JHOMBI BOOK REVIEW AND SUMMARY IN HINDI

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                 झोंबी 

             आनंद यादव द्वारा लिखित 

रिव्यू –
झोंम्बी मराठी की प्रसिद्ध किताब है | इसे बहुत सारे पुरस्कार मिल चुके हैं जैसे की Read more “प्रियदर्शिनी अकादमी का सर्वोत्कृष्ठ साहित्य पुरस्कार 1988 में , महाराष्ट्र राज्य शासन का दे. भ. पद्मश्री डॉक्टर रत्नप्पा कुम्भार 1989 में , भारत सरकार का साहित्य अकादमी पुरस्कार 1990 में , दी फेडरेशन ऑफ़ इंडियन पब्लिशर्स 1989 में , प्रवरानगर विखे पाटिल पुरस्कार 1991 में , संजीवनी साहित्य पुरस्कार 1994 में मिल चुके है | महाराष्ट्र स्थित आकाशवाणी के सब केंद्रों पर झोंम्बी के नाट्य रूपांतर प्रसारित हो चुके हैं |
“झोंम्बी” एक लड़के की पढ़ाई के लिए किए गए संघर्ष की गाथा है | उसे संघर्ष इसलिए करना पड़ा क्योंकि किसी और ने नहीं बल्कि उसके खुद के पिता ने उसके रास्तों में रोड़े अटकाये | पाठक उसके पिता को अनपढ़ बोलकर छोड़ नहीं सकते | किताब में वर्णित उसके वर्णन से तो ऐसा ही लगता है कि उसमें समझदारी की कमी थी |
उसमे अपने बच्चों और पत्नी के प्रति कोई भी जिम्मेदारी की भावना नहीं थी | इसीलिए तो वह उसके पत्नी को ना चाहते हुए भी बच्चे देता रहा | उसे चाबुक से , हाथ से मारकर मरने की यातना देता रहा | बच्चों के सर पर कभी ममता का हाथ नहीं फेरा | उन्हें तो वह फ्री के नौकर लगते थे | वह उन्हीं से अपनी खेती के सारे काम करवाकर बैठ कर खाता रहा फिर कैसे ऐसे माता-पिता अपने बच्चों के मन में घर कर पाएंगे ? इसीलिए शायद लेखक के मन में भी अपने माता-पिता के लिए कोई अच्छी यादें नहीं है |
माता-पिता के होते हुए भी वह अनाथों का जीवन जीता रहा | लेखक को उनके पिता इतना मारते थे कि हमें आश्चर्य होता है कि वह जिंदा कैसे बचे ? लेखक के पिता ने लेखक को , उसकी मां को , भाई बहनों को सुबह से रात तक सिर्फ काम में लगाकर रखा |
जब आप इस पात्र के बारे में पढ़ोगे तो आपको बेहिसाब गुस्सा आएगा | इसने घर का मुखिया होने के नाते न तो किसी को अच्छा खाना दिया | नाही तो , अच्छी शिक्षा .. अगर यह एक पिता होने के नाते लेखक को अच्छी शिक्षा का अवसर उपलब्ध करा देता | तो ,लेखक को स्कूल की फीस के लिए स्कूल -स्कूल जाकर कार्यक्रम नहीं करना पड़ता | नाही तो , लोगों का अपमानास्पद व्यवहार झेलना पड़ता |
हम तो भगवान से प्रार्थना करेंगे | शिक्षा पाने की लालसा रखनेवाले किसी भी बच्चे को ऐसे पिता ना मिले | किताब की कहानी “कागल” गांव में घटित होती है जो महाराष्ट्र कर्नाटक बॉर्डर पर बसा हुआ है | लेखक का परिवार कर्नाटक से महाराष्ट्र में स्थानांतरित हुआ था | इसीलिए उनके परिवार मे कर्नाटक के रीति – रिवाज दिखाई देते हैं | जैसे लेखक के बड़े बहन की शादी , उसी के छोटे सगे मामा के साथ होती है |
