SHIVPUTRA RAJARAM BOOK REVIEW IN HINDI

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शिवपुत्र राजाराम
डॉ. प्रमिला जरग द्वारा लिखित
रिव्यू –
राजाराम महाराज स्वराज्य के तिसरे छत्रपति थे | इन पर और उनके राज्यकाल पर बहुत कम लिखा गया है | इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि उनके राज्यकाल में स्वराज्य की राजधानी दूर दक्षिण “चंदी” में स्थित थी | पहले 7 साल इन्होंने वहीं से राज्यकारभार किया |
इनके बाबत ज्यादा जानकारी उनकी पत्नी ताराबाई कालीन कागज पत्रों और महत्वपूर्ण व्यक्तियों के दस्तावेजों में मिलती है | राजाराम महाराज अपने पिता छत्रपति शिवाजी महाराज और बड़े भाई छत्रपति संभाजी महाराज के जैसे शूरवीर नहीं थे पर वह एक अच्छे राजनीतिज्ञ जरूर थे | वह स्वभाव से बहुत शांत , समझदार और कोमल थे | इसीलिए शायद इतिहास में उन्हें “स्थिरबुद्धि राजाराम” कहा गया है |
उन्होंने खुद कोई बड़ा पराक्रम नहीं किया परंतु अपनी सूझबूझ से अपने मातहत लोगों से अच्छे-अच्छे पराक्रम करवाए | उन्होंने ने स्वराज्य की धूरा तब संभाली जब संभाजी महाराज की हत्या हो चुकी थी | स्वराज्य की राजधानी “रायगढ़” को घेरा पड़ा हुआ था | एक के बाद एक सारे किले मुगलों के कब्जे में जाने लगे थे |
सैन्यशक्ति बर्बाद हो गया थी | खजाने के नाम पर कुछ नहीं बचा था और ऐसे में जब वह छत्रपति बने तो औरंगजेब उनकी जान का ग्राहक बन बैठा | स्वराज्य को बचाने के लिए पहले उन्हें अपनी जान बचानी थी | इसीलिए उन्हें महाराष्ट्र छोड़कर दूर जिंजी जाना पड़ा |
इतिहास में दो यात्राएं बहुत ही प्रसिद्ध हुई है | पहली तो छत्रपति शिवाजी महाराज की संभाजी महाराज के साथ आगरा से भाग निकलने की और दूसरी राजाराम महाराज की महाराष्ट्र से जिंजी की यात्रा ….
छत्रपति शिवाजी महाराज ने स्वराज की स्थापना तीन सूत्रों के आधार पर की थी |
1. स्वराज्य निर्मिती
2. स्वराज संरक्षण
3. स्वधर्म रक्षा
इसमें से तीसरे सूत्र की रक्षा करने के लिए छत्रपति संभाजी महाराज ने अपना बलिदान तक दे दिया | अपने बलिदान के कारण वह इतिहास में अमर हो गए | गिरफ्तार होने के बावजूद उन्होंने शरणागति का “श” भी अपने मुंह से कभी नहीं निकाला | देखा जाए तो छत्रपति शिवाजी महाराज के बाद संभाजी महाराज ही शूरवीर निकले | रन के मैदान में उन्हें हरा पाना असंभव था | इसीलिए शायद औरंगजेब ने छल का रास्ता अपनाया |
उनके जीवन पर आधारित “छावा” फिल्म आजकल थिएटर में बहुत चल रही है | आप उसे जरूर देखें या फिर शिवाजी सावंत द्वारा लिखित “छावा” और लेखक विश्वास पाटिल द्वारा लिखित “संभाजी” यह किताब जरूर पढ़ें | अपने इतिहास के अनदेखे पहलुओं को जरूर जाने |
छत्रपति शिवाजी महाराज के महाप्रयाण के बाद से लेकर तो औरंगजेब की मृत्यु तक के काल को “मराठों का स्वतंत्रता संग्राम काल” कहा गया है | इतिहास में यह 27 वर्षों का काल इसी नाम से दर्ज है | इसी में से पहले 9 वर्षों का काल छत्रपति संभाजी महाराज का था | बाद के 11 वर्ष छत्रपति राजाराम महाराज के और आखिरी के 7 वर्ष महारानी ताराबाई का कालखंड था |
