गए बहुत सारे कागजपत्रों से पता चलता है | राजाराम महाराज जब जिंजी पहुंचे | उसके कुछ ही महीनो में उन्होंने उसको अपनी राजधानी घोषित की | अपना अष्टप्रधान मंडल स्थापित किया | उन्होंने अपनी सेना तैयार की और उन्हें अलग-अलग मोर्चों पर भेजा |
अब औरंगजेब ने उन्हें पकड़ने के लिए झुल्फिकार खान को भेजा | इसने चंदी के किले को घेर लिया पर इसका घेरा कमजोर था क्योंकि चंदी का किला बहुत बड़े क्षेत्रफल में फैला हुआ था | इसी घेरे में से मराठी सेना का किले में आना – जाना शुरू था |
स्वराज का अभी अस्त नहीं हुआ | यह जानने के बाद बहुत से मराठे सरदार जो मुगलो से जाकर मिले थे फिर से स्वराज्य में वापस आने लगे | महाराज ने इन सबको वतन देकर वतनदार बनाया ताकि यह लोग स्वराज्य के साथ ईमानदार रह सके क्योंकि तब वतनदार होना बहुत ही प्रतिष्ठा या मान – सम्मान का समझा जाता था | वतनदारी के लिए लोग कुछ भी कर सकते थे | यकीन मानिए कुछ भी … इन मराठी सरदारों को अपने साथ बांधे रखने के लिए महाराज के पास यही एक उपाय था |
महाराज के जिंजी पहुंचने के एक साल बाद ताराबाई और राजसबाई दोनों समंदर के रास्ते चंदी के किले में पहुंची | तब भी झूल्फिकार खान का घेरा किले को पड़ा हुआ था | यहीं पर महाराज को सगुनाबाई से कर्ण सिंह नाम का पुत्र प्राप्त हुआ | हालांकि , यह उनका पहला और प्रिय पुत्र था फिर भी वह उनका जायज वारिस नहीं था |
इनको दूसरा पुत्र महारानी ताराबाई से हुआ जिसका नाम शिवाजी रखा गया | राजसबाई के पुत्र का नाम संभाजी रखा गया | राजाराम महाराज के बाद शिवाजी ही राजगद्दी पर बैठा या कर्णसिंह | इसमें भी इतिहास में विवाद है | हालांकि , इसका निपटारा हो चुका है | अब वह क्या है ? यह आप किताब में पढ़ लीजिएगा |
महाराष्ट्र में ताराबाई के मार्गदर्शन मे वहां का काम रामचंद्र पंत और परशुराम पंत देखते थे | संताजी , धनाजी , विठोजी चौहान इन मराठी सरदारों के मार्गदर्शन में अनेक लड़ाइयां लड़ी जा रही थी | इन सरदारों मे प्रमुख है संताजी घोरपडे | यह बहुत ही बहादुर , शूरवीर और स्वराज्य के एकनिष्ठ सरदार थे | पर उनकी एक कमी थी | वह अपना गुस्सा और अपना कड़वा व्यवहार कंट्रोल नहीं कर सकते थे |
स्वराज को अपना यह हीरा इन्हीं दुर्गुणों के कारण खोना पड़ा | इतिहासकारों ने इस पर बहुत रिसर्च किया कि उनकी हत्या जिन परिस्थितियों में हुई उसके लिए कौन जिम्मेदार था ? इतिहास के अनुसार वह स्वयं ही इसके लिए जिम्मेदार थे |
यह स्वराज्य के तीसरे सेनापति म्हालोजीराव घोरपडे के पुत्र थे | चौथे सेनापति यह स्वयं बने | पांचवें धनाजीराव बने जो इनके जैसे ही शूरवीर थे पर स्वभाव में इनके उलट थे | झूल्फिकार खान की सेना को जब मराठों ने तहस-नहस कर दिया तब उसके लोग भूख से मरने लगे | उसने महाराज से मदद मांगी | महाराज ने उन्हें इन्सानियत के नाते मदद की | इससे झूल्फिकार खान महाराज के एहसान तले दब गया |
उसने महाराज के साथ एक समझौता किया की वह ऊपर से औरंगजेब का हुक्म बजाएगा लेकिन अंदर से महाराज की मदद करता रहेगा और वह आखिर तक अपने इन शब्दों पर कायम रहा | उसी के प्रयत्नों से महाराज और उनका परिवार चंदी के किले से निकलकर महाराष्ट्र पहुंचा | वह भी सही सलामत |