वही महाराष्ट्र में इस रीति को बुरा माना जाता है क्योंकि यहाँ मामा , पिता की तरह होता है | किताब के आखिर में कहानी में वर्णित सभी पात्रों के जन्म साल दिए हैं | उस तालिका के अनुसार लेखक का जन्म 1935 का बताया है | 1935 मे खेतों में होनेवाली मेहनत का बयान किया गया है | जिसे पढ़ कर आप यह जान पाओगे कि किसानों को खेतों में अपना खून – पसीना कैसे एक करना पड़ता है | कहानी में गांधीजी की हत्या की घटना का भी उल्लेख किया गया है जिसके परिणाम स्वरुप भट्ट और पंडितों के घर जलाए गए थे | लेखक को जब से समझ आई तब से उन्होंने अपने जिंदगी की हर एक घटना को उनके शैक्षणिक वर्षों के साथ जोड़ा जिसका लेखा-जोखा किताब के आखिर में दिया गया है , जैसे की किस साल कौन से स्कूल में कौन से शिक्षक आए ? किन्होने उसकी स्थिति समझकर मदद की किसने नहीं ? उसके पिता ने पढ़ाई के रास्ते में कैसी रुकावटें डाली ? किताबों के लिए और स्कूल फीस के लिए लेखक ने क्या-क्या किया ?
उन्होंने इस किताब मे अपना दिल खोलकर रख दिया है | यहां तक की उन्होंने यह भी कबूल किया है की , उन्होंने चोरी की और जुआ भी खेला | इन्ही सब बातों से उनकी प्रमाणिकता दिखाई देती है | कहानी मे ग्रामीण भाषा का भरपूर उपयोग हुआ है | यही भाषा लेखक के जुबान पर चढ़ी हुई थी जिस कारण उनका बड़े क्लास में जाने के बाद अपने सहपाठियों द्वारा मजाक भी उड़ाया गया |
लेखक के पिता चाहते थे की वह पीढ़ी दर पीढ़ी परंपरा से चली आई खेती करें ना की पढ़ाई | वह इस विचार से ग्रसित था कि आनेवाली पीढ़ियो ने पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा व्यवसाय ही करना चाहिए | ना कि दूसरा.. जैसे की किसान का बेटा किसान बने , लोहार का लोहार और कुंभार का कुंभार .. लेखक के पिता की सोच कुएं में पड़े मेंढक की तरह थी जो अपनी सीमा से बाहर नहीं जाना चाहता और चाहता था कि उसका बच्चा भी वही करें |
पर उसका बच्चा पढ़ना चाहता था | शिक्षित होना चाहता था | उड़ना चाहता था | इसलिए शायद भगवान ने भी उसकी बुद्धि तीव्र बनाई जो इतनी कठिनताओं के बावजूद भी हर परीक्षा मे उत्तम नंबर लाता गया | अब साहित्य के क्षेत्र में लेखक का नाम ऊंचाई पर है | जिनकी भी विषम परिस्थितियां है फिर भी वह पढ़ना चाहते हैं | उन्होंने यह किताब जरूर पढ़ना चाहिए | यह एक प्रेरणादायक किताब है | वैसे अभी भारत सरकार भी पढ़ाई के लिए बहुत मदद करती है जो लेखक के वक्त नहीं थी | बस अपने पढ़ने की आस को कभी मत छोड़िए | लेखक की तरह .. इस प्रेरणादायक किताब के –
लेखक है – आनंद यादव
प्रकाशक है – मेहता पब्लिशिंग हाउस
पृष्ठ संख्या है – 483
उपलब्ध है – अमेजॉन और किंडल पर |
हिंदी , कन्नड़ और बंगाली भाषा में ..