यह तीनों औरंगजेब के सामने अनुभव मे कम थे फिर भी इन्होंने दुनिया के तीन शक्तिशाली बादशाहों में से एक औरंगजेब से लड़ने की ठानी | वह लड़े और उन्होंने स्वराज्य को बचाया | छत्रपति राजाराम महाराज और ताराबाई के काल में स्वराज्य रक्षण के लिए कुछ महत्वपूर्ण लोग भी मददगार साबित हुए जैसे संताजी घोरपडे , धनाजी जाधव , रामचंद्रपंत , परशुरामपंत , विठोजी चौहान , बहिर्जी घोरपडे इत्यादि |
छत्रपति महाराज ने अपने राज्यकाल में वतनदारी को पूरी तरह बंद कर दिया था लेकिन स्वराज्य के आपातकाल में राजाराम महाराज को इसी नीति का सहारा लेना पड़ा क्योंकि यह उस वक्त की जरूरत थी | उस वक्त के महाराष्ट्र में वतनदारी होना बहुत ही प्रतिष्ठा का विषय माना जाता था | इसके लिए लोग जो बन पड़ा वह कर जाते थे | इसका अच्छा खासा उदाहरण शिर्के बंधु है जिन्होंने वतन ना मिलने के कारण संभाजी महाराज को शत्रु के हवाले किया |
उन्हें स्वराज्य से अधिक अपने वतनों से प्रेम था लेकिन वह यह नहीं जानते थे या जानना नहीं चाहते थे कि स्वराज्य बढ़ा तो वतन तो बढ़ेगा ही .. साथ में स्वराज्य की सेवा करने के कारण कीर्ति भी … पर अब शिर्के बंधु के पास वतन तो होगा पर इतिहास में उनकी अपकीर्ति ही प्रसिद्ध होगी |
मराठों के स्वतंत्रता संग्राम पर आधारित किताब का रिव्यू हम इसके बाद ही लेकर आ रहे हैं | उसे भी जरूर पढ़िएगा और औरंगजेब के चरित्रकार साकी मुस्तैद खान द्वारा लिखित किताब का रिव्यू भी ..
“मराठों का स्वतंत्रता संग्राम” इस किताब में महाराज राजाराम कालीन घटित घटनाओं की विवंचना की गई है | वह भी असली ऐतिहासिक सबूतो के आधार पर | उस ब्लॉग को जरूर पढ़िएगा | खैर , आगे बढ़ते है –
राजाराम महाराज के काल की जानकारी मिलना बहुत कठिन था क्योंकि “जिंजी” जीसे उस वक्त “चंदी” कहा जाता था | महाराष्ट्र से 800 किलोमीटर की दूरी पर स्थित था | उतनी दूर क्या घटित हो रहा है ? यह जानना जरा मुश्किल था | इसलिए इतिहासकारो ने तत्कालीन राजकीय घटनाओं के बारे में जानने के लिए मुगल दरबार की तारीखे , पांडिचेरी , फ्रेंच कैंप अधिकारियों की डायरी में लिखी बातें , उन्होंने उनके वरिष्ठ अधिकारियों को भेजे पत्रों की मदद ली हैं |
मुगल दरबार में उपलब्ध कागज पत्रों की भाषा फारसी है | तो विदेशी लोगों ने उनके कागज पत्रों में उनकी भाषा का इस्तेमाल किया है | इस कारण जब इनका अनुवाद हुआ तभी इसका अध्ययन पॉसिबल हुआ | अनुवाद करने के लिए इतिहास के अनेक प्रोफेसर और रिसर्चरों ने बहुत वर्षों तक अथक परिश्रम किया जिनके कारण हम अपने ही इतिहास को जान पाए | इसीलिए हम उनका जितना धन्यवाद करें , कम है | प्रस्तुत किताब की –
लेखिका – डॉ. प्रमिला जरग
प्रकाशक है – मेहता पब्लिशिंग हाउस
पृष्ठ संख्या है – 506