इसी झूल्फिकार खान और शहजादा कामबक्ष को कैद ना कर के , उनकी मदद की | महाराज के इस निर्णय के लिए संताजी उनसे नाराज हो गए | हालांकि , महाराज का यह एक राजकीय निर्णय था | अष्टमंडल का सदस्य होने के नाते वह महाराज को सिर्फ सलाह दे सकते थे | उनपर पर सक्ती नहीं कर सकते थे | पर उन्होंने तो दो-तीन बार महाराज का भरी सभा मे अपमान ही किया | महाराज इतने सरल हृदय थे कि उन्होंने फिर भी संताजी को मनाया |
तीसरी बार तो संताजी ने हद ही कर दी | समझाने के लिए आए महाराज को उन्होंने कैद कर लिया और जिंजी भेज दिया | यह तो गनीमत थी कि उन्होंने महाराज को मुगलों के हवाले नहीं किया | नहीं तो , संभाजी महाराज की कहानी फिर से दोहराई जाती |
इसी लड़ाई में उन्होंने अमृतराव निंबालकर को कैद करके हाथी के पैरों के नीचे कुचलवा दिया | इस बात पर नागोजी माने को बहुत गुस्सा आया क्योंकि अमृतराव निंबालकर उनका साला था | इतिहास कहता है कि संताजी की हत्या में नागोजी माने की पत्नी राधाबाई भी सम्मिलित थी क्योंकि वह अपने भाई की हत्या का बदला लेना चाहती थी | आखिर पूरे सबूतो पर नजर डालने के बाद यह साबित हुआ कि नागोजी माने ही उनका कातिल है |
आखिर कैसे शूरवीर संताजी नागोजी माने के हाथों मारे गए ? क्यों वह नागोजी माने और अमृतराव निंबालकर से इतनी नफरत करते थे | क्योंकि नागोजी माने और अमृतराव निंबालकर जैसे सरदार अपना फायदा देखते ही अपना दल बदल लेते थे | वह कभी स्वराज्य की सेवा में तो कभी मुगलों की सेवा में रहते थे |
इसीलिए संताजी को इन सरदारों की स्वामिनिष्ठा पर शक था | वह शिवाजी महाराज की तालीम मे ट्रेंन हुए थे | स्वराज्य और स्वामीनिष्ठा उनके खून में घुल चुकी थी | इतने एकनिष्ठ होते हुए भी उन्होंने राजाराम महाराज को कैद किया | महाराज को उनसे धोका महेसूस हुआ |
इसलिए उन्होंने संताजी की सेना के सरदारों को अपनी तरफ लाना शुरू किया | ऐसा करते-करते संताजी के पास 500 से भी कम सैनिक बचे | इसके पहले उनके पास चालीस हजार सिपाही थे | बचे हुए कुछ सरदारों के साथ वह अपनी जगह चले गए | वहीं नागोजी माने ने संधि का फायदा उठा लिया | इस तरह संताजी पर्व स्वराज्य से खत्म हो गया |
राजाराम महाराज के बाद स्वराज्य की धूरा महारानी ताराबाई ने संभाली | तब वह विशालगढ़ पर थी और औरंगजेब ने उनकी राजधानी सातारा स्थित किले को घेरा हुआ था | तब उन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराज की युद्ध नीति अपनाई | उनके इस नीती के कारण औरंगजेब को समझ में ही नहीं आता था कि वह अपनी सेना को कहाँ भेजे और कहाँ नहीं ?
बहुत सारे कवियों ने उनके इस रूप को माँ रणचंडी का रूप कहा है | इस रूप पर आधारित उनके समकालीन कवि देवदत्त इन्होंने महारानी ताराबाई को भद्रकाली भवानी कहा है | उनके पराक्रम का वर्णन करते हुए कवि कहते हैं –
रामरानी भद्रकाली | रणरंगी क्रुद्ध झाली
प्रलयाची वेळ आली | मुगल हो ! सांभाळा |
महारानी ताराबाई जब अपना पराक्रम दिखा रही थी | तब औरंगजेब अपने आखिरी दिन गिन रहा था और उसे पश्चाताप हो रहा था कि आखिर उसने मराठों के साथ युद्ध शुरू ही क्यों किया ?
आखिर उसकी मृत्यु के साथ मराठों का स्वातंत्र्ययुद्ध खत्म हो गया | और यह किताब भी … ताराबाई के पराक्रम और नीती को जानने के लिए जरूर पढिए – “मराठ्यांचे स्वातंत्र्ययुद्ध”….जयसिंगराव पवार द्वारा लिखित | तब तक पढ़ते रहिए | खुशहाल रहिए | मिलते हैं और एक नई किताब के साथ | तब तक के लिए …
धन्यवाद !!