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किताब का कुछ भाग “रसिक (1980 – 81)मे ,भाग्यश्री (1982) मैगजीन के दिवाली अंकों में छपकर आया था | देखा जाए तो गांव और शहर के जीवन भिन्न होते हैं | लेखक अपने साहित्य के माध्यम से ग्रामीण जीवन को अधिक परिणाम कारक दिखाते हैं | जो कोल्हापुर अपने शिक्षा के प्रचार – प्रसार , हॉस्टलों के लिए प्रसिद्ध है | उसी कोल्हापुर में लेखक को पढ़ाई के नाम पर कोई मदद नहीं मिली | बिना शिक्षा के व्यक्ति को यह समझ में ही नहीं आता कि अच्छा जीवन – यापन करना उनका हक है | इसीलिए डॉक्टर बाबासाहेब अंबेडकर , महात्मा ज्योतिबा फुले इन्होंने अपना सर्वस्व लोगों को शिक्षित करने में अर्पित किया |
हर एक गांव में स्कूल शुरू करना कर्मवीर भाऊराव पाटिल इन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया तो श्री म. माटे इन्होंने ग्रामीण विभाग में उपेक्षित समझे जानेवाले ग्रामीण साहित्य लेखन के लिए ललित – साहित्य के दरवाजे खोल दिए |
आनंद रात दिन खेतों में काम करता था फिर भी उसे भर पेट खाना नसीब नहीं होता था | उसके जैसी दयनीय आर्थिक स्थिति जिन बच्चों की रही होगी उनका भी जीवन शायद ऐसा ही रहा होगा | आनंद में मैट्रिक तक का एजुकेशन पूरी करने की जिद थी | जब वह स्कूल में जाता था तो उसके क्लास मे अमीर घरों के बच्चे भी होते थे | जब कभी उनके घर जाने का मौका मिला तो वहां की स्वच्छता , व्यवस्थितपना को देखकर उसे अपनी दशा के लिए दुख महसूस हुआ | फिर भी उस मायूसी के हत्थे न चढ़कर , घर से होनेवाले विरोध को ताक पर रखकर आनंद अपनी राह पर बढ़ता गया |
पढ़ाई से झोंम्बी लेता रहा | खेतों में बेशुमार मेहनत करता रहा | दरिद्र होते हुए भी बचपन के शौक पूरे करने के लिए उसने कभी जुआ खेला , कभी चोरी की , कभी फिल्मे देखी , तो किताबें खरीदने के लिए चोरी भी की |
लेखक इन सारी बातों को अभी एक उच्च स्थान से देखते हैं | वह शहरी जीवन जीते हैं | उनका और उनके परिवार का गाँव और खेतों से उतना संबंध नहीं रहा | गांव में वह रोटी के एक टुकड़े के लिए तरसते थे | उसी कागल गांव में अब उन्हे कीसी कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाया जाता हैं | गांव जाते-जाते जब कभी उनको कोई खेत दिखाई देता है तो उन्हे पुरानी बातें याद आ जाती है | वह सोचते हैं कि उनको ऐसा बचपन क्यों मिला ? वह सोचते हैं कि उनके जैसे और कितने बच्चे उनकी स्थिति से निकलने के लिए प्रयत्नों की पराकाष्ठा करते होंगे ?
झोंम्बी में वर्णित आनंद का बचपन जैसे संघर्षों के चलते कहीं गुम हो गया था क्योंकि उसके घर का मुखिया यानी कि उसका पिता उसे समझ ही नहीं पाया था | हमारा मानना है की अगर घर का मुखिया अपनी जिम्मेदारी अच्छे से निभाए | घर के हर एक सदस्य को अच्छे से संभाले | तो दुनिया में कोई दुःखी , भिखारी ना हो | नाही तो अनाथ आश्रमो में बच्चे और वृद्धाश्रम में वृद्ध हो ! दुनिया में ज्यादा से ज्यादा सुख और शांति हो | मुख्य द्वार पर अपनी नेम प्लेट लगाने से पहले घर का मुखिया एक बार यह जरूर सोचे की आप इस घर के मुखिया है | आईए , अब देखते है इसका सारांश –
सारांश –
लेखक का पिता उसके माता – पिता की लाड़ली संतान थी | इसीलिए शायद उसे पता नहीं था कि मार खाने के बाद कैसा दर्द होता है ? जो वह अपनी पत्नी तारा को हरदम दिया करता था | लेखक के पिता को उनके दादाजी ने पहलवान बनाया क्योंकि कोल्हापुर कुश्तियो के लिए प्रसिद्ध है क्योंकि शाहू महाराज को कुश्तियो का शौक था |
“तारा” याने लेखक की माँ को सबसे पहले बेटी “आनसा” हुई तो उसे बेटी होने पर बहुत गालियां पड़ी | और एक लड़की के बाद जब लेखक का जन्म हुआ तो बहुत जश्न मनाया गया | लेखक के जन्म के पहले अगर उनकी मां को और एक बेटी होती तो उन्हे घर से निकाल दिया जाता और उसका पति दूसरी शादी करता | इसीलिए तारा ने “बेटे की मां” बनने के लिए बहुत सारे भगवानों से प्रार्थना की |
लेखक के बचपन में ब्रिटिश राज था तो उन्होंने ब्रिटिश मिलिट्री को देखा | उनको ब्रिटिश मिलिट्री के लोगों से डर लगता था | गहरे कुएं का डर लगता था | इसी गहरे कुएं में एक दिन लेखक के बैल गिर गए | तब तो वह और ज्यादा डर गए | शाहू महाराज इन्होंने गांव के बच्चे पढ़ने चाहिए इसीलिए स्कूल स्थापित किए | लेखक के पिता उन्हें चौथी तक पढाना चाहते थे क्योंकि वह पूरी तरह अनपढ़ थे | वह व्यवहार में काम आने लायक एजुकेशन लेखक को देना चाहते थे | इसीलिए चौथी तक तो लेखक को कोई प्रॉब्लम नहीं हुई |
असल प्रॉब्लम तो पांचवी क्लास से शुरू हुई | लेखक के जीवन में मोटार – अड्डे का भी अचल स्थान है | लेखक ने जोगतीन के रूप में पहली बार ही साफ स्वच्छ कपड़ेवाली स्त्री को देखा क्योंकि लेखक के घर में सब लोग तीन-तीन दिन में नहाते थे | सब के शरीर पर मैले – कुचेले कपड़े रहते थे | तो उनके गांव के वृद्धों को देखकर आनंद को लगता ही नहीं था कि यह सब लोग कभी जवान भी रहे होंगे |
उनके गांव का वर्णन करते हुए वह लिखते हैं कि गांव के घर पुराने थे | उनकी छते बहुत ही नीचे आ गई थी | घरों के बीच में टेढ़ी – मेढ़ी गलियां थी | घरों के पीछेवाले भाग में कचरा जमा किया जाता था | लेखक के गांव में बीड़ी बनाई जाती थी | बड़े लोगों को देखकर उन्हें भी इसे पीने का चस्का लगा | पिता के हाथ का मार खाने के बाद ही उनकी यह लत छूटी | उन्होंने गांव में प्रचलित बहुत सारे खेल खेले |
उस जमाने के टीचर भी बच्चों को बहुत मारते थे पर अपने पिता की मार के सामने लेखक को टीचर की मार कुछ भी नहीं लगती थी | कोल्हापुर में मल्लविद्या को बहुत प्रोत्साहित किया जाता था | इससे जुड़े लेखक के बहुत सारे अनुभव है | कभी-कभी टीचर बच्चों को इतना मारते थे कि बच्चे पैन्ट में ही टॉयलेट तक कर देते थे | अब गरीब माता-पिता टीचर की शिकायत करने के बजाय बच्चों की ही स्कूल छुड़वा देते थे | पर लेखक ने तय कर लिया था कि चाहे कितनी भी मार सहनी पड़े | वह स्कूल जाना कभी नहीं छोड़ेंगे |
लेखक जब पहली पास हुए तब उनकी बड़ी बहन आनसा की शादी उनके छोटे मामा के साथ हुई | आनसा के घर की स्थिति अच्छी थी | इसीलिए वह लेखक का बहुत बड़ा आधार बनी और उनके मामा भी | क्लास के कुछ अमीर बच्चों की वजह से आनंदा को कहानियों की किताबें पढ़ने को मिली | अब किताबें खरीदने के लिए लेखक ने घर से पैसे चोरी किए क्योंकि उनको पॉकेट मनी के रूप में कुछ भी नहीं मिलता था | आनंद के पिता मूलतः आलसी व्यक्ति थे | मेहनत का काम करना उनकी जान पर आता था | ऐसे में जब उनको लगा कि आनंदा काम करने योग्य हो गया | तो वह सारे काम का भार उसके ऊपर डालकर बाहर घूमने लगे और आनंदा के स्कूल को छुट्टी होने लगी |
अब आनंदा पांचवी में पहुंच गया था | वह अब हफ्ते में एक ही दिन स्कूल जाने लगा था | उसे पांचवी में रणदिवे टीचर मिले | इनके मार्गदर्शन में आनंदा आगे बढ़ता गया और प्रोत्साहन से पढ़ाई के और करीब आता गया | रणदिवे टीचर गए और गस्ते टीचर आए | पर एब्सेंटी के कारण उन्होंने आनंदा की कोई मदद नहीं की | फीस न भरने के कारण उसकी पांचवी क्लास आधे में ही छूट गई | तब तक लेखक को फिल्में देखने का शौक लग गया था |
लेखक के पिता ने किराये की खेती ली थी | उसमें काम करने के लिए उन्होंने “गणपा” नाम का एक नौकर , लेखक के साथीदार के रूप मे रखा ताकि लेखक रात में चुपके से फिल्म देखने के लिए ना जा सके | गणपा कुछ दिनों में आनंदा का अच्छा मित्र बन गया | जब उसने अपना काम छोड़ा तो लेखक को बहुत दुख हुआ |
लेखक के भाई-बहन , उनकी माँ काम से इतने थक जाते थे की उनको यह जीवन समाप्त करने की इच्छा होती | लेखक की की बहन आनसा ने एक बार यह कोशिश की | उसे बचाया गया | आंनसा को उसके पति के घर भेजा गया | वहां-वह हर तरह से सुखी थी लेकिन अपने ही मायके में दुखी थी क्योंकि यहां जनसंख्या ज्यादा थी | काम ज्यादा थे | खाने को उतना ही कम था | सब लोगों के दुखों के लिए सिर्फ एक ही व्यक्ति जिम्मेदार था और वह है लेखक के पिता ..
लेखक के साथी अब छठवीं क्लास में चले गए थे | उनको पढ़ते देख लेखक का मन अपने प्रति दुखी होता था | आनंद का पढ़ाई की प्रति लगाव देखकर संघ के स्कूल के व्यक्तियों ने और विठोबा अण्णा ने लेखकके पिता को समझाया फिर भी इसका कोई असर नहीं हुआ | पर गांव के इनामदार दत्ताजीराव के कहने पर लेखक के पिता ने आनंदा को स्कूल भेजना स्वीकार किया |
इस तरह लेखक फिर से स्कूल जाने लगे | आनंद फिर से पांचवी क्लास में बैठा | अब उसको मंत्री टीचर , क्लास टीचर के रूप मे मिल गए | स्कूल के लोग अब आंद्या को आनंदा कहने लगे थे क्योंकि अब वह एक शिक्षित व्यक्ति था और ऐसे ही लोगों में रहता था | सौंदलगेकर टीचर की वजह से लेखक कविता करना और अभिनय करना सीख गए | तु. बा. नाईक टीचर की वजह से वह स्काउट में भर्ती हो गए | सणगर टीचर ने उन्हें चित्रकला में पारंगत बना दिया | सणगर टीचर ने आनंदा की चित्रकला परीक्षा की फीस भरी |
आनंदा ए ग्रेड में पास हो गया | वह अपनी होशियारी से स्कूल में प्रसिद्ध होने लगा | वह छठवीं पास करके सातवीं में चला गया | सातवीं में बोर्ड की परीक्षा होने के कारण यह वर्ष महत्वपूर्ण था और सातवीं पास करके अच्छी नौकरी भी मिल सकती थी | नई किताबों के लिए लेखक ने कितने ही बार अपने पिता से पूछा लेकिन उसके पिता ने उसको किताबें नहीं दिलवाई | आखिर मां से झूठ बोलकर उन्होंने किताबें ले ली | बाद में किताबों के लिए अपने पिता से मार भी खाई | इसमें लेखक ने उनकी और उनके भाई बहनों की दयनीय अवस्था का वर्णन किया है |
ऊपर से नई वाली खेती उन्हें कुछ उत्पन्न भी नहीं दे रही थी | ऐसे मे उनके घर की आर्थिक स्थिति और बिगड़ते जा रही थी | और दिन-ब-दिन आनंद के पिता का उसकी पढ़ाई के लिए विरोध भी बढ़ता जा रहा था | आनंदा की पढ़ने की इच्छा के लिए उनका पिता उनकी मां को ही जिम्मेदार मानता था | बहुत बार वह इस बात के लिए लेखक की माँ को मारता भी था | आनंदा अभी अपने पिता को बताएं बगैर ही स्कूल जाने लगा था | ऐसे में उसके पिता स्कूल गए | रास्ते में उन्होंने लेखक को बहुत मारा | दूसरे दिन यह बात स्कूल में और गांव में सबको पता चली |
तब बहुत सारे सन्माननीय लोगों ने और स्कूल के टीचरों ने आनंदा के पिता को समझाया | तब जाकर उसने आनंदा को स्कूल जाने की परमिशन दी | अब नियमित स्कूल जाने से लेखक ने सातवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की | वह पूरे तालुका में प्रथम आए | लेखक अब नौकरी तलाश करने लगे | तब उन्हें पता चला की नौकरी उन्हें तब मिलेगी जब वह 18 साल के हो जाएंगे | तब लेखक ने और आगे पढ़ने की ठानी और आनेवाले संघर्ष के लिए तैयार हो गए |
अब 18 साल का होने तक 3 साल खेतों में मजदूरो जैसा काम कर के निकालना तो उन्हें मंजूर न था | अपनी पढ़ाई के लिए अब वह गांव के ही स्कूलों में नाट्य कला कर के , पोवाडे गाकर , नकल करके पढ़ाई के लिए पैसे की मदद मांगने लगे | उन्हें गांव में अच्छा रिस्पांस मिला तो वह सोचने लगे कि शहर की स्कूलों में भी अपने कार्यक्रम करें | वहां उन्हें ज्यादा मददगार लोग मिलेंगे | ऐसे में एक दिन वह अपने पिता के अत्याचार के कारण घर और गांव छोड़कर भाग गए |
लेखक को लगा कि वह कमाई करके अपनी पढ़ाई जारी रख पाएंगे | अब आप पढ़कर यह जानिए कि क्या लेखक ने यह सही किया ? क्या उन्हें यही करना चाहिए था ? भाग कर वह कहां गए ? क्या कोल्हापुर में उन्हें शिक्षा में मदद करनेवाले लोग मिले ? उस कोल्हापुर में.. जो शिक्षा प्रदान करने के लिए प्रसिद्ध है | आनंद के भाग जाने के बाद उसके पिता की क्या हालत हुई ? क्या आनंदा फिर कभी गांव वापस लौटा ? या नहीं पढ़कर जरूर जानिए .. झोंम्बी | आनंदा की कहानी जारी रहेगी इसके बाद के भाग “नांगरणी” में ..
तब तक पढ़ते रहिए | खुशहाल रहिए | मिलते हैं और एक नई किताब के साथ | तब तक के लिए ..
धन्यवाद !!

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