DHARM-4 BOOK REVIEW SUMMARY IN HINDI

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महासमर – 4 धर्म
नरेंद्र कोहली द्वारा लिखित

रिव्यू –
यह महाभारत इस महाकाव्य का चौथा भाग है जिसे लिखा है नरेंद्र कोहलीजी इन्होंने | इस भाग का नाम है “महासमर 4 – धर्म” | इस भाग की कहानी हस्तिनापुर के विभाजन से शुरू होती है | इस विभाजन के नाम पर “खांडववन” पांडवों के हिस्से में आता है |
धृतराष्ट्र उन्हें राज्य के नाम पर ऐसा प्रदेश देता है जहां दस्युओ और अपराधकर्मियों का बोलबाला है | वह सोचता है , उनके साथ लड़ते-लड़ते पांडवों का अंत हो जाएगा और दुर्योधन हस्तीनापुर का निर्विघ्न राजा बन जाएगा |
खांडववन को “इंद्रप्रस्थ नगरी” बनाना , युधिष्ठिर का चक्रवर्ती सम्राट बनना , दुर्योधन द्वारा युधिष्ठिर का सब कुछ छीन लेना और फिर उन्हें 12 वर्षों का वनवास देना | इस भाग में शामिल है | लेखक ने इस भाग का नाम “धर्म” इसलिए रखा होगा क्योंकि महाभारत में वर्णित सच्चा धर्म क्या है ? यह उन्होंने यहां बताने की कोशिश की है क्योंकि बहुत से लोग धर्म को सिर्फ जाति या फिर किसी विशेष संस्कृति के साथ ही जोड़ते हैं |
पांडव हमेशा धर्म का सच्चाई से पालन करते थे | इसलिए भगवान कृष्ण उनके साथ थे | उनके सच्चे धर्म पालन के कारण भगवान ने उन्हें “धर्मराज्य” स्थापित करने के लिए चुना | उन्हें राजसुय यज्ञ करने के लिए मदद की | इस यज्ञ के लिए वह अपने साथ “द्वारका” से पर्याप्त धन भी लेकर आए थे |
उन्होंने पांडवों के “राजसूय यज्ञ” की सुरक्षा का भार स्वयं पर लिया था | धर्मराज युधिष्ठिर धन का लोभ नहीं करते थे | वे इस धन से प्रजा का भला करना चाहते थे | पांडवों ने जिन – जिन गुणों का प्रदर्शन किया है | उन्हें भगवान ने धर्म की श्रेणी में रखा है |
अतः उनका हमेशा साथ दिया है | न , की यादवों का ! या फिर कौरवों का ! उम्मीद है कि इस किताब को पढ़कर सच्चे धर्म के मायने आपकी समझ में आएंगे | इस बेहतरीन किताब के –
लेखक है – नरेंद्र कोहली
प्रकाशक है – वाणी प्रकाशन
पृष्ठ संख्या – 512
उपलब्ध है – अमेजॉन पर

लेखक की जानकारी हमने महासमर के पहले भाग “बंधन” में दी है | उसे भी आप जरूर देखें और पढ़े |
सारांश –
इस भाग में पांडव “खांडवप्रस्थ” पहुंच चुके हैं | यह पांडवों के पूर्वजों की राजधानी रह चुकी है | यह उनका अत्यंत क्षतिग्रस्त महल भी बना पड़ा है | पहले दिन पांडवों को इसी में निवास करना पड़ा | इसी दिन श्रीकृष्ण , अर्जुन इन्होंने आसपास के गावों का दौरा किया | लोगों से बातचीत की | उन्हें पता चला की यहाँ पूरी अराजकता व्याप्त है |
डाकुओ के अलग-अलग दलों का आतंक छाया हुआ है | गरीब जनता उनसे अत्यंत त्रस्त है | उनके पास न करने के लिए काम है | न तो खाने के लिए अन्न .. | वह अपना जीवन कैसे जी रहे हैं ? यह तो वही जानते है | राजा क्या होता है ? उनको पता ही नहीं क्योंकि उन पर अत्याचार करनेवाले डाकू प्रायः राजा के ही लोक होते है |
इसीलिए वह न्याय मांगने किसी के पास जा भी नहीं सकते | अब धर्मराज युधिष्ठिर के आने के बाद उनकी स्थिति बदल जाएगी | खाने को अन्न मिलेगा | उनकी सुरक्षा की जाएगी | करने को काम मिलेगा और उसके बदले पैसे भी मिलेंगे | इस पर तो उनको विश्वास करना भी मुश्किल हो रहा था |
उन्हे तो यह भी लग रहा था की काम के बदले पारिश्रमिक देने के लिए इनके पास धन भी है या नहीं | परंतु पांडवों ने अपने परिश्रम और सूझबूझ से वहां के ग्रामीणों का दिल जीत लिया | उनसे इंद्रप्रस्थ नगर बनवाने में मदद ली | महर्षि वेदव्यास के कहने पर युधिष्ठिर ने अपने नगर का नाम “इंद्रदेव” को समर्पित कर “इंद्रप्रस्थ” रखा |