उपलब्ध है – अमेजॉन और किंडल पर
लेखिका डॉ. प्रमिला जरग का जन्म 23 जनवरी 1947 को हुआ | वह पेशे से स्त्री – रोग तज्ञ है | साथ ही वह राजकीय और सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय भी है | लेखिका की माताजी एक स्वतंत्रता सेनानी और सामाजिक कार्यकर्ता थी | उन्होंने महिला और बच्चों के लिए “माझे माहेर” नाम की संस्था शुरू की जो मुंबई में स्थित है | इसी संस्था को लेखिका पिछले बहुत सालों से संभाल रही है |
महिला एवं बाल कल्याण विषय में उन्होंने विविध अखबारों में लेखन भी किया | प्रस्तुत किताब को बहुत सारे पुरस्कार मिले हैं जिनमें से “ऐतिहासिक कादंबरी पुरस्कार और उत्कृष्ट साहित्य पुरस्कार 2011” सम्मिलित है |
आइए , अब जानते है इसका सारांश –
सारांश –
छत्रपति राजाराम महाराज इन्होंने किन परिस्थितियों में स्वराज्य को संभाला ? इसका उल्लेख हम रिव्यू में कर ही चुके हैं | इसलिए अब आगे की ओर बढ़ते है | संभाजी महाराज की मृत्यु के बाद औरंगजेब को लगा कि वह स्वराज्य और मराठों को यू चींटी के जैसे मसलकर खत्म कर देगा | इसलिए उसने स्वराज्य की राजधानी “रायगढ़” को जीतने के लिए “इतिकदखान” को भेजा |
जैसे ही “महारानी येसूबाई” को यह पता चला | उन्होंने राजाराम को छत्रपति घोषित किया ना कि अपने बेटे शाहू को .. अपने बेटे को छत्रपति बनाकर वह शासन अपने हाथ में ले सकती थी लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया | उन्होंने अपनी निस्वार्थता और अनन्य स्वराज प्रेम का प्रदर्शन किया क्योंकि राजाराम महाराज को छत्रपति बनाते ही संभाजी महाराज के विरोधी शांत हो गए |
इस तरह उन्होंने स्वराज्य में पनप रहे आंतरिक कलह को खत्म किया | राजाराम महाराज की पहली पत्नी जानकीबाई को शाहूजी से बहुत लगाव था | इसीलिए रायगढ़ छोड़ते समय वह राजाराम महाराज , ताराबाई , राजसबाई के साथ नहीं गई | आगे फिर वह येसूबाई , शाहू महाराज और अन्य लोगों के साथ ही कैद में चली गई और उनके साथ ही कैद में रही |
अब तक राजधानी को इतिकद खान ने घेरा डाल दिया था पर उसका बंदोबस्त कमजोर था | इसी घेरे में से संताजी और बहिर्जी घोरपडे यह दोनों बंधु येसूबाई और महाराज को मिलने आए | यह दोनों उस दल में शामिल थे जो संभाजी महाराज को कैद से छुड़ाने गया था | इस लड़ाई में दोनों के पिता शहीद हो गए थे | उनके पिता “म्हालोजीराव घोरपड़े” स्वराज्य के तीसरे सेनापती थे |
संताजी की जानकारी अनुसार अब पूरे राजपरिवार का रायगढ़ के बाहर निकलना संभव नहीं था | इसलिए येसूबाई ने तय किया कि वह और उनके पुत्र शाहू वही किले में रहेंगे | बाकी सब लोग राजाराम महाराज के साथ जाएंगे | यह सब लोग पहले प्रतापगढ़ पहुंचे | वहां से महाराज ने अपना कार्यभार संभाला | जब से संभाजी महाराज की हत्या हुई थी तब से सारे मराठी बदले की आग में सुलग रहे थे | अब तो उन्हें नया राजा मिल गया था तब वह कहां पीछे रहनेवाले थे ?