इसके पीछे का राज श्रीकृष्ण को पता था | जब साधारण कामगारों द्वारा किया गया काम दस्यु तोड़कर जाते थे तो कृष्ण ने इंद्र से ही मिलने की ठानी | अब उनके बातों की और मुस्कान की मोहिनी ही इतनी थी कि इंद्रदेव को तो उनकी बात माननी ही थी |
उनके बीच हुए करार के अनुसार देवों के लिए काम करनेवाले “विश्वकर्मा” अपने सबसे दक्ष कारीगरों के साथ पांडवों की इंद्रप्रस्थ नगरी बनवाने के लिए आते हैं और अपना काम अच्छे से पूर्ण करते हैं | खांडवप्रस्थ मे खांडववन है | इन्द्र चाहता है की , खांडववन सुरक्षित रहे | पांडवों का नगर खांडववन से दूर ही बनाया जाए |
सब कुछ सेट हो गया था | ऐसे में एक दिन रात के वक्त अर्जुन के पास एक याचक आता है | उसकी गायों को कोई चोर चुराकर खांडववन की तरफ ले जा रहा था | इत्तेफाक की बात यह थी की अर्जुन उसी रात अपने दिव्यास्त्रों के साथ राजधानी लौटा था |
इन दिव्यास्त्रों का निर्माण उसने अपनी लैब में करवाया था | अर्जुन का लौटना अब तक किसी को भी पता नहीं था और भीम राजकुमारी “बलन्धरा” को प्राप्त करने उसके स्वयंवर में “काशी” गया हुआ था | इसलिए अर्जुन के मन में यह विचार आया की क्या अर्जुन और भीम को राजधानी में अनुपस्थित देख चोरों का हौसला बढ़ गया है |
चाहे जो भी हो ! अब तो अर्जुन के पास ऐसे दिव्यास्त्र है जिनके सहारे वह कितने भी लोगों के साथ युद्ध कर सकता था | उन्हें सबक सिखा सकता था | अर्जुन अब अपने दिव्यास्त्र लेने शस्त्रागार की तरफ चल पड़ता है | तभी उसे पता चलता है की युधिष्ठिर और द्रौपदी शस्त्रागार में “एकांत” में है |
अगर वह वहां प्रवेश करता है तो वह अपना वचन भंग करता है | सजा के तौर पर उसे बारह वर्षों तक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए संन्यासियों का जीवन जीना होगा पर अगर वह याचक की मदद नहीं करता है तो उसके भैया और राजा युधिष्ठिर का मानसम्मान धूल में मिल जाएगा |
अर्जुन शस्त्र लेकर खुद के लिए 12 वर्षों का वनवास चुनता है | हालांकि , युधिष्ठिर और द्रौपदी उसे अनेक प्रकार से समझाने की कोशिश करते हैं की उसने कोई भी वचन भंग नहीं किया लेकिन अर्जुन उनकी एक भी बात नहीं मानता |
अब अर्जुन के 12 वर्षों के वनवास की यात्रा आरंभ होती है | वह “इंद्रप्रस्थ” से चलकर “गंगाद्वार” पर पहुंचता है | यहाँ उसे बहुत दिनों बाद पवित्र गंगा नदी के दर्शन होते हैं क्योंकि “इंद्रप्रस्थ” यमुना नदी के तट पर बसा हुआ है जबकि “हस्तिनापुर” और “कांपिल्य” गंगा नदी के तट पर |
उसे गंगाद्वार से नागकन्या “उलूपी” बेहोश कर अपने पिता के राजप्रसाद में लेकर जाती है | अर्जुन को वह बताती है की उसने उसे अपना पती चुन लिया है और अब उससे विवाह करना चाहती है | अब अर्जुन अपनी प्रतिज्ञा के चलते किस तरह उससे विवाह करता है ? यह तो आपको किताब में ही पढ़ना होगा |
अर्जुन उसे अपनी यात्रा में साथ ले जाना चाहता है परंतु उलूपि अपने पिता की आज्ञा के बिना उनका राजप्रसाद नहीं छोड़ना चाहती | उसके पिता जब वापस आएंगे | तब वह अर्जुन के पास जा सकती है | इधर अर्जुन और भीम के न रहने से इंद्रप्रस्थ की स्थिति बहुत विकट है क्योंकि युधिष्ठिर हिंसा को प्रधान्यता नहीं देता |
इसी का फायदा खांडववन में रहनेवाले दस्यु उठाते हैं | वह इंद्रप्रस्थ के लोगों को परेशान कर खांडववन में भाग जाते हैं और अपराधी किस्म के लोग भी ..
पांडव और उनकी सेना जब उन्हें पकड़ने खांडववन के भितर जाना चाहती है तो इंद्र और उसके जैसी देवशक्तियां , उनकी सुरक्षा मे आगे आ जाती है | एक तरफ तो इन्द्र पांडवों के साथ मैत्री रखता है तो दूसरी तरफ वह पांडवों को त्रस्त करनेवाले लोगों की रक्षा भी करना चाहता है |
पांडव , इंद्र से की हुई कोई भी संधि तोड़ना नहीं चाहते | इसी कारण वह अपराधियों को दंड भी नहीं दे सकते और प्रजा पर अन्याय होते देख भी नहीं सकते | ऐसे में उनका राज प्रजा के लिए हास्यास्पद हो गया है | इस पर युधिष्ठिर सोचता है कि वह इसके लिए क्या करें ? वह भीम और कुछ सैनिकों को इंद्रप्रस्थ के व्यापारियों के साथ यात्रा पर भेजता है |
भीम के वापस आनेपर उसे पता चलता है की इंद्रप्रस्थ के बाहर कोई भी यात्री , व्यापारी , नागरिक सुरक्षित नहीं | राजा ही डाकू बनकर लोगों को लूट रहे हैं | ऐसे में पांडव और कृष्ण चाहते हैं की युधिष्ठिर चक्रवर्ती सम्राट बनकर सबको सुरक्षा प्रदान करें |
खांडववन की और ज्यादा खोजबीन करनेपर उनको पता चलता है की वन के भीतर “नागराज तक्षक” दुर्ग बनाकर उसमें छिपा बैठा है | उसके पास अत्यंत खतरनाक विष का प्रयोग करनेवाले विषधर है | इन्हीं विषधरों को इंद्र का संरक्षण प्राप्त है |
इन्ही विषधरों के खिलाफ अग्नि के सैनिक भी युद्ध करते रहते हैं | अब अर्जुन की यात्रा का ब्यौरा देखते हैं | द्रौपदी के बाद अर्जुन की दूसरी पत्नी उलुपि के पिता अब तक वापस आ चुके हैं | वह अर्जुन के बारे में उन्हें बताती है | अर्जुन के बारे में सुनकर उनके चेहरे पर निराशा के भाव आ जाते हैं |
नागराज तक्षक चाहता है की कोई भी नाग किसी भी अन्य जाति से संबंध ना रखें | स्पेशली पांडवों से .. जो भी उसकी बात नहीं मानेगा | वह उस पर उसके विषधरों का प्रयोग करेगा | और उसकी बात न माननेवाले लोगों के प्रिय लोगों का अहित करेगा | नागराज तक्षक कभी भी आमने – सामने का युद्ध नहीं करता है | वह हमेशा छिपकर वार करता है |
नागजाती में उलूपी भी शामिल है | वह उसके खिलाफ जाएगी तो तक्षक उसके पिता को मरवा सकता है या फिर जंगल , पहाड़ , नदियों , गांव में से अकेले पैदल यात्रा करनेवाले अर्जुन पर विषधरों का प्रयोग कर सकता है | इसीलिए उलुपि को अर्जुन और उसके संबंधों के बारे में मौन रहना होगा | उसे भूल जाना होगा | ऐसे जैसे कभी वह उसकी जिंदगी में आया ही नहीं | इस प्रकार उलुपि कभी अर्जुन के संग नहीं रह सकी | न उसके साथ जा सकी |
अब अर्जुन अपनी यात्रा करते हुए “मणिपुर” पहुंच गया है | ध्यान लगाते हुए उसे घोड़ों के टापों ने विचलित किया | उसने सोचा की , किसी राजा का सैन्य अभियान होगा | वह उस शोरगुल से बचने के लिए एकाकी पड़े शिवालय में पहुंचा तो वहां भी वही स्थिति | वहाँ तो गरीब प्रजा अपने प्राण बचाने के लिए आई थी |
अर्जुन ने देखा मणिपुर का अत्यंत ही कोमल , किशोर राजकुमार थोड़े से सैनिकों के साथ डाकुओं से भिड़ने चला है | उसकी हार निश्चित है | यह देखकर अर्जुन के अंदर बैठा क्षत्रिय सक्रिय हो गया | उसने अपने धनुर्विद्या से सब का सफाया कर दिया और वहां से वन में चला गया |