संताजी और धनाजी इन दोनों शूरवीरों ने मुगलों से बदला लेने की ठानी | उन्होंने पास ही भीमा नदी के तट पर “तुलापुर” स्थित औरंगजेब की छावनी पर हमला किया | वह औरंगजेब के तंबू के सोने के कलश ही काट कर ले आए | इनमें संताजी के साथ बहिर्जी और विट्ठल चौहान भी थे |
संताजी इतने पर ही नहीं रुके | उन्होंने इतिकद खान की रसद भी लूट ली | पांच हाथी हथिया लिए | इधर धनाजी ने रणमस्त खान और शहाबुद्दीन खान को हराया | सारे विजयी सैनिक प्रतापगढ़ पर पहुंचे | महाराज बहुत खुश हुए | खुद औरंगजेब के शामियाने पर हमला होने के कारण औरंगज़ेब बौखला गया था |
उसने एक साथ कई मोर्चे खोल दिए | अब तक सबको पता चल गया था की महाराज प्रतापगढ़ पर है | इसीलिए पहले लोदीखान और काकड़खान प्रतापगढ़ के नीचे आए | इतिकद खान ने भी फतेहजंग नाम के सरदार को भेजा | सुरक्षा की दृष्टि से महाराज ने अब पन्हालगढ़ जाने का निश्चय किया | वह वहाँ परली – रांगना होते हुए पहुंचे |
पन्हालगढ़ पहुंचने पर औरंगजेब ने वहाँ मुकर्रबखान को भेजा | अब महाराज के अष्टमंडल को लगा कि महाराज यहां सुरक्षित नहीं है तो उन्होंने चंदी जाने का निर्णय लिया पर सारे परिवार के साथ जाना बहुत जोखिम भरा काम था |
इसीलिए यह निश्चित किया गया कि महाराज के साथ कुछ चुनिंदा लोग चंदी जाएंगे और उनकी पत्नियां विशालगढ़ पर ही रहेंगी | महाराज के चंदी जाने के पहले सातारा और कोकण से रायगढ़ सीमाओं के अंतर्गत उत्तर का कार्यभार शंकराजी और दक्षिण का कार्यभार रामचंद्रपंत जैसे विश्वस्त लोगों को सौंप दिया गया | क्योंकि यहाँ खुद औरंगजेब विराजमान था |
ताराबाई के मातहत एक राजमंडल भी स्थापित किया गया जिसमें संताजी , धनाजी और परशुराम त्रिम्बक शामिल थे | अब शुरू होनेवाली थी महाराज की इतिहास प्रसिद्ध “जिंजी यात्रा” .. जिसमें उनके साथ शामिल थे मानसिंह मोरे ,रूपसिंह भोंसले | यह लोग भाला चलाने में एक्सपर्ट थे | खंडेराव दाभाड़े , खंडोंजी कदम , बाजी कदम संताजी जगताप , मालोंजी और बहिर्जी घोरपडे यह लोग कुशल योद्धा थे | राजकीय साइड संभालनेवालों में शामिल थे – प्रल्हाद निराजी , नीलकंठ मोरेश्वर , बहीरोपंत, कृष्णाजी अनंत , खंडों बल्लाल , नीलकंठ कृष्ण पारसनीस ,केशव पंडित इत्यादि |
चंदी जाने के बाद लगनेवाले खर्च के पैसे , हीरे जवाहररात और राज्य के सारे स्टांपस पेपर गिरजोजी यादव के हवाले किए गए जो वह रायगढ़ जाकर महारानी येसूबाई के पास से लेकर आया था | गिरजोजी यादव भी उपर्युक्त सारी चीजों के साथ महाराज के साथ इस यात्रा मे था |
महाराज ने इस यात्रा में पहले साधु का भेष बनाया | बाद में व्यापारी का और इसके बाद अलग-अलग रूप बनाए | उनकी यात्रा कोल्हापुर – कुरुंदवाडी – संगम पूर्व से लेकर बाद में दक्षिण की तरफ घटप्रभा नदी – चिकोड़ी – बागेवाडी – मुरगोड़ का मठ – बैलहोंग – नवलगुंद – लक्षमेश्वर तक चलती रही | यहाँ तक आने मे उन्हे पूरा एक हफ्ता लगा |
उनकी यात्रा लक्षमेश्वर से फिर शुरू हुई | लक्षमेश्वर – हवेरी – रानीबेन्नूर – बिदनूर की राजधानी होते हुए शिवमोगा के पास कुदाली स्थित मठ मे खत्म हुई | इसी मठ मे रहते हुए मुगलों के सरदार सैयद अब्दुल्ला खान को महाराज के वहां होने का पता चला | उसने वहां छापा मारा | महाराज तब तक वहां से निकल चुके थे |
पर खंडों बल्लाळ और उनका एक सेवक वहीं रुके रहे | उन्हें पकड़ लिया गया और बहुत टॉर्चर किया गया फिर भी वह अपने वक्तव्य से टस से मस नहीं हुए कि वह एक कपड़ा व्यापारी है और पुण्य कमाने के लिए साधु की सेवा कर रहे थे | महाराज उस वक्त साधु के भेष में थे | फिर भी मराठों के राजा को बीजापुर के सूबेदार ने पकड़ लिया है | ऐसी अफवाह पूरे मुगल छावनी में फैल गई |
इस पूरे यात्रा पर टीका – टिप्पणी , कारण – मीमांसा जयसिंहराव पवार इनके द्वारा लिखित “मराठ्यांचे स्वातंत्र्ययुद्ध” इस मराठी किताब में की गई है | छत्रपति राजाराम महाराज के पकड़े जाने की खबर औरंगजेब ने महारानी येसूबाई के दगाबाज भाई गणोजी शिर्के द्वारा रायगढ़ पहुंचाई |
महारानी येसूबाई की रही सही आशा भी इस खबर से टूट गई | उन्होंने रायगढ़ देना स्वीकार किया और खुद मुगलों की कैद स्वीकार कर ली | उधर मराठाओ के नए छत्रपती ने अब तक तुंगभद्रा नदी पार कर ली थी | अब वह कुदाली से बंगलोर पहुंच गए थे | वहाँ से अंबूर , अम्बूर से वेलोर का किला और वहां से चंदी के किले मे उनका प्रवेश हुआ |
चंदी के कीलेदार तब रायाजी नलगे थे और वेल्लोर के बाजीराव काकडे | महाराज जब चंदी पहुंचे तब उसके मुख्य किलेदार हरजीराजे थे जिनका एक महीने पहले ही स्वर्गवास हो गया था | वह महाराज की सौतेली बड़ी बहन अंबिकाबाई के पति थे | यही अंबिकाबाई , भवानीबाई की सास थी | भवानीबाई संभाजी महाराज की बड़ी बेटी थी |
अंबिकाबाई को लगा की राजाराम महाराज वहाँ आकर अपना अधिकार स्थापित कर लेंगे | वह उन्हे और उनके परिवार को किले के बाहर निकाल देंगे पर महाराज ने उनकी सोच के विपरीत उन सबको सहारा दिया | इससे हर्जीराजे को माननेवाले लोग उनका साथ देने लगे | खुद हर्जिराजे का बेटा उनकी बात मानने लगा |
मराठों की राजधानी जीतने की खुशी मे औरंगजेब ने इतिकदखान को “झूल्फीकारखान” का खिताब दिया | हर खिताब के कुछ फायदे और अधिकार भी होते थे | वही सब “झूल्फीकारखान” को मिले | वह इसी नाम से इतिहास मे जाना जाता है | यह औरंगजेब का वजीर “आसद खान” का बेटा था | इसी “झूल्फीकारखान” को चंदी के किले को घेरा डालने के लिए जिंजी भेजा गया |
इसके पहुंचने तक महाराज ने स्वराज्य की धूरा अच्छे से संभाल ली थी | अब तक उनकी तबीयत भी संभल गई थी | उन्होंने एक साल के अंदर ही विशालगढ़ की तरफ बहुतसा खजाना और घोड़े भेजे | महाराज को यहाँ आकर एक साल हो गया था | उनकी कोई भी पत्नी उनके साथ नहीं थी | उन्हें अकेला न महसूस हो इसलिए उनकी और दो शादियाँ कराई गई |
शादी के अलावा उनकी सगुनाबाई नाम की प्रेमिका भी थी जिससे उनको कर्णसिंह नाम का पुत्र भी था | यह उनका अत्यंत लाडला था | इसी को आधार बनाकर एक बार मुगलों के साथ संधि करने का प्रयास भी किया गया | तब चंदी सूबे का कारोबार केसोंपंत देखते थे |
विशालगढ़ पर महारानी ताराबाई के निगरानी में संताजी और धनाजी ने मुगल सरदार रुस्तुमखान को कैद कर लिया | संताजी के सामने कोई भी फौज टिक नहीं पाती थी क्योंकि उनके युद्ध के तकनीक कुछ अलग ही थी | यह तकनीक खुद्द छत्रपति शिवाजी महाराज उपयोग में लाते थे और संताजी उन्हीं के शागिर्द थे | युद्ध नीति और विचारों मे भी शिवाजी महाराज ही उनके आराध्य थे |
इधर विशालगढ़ और उधर चंदी के किले पर महाराज ने वतनदारी देनी शुरू की थी जिसकी वजह से बहुत से सरदार स्वराज्य में शामिल होने लगे थे | महाराज भी यही चाहते थे कि ज्यादा से ज्यादा लोग स्वराज्य मे शामिल हो ! ताकि स्वराज्य की शक्ति बढ़े |
“झूल्फीकारखान” अब चंदी पहुंच चुका था | उसने चंदी के किले को घेर लिया लेकिन यह किला बहुत बड़े क्षेत्रफल में फैला हुआ था | पूरे किले को घेरने के लिए उसका सैन्यबल कम पड़ने लगा था | घेरे के बीच की कमजोर जगह से महाराज का राज्य कारभार चल रहा था | इसी बीच पूरे एक साल के बाद रानी ताराबाई , राजसबाई लंबा समुद्री सफर तय करके चंदी के किले मे पहुंच चुकी थी |
चंदी के किले को घेरा पड़ते ही महाराज ने अपने सब शूरवीर सरदारों को पत्र लिखा | एक तो औरंगजेब “झूल्फीकारखान” को रसद नहीं भेज रहा था | किसी तरह वह अंग्रेज और पुर्तगीजो से रसद का इंतजाम करता , तो मराठे बाहर के बाहर ही उसे लूट लिया करते | मौसम की भी बहुत मार उसके फौज को सहनी पड़ी | ऐसे में संताजी और धनाजी ने बाहर से उसपर आक्रमण कर दिया और उसकी सेना को नेस्तनाबूत कर दिया |
उसके लोग अब भूख से मर रहे थे | ऐसे में उसने राजाराम महाराज से मदद मांगी | महाराज ने धर्म के नाम पर उसकी मदद की लेकिन स्वराज्य के सेनापती संताजी को यह बात पसंद नहीं आई | वह महाराज से नाराज हो गए | उन्होंने भरे दरबार में महाराज से बेअदबी की | वह गुस्से मे अपना पद छोड़कर चले गए | वह यह समझ ही नहीं पाए की “झूल्फीकारखान” की मदद करने के पीछे महाराज के बहुत से राजकीय कारण हो सकते है |
“झूल्फीकारखान” ने इस मदद के बदले महाराज से एक आंतरिक समझौता किया की “वह एक दूसरे को कभी नुकसान नहीं पहुंचाएंगे “| “झूल्फीकारखान” अंत तक अपने इस वादे पर कायम रहा | वैसे भी उसे लगता था कि औरंगजेब की मृत्यु के बाद वह जिस सूबे का सूबेदार है | उसको हथियाकर वह वहाँ का बादशाह बन जाएगा | इसमें वह महाराज की मदद लेगा |
महाराज के छत्रपति पद संभालने के सिर्फ 6 महीने बाद ही मराठों ने सारा मुल्क जीतकर फिर से स्वराज्य मे जोड़ लिया | डेढ़ साल होने के बाद भी “झूल्फीकारखान” चंदी का किला जीत नहीं पाया | इसलिए औरंगजेब ने उसकी मदद के लिए शहजादा कामबक्ष और वजीर आसदखान को भेजा |
संताजी भले ही महाराज से नाराज थे पर वह कभी मुगलों से जाकर नहीं मिले | वह चंदी से निकलकर सीधे कासिमखान के साथ भीड़ गए | उस पर जीत हासिल की | इसी बीच संताजी के भाई बहिर्जी घोरपडे और याचप्पा नायक महाराज का साथ छोड़कर चले गए | महाराज को इसका बेहद दुख हुआ | बाद में बहिर्जी को समझाने पर वह वापस स्वराज्य में आए पर याचप्पा नायक का उसकी फैमिली के साथ बहुत ही करुण अंत किया गया | यह सब किया “झूल्फीकारखान” ने | पर क्यों और किन परिस्थितियों में ? यह आप किताब में जरूर पढ़िएगा |
चंदी को जाने के बाद महाराज को तंजावर के शाहू महाराज का साथ मिला | वह उनके चचेरे भाई थे | इसके साथ-साथ चित्रदुर्ग के राजा , याचप्पा नायक , बिदनूर की रानी चेन्नम्मा , वाकिनखेड़ा के बेरड़ राजा पीड़नायक , दक्षिण के राजा का भी साथ मिला | संताजी के सेनापति पर छोड़ने के बाद वह पद धनाजी को दिया गया क्योंकि दोनों समान शूरवीर थे लेकिन धनाजी का स्वभाव संताजी के एकदम उलट था |
संताजी और धनाजी अब चंदी छोड़कर मराठी मुल्क में आ गए थे | इस वक्त शहजादा मुईनोद्दीन ने पन्हाला को घेरा डाला हुआ था | लुत्फुल्लाखान और सफ़शिकन खान उसकी मदद को पहुंच गए थे | इसलिए परशुराम पंत को बड़ी त्रासदी हो रही थी क्योंकि पन्हाला उनकी रखवाली में था |
अब रामचंद्रपंत और शंकराजी नारायण ने उनकी मदद करने की ठानी | वह उसमें कामयाब भी हुए | संताजी ने एक के बाद एक बहुत सारे पराक्रम किए | उनके पराक्रमों के बारे में पढ़ने के लिए | आप यह किताब जरूर पढ़ें |
औरंगजेब को जब पता चला की कौन सा मराठा योद्धा किधर जा रहा है ? वह उसे रोकने के लिए अपना और एक सूबेदार भेज देता | ऐसा लगता था जैसे उसके पास हर एक क्षण की खबर पहुंचती हो ! अपने सिपाहियों का मनोबल बढ़ाने के लिए वह अपनी छावनी बदलते रहता था | वह करीबन 25 से 26 सालों तक अपनी राजधानी दिल्ली से दूर रहा | आखिर शत्रु की भूमि ही उसे नसीब हुई |
संताजी को मनाने के लिए धनाजी ने अपना सेनापति पद उन्हें वापस दिया | इसके बाद वह फिर एक बार महाराज से नाराज हो गए | इस बार भी उन्होंने अपना सेनापति पद त्याग दिया और अपनी सारी सेना लेकर चंदी के किले से चले गए | इसके बाद जब महाराज को पता चला की संताजी उन पर आक्रमण करनेवाला है तो वह उसे रोकने के लिए “आयवारकुटी” गए | संताजी की सेना जीत गई |
उन्होंने महाराज को कैद कर लिया पर दूसरे ही क्षण उन्होंने महाराज को सम्मान के चंदी वापस भेज दिया | अगर …. उन्होंने महाराज को मुगलों के हवाले किया होता तो ! स्वराज का अध्याय वहीं समाप्त हो गया होता | इस लड़ाई में अमृतराव निंबालकर , संताजी के हाथ लग गए | संताजी ने उन्हें हाथी के पैर के नीचे कुचलवा दिया क्योंकि संताजी अमृतराव जैसे लोगों से चिढ़ते थे |
अमृतराव जैसे लोग बार-बार अपनी स्वामी भक्ति मुगलों के पैरों पर जाकर रखते थे | इसलिए संताजी को उनके स्वामी भक्ति पर भरोसा नहीं था | अमृतराव निंबालकर , नागोजी माने की पत्नी के भाई थे | बाद में धोखे से नागोजी माने ने संताजी की हत्या कर दी |
संताजी ने जब महाराज को कैद किया | उसके पहले ही महाराज आनेवाले खतरे को भाप गए थे | इसलिए उन्होंने संताजी की सेवा में सम्मिलित सरदारों को अपनी ओर लाना प्रारंभ किया | पहले संताजी के पास चालीस हजार की सेना रहती थी | अब कम – कम होते-होते वह 500 तक ही रह गई थी | इतने ही लोगों के साथ वह अपने ठिकाने पर गए थे | यही पर नागोजी माने ने संताजी की हत्या कर दी |
वह शूरवीर तो थे पर उनका व्यवहार ऐसा था कि सबको संतप्त कर दे | इसीलिए स्थिरबुद्धि महाराज की भी सुनने की सीमा हो गई थी | परिणाम ,उन्हें अकेले ही असहाय स्थिति में मरना पड़ा |
सात साल में चंदी को “झूल्फीकारखान” ने तीन बार घेरा डाला पर अबकी बार उसे किला जीतना जरूरी हो गया था क्योंकि बादशाह ने उस पर बहुत दबाव बनाया था | अब वह महाराज की मदद करना भी चाहता था और बादशाह को खुश भी रखना चाहता था | अब आप किताब पढ़ कर जाने की क्या महाराज को चंदी के किले से बाहर निकालने के लिए “झूल्फीकारखान” ने मदद की या नहीं ?
महाराज मराठी भूमि में पहुंचे तो किसकी मदद से ? चंदी के किले में महाराज की पूरी पत्नियां और बच्चे रह गए थे | क्या वह सब भी बाहर निकल पाए ?
आखिर महारानी ताराबाई तो स्वराज की धूरा अपने हाथ में क्यों लेनी पड़ी ? संताजी जैसे धुरंधर वीर की हत्या के बाद मराठा साम्राज्य कमजोर हुआ या ताकतवर ? इन सारे सवालों के जवाब पाने के लिए और अपने इतिहास को जानने के लिए पढिए – “शिवपुत्र राजाराम….”
तब तक पढ़ते रहिए | खुशहाल रहिए | मिलते हैं और एक नई किताब के साथ | तब तक के लिए ..
धन्यवाद !!

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