उसे रह – रहकर उस राजकुमार का चेहरा याद आता रहा जिस कारण अर्जुन बहुत विव्हल हो गया | मणिपुर के राजा “चित्रवाहन” ने उसे राजमहल में बुलावा भेजा और साथ में राजकुमारी ने भी .. पर वह वहाँ नहीं गया | राजकुमारी ने जंगल में जाकर अपने हाथों से अर्जुन के लिए कुटिया बनाई लेकिन क्यों ? इसका उत्तर जानने के लिए वह राजमहल गया |
वहां उसे पता चला की राजकुमार कोई और नहीं बल्कि राजकुमारी “चित्रांगदा” ही थी | उसे दो बार देखने के बाद ही अर्जुन उस पर मुग्ध हो गया | उसने उसके पिता से उसको मांग लिया | राजकुमारी चित्रांगदा सचमुच बहुत ही खूबसूरत रही होगी | तभी तो ! जिस अर्जुन पर सारी लड़कियां मर मिटती थी | वह राजकुमारी चित्रांगदा पर मुग्ध हो गया |
अर्जुन , चित्रांगदा के साथ विवाह करता है | इस शर्त के साथ की उनका पहला पुत्र मणिपुर का राजा होगा और चित्रांगदा के पिता चित्रवाहन का वारिस होगा | इसीलिए तो उसका नाम भी उसके नाना के नाम पर “बभ्रूवाहन” रखा गया |
अर्जुन यहां सदा के लिए नहीं रह सकता था | वह चाहता था की चित्रांगदा उसके साथ आगे की यात्रा कर “इंद्रप्रस्थ” आए लेकिन वह पुत्रमोह में मणिपुर में ही रह गई | अर्जुन आगे की यात्रा कर गुजरात के “प्रभास” पहुंचा | वहां उसकी मुलाकात श्रीकृष्ण से होती है क्योंकि द्वारका भी वही पास में है |
अर्जुन कृष्ण के साथ द्वारका चला जाता है | वह वहां “रैवतक पर्वत” के समारोह मे पहली बार “सुभद्रा” को देखता है | उस दौरान सुभद्रा के विवाह की चर्चा भी चल रही होती है | सब लोग अपने-अपने पसंद के अनुसार उसके लिए वर पसंद करते हैं |
ऐसे में कृष्ण चाहते है की अर्जुन , सुभद्रा का अपहरण करे | इस पर अर्जुन कहते हैं कि वह सुभद्रा के पिता वासुदेव से उन दोनों के रिश्तों के बारे में बात करें पर कृष्ण कहते हैं की सारे यादव एक दामाद के रूप में तुम्हें नकार देंगे क्योंकि यादवों की नजरों में तुम्हारा कोई सम्मान नहीं है |
वे समझते है की तुम लोग यादव और पांचालों की मदद के बिना कुछ नहीं हो ! इसलिए यादव तुम से स्नेह तो करते हैं लेकिन तुम्हारा सम्मान नहीं | वे आजकल धन को ज्यादा महत्व देने लगे हैं | इसीलिए तो वह “सुभद्रा” के लिए “दुर्योधन” के नाम का विचार कर रहे हैं | वह उसके धन को देख रहे हैं ना कि उसके पतित चरित्र को !
कृष्णा हमेशा ही सच्चाई और अच्छाई की तरफ रहते हैं | वे चरित्र देखते हैं | इसलिए उन्होंने वीर और धर्म के मार्ग पर चलनेवाले अर्जुन को सुभद्रा के लिए चुना | श्रीकृष्ण यह भी चाहते हैं कि धर्मराज्य की स्थापना की शुरुआत पांडव करें | ना कि यादव !
यादव इसलिए नहीं क्योंकि वह धन के लोभी हो गए हैं और धर्म के मार्ग से भटक गए हैं | यादवो की नजरों में अपना सम्मान बढ़ाने के लिए पांडवों को अपना राज्य बढ़ाना होगा | इसकी शुरुआत उन्हें खांडववन से ही करनी होगी क्योंकि उसमे पांडवों की शक्ति को चुनौती देनेवाले अपराधकर्मी लोग रहते हैं |
श्रीकृष्ण , अर्जुन , अग्नि की सहायता से पूरे खांडववन को जलाकर भस्म कर देते हैं | इस वन को जलाते ही इसकी खबर इंद्र तक पहुंच जाती है | वह तुरंत अपने मित्र तक्षक और उसके परिवार की मदद करने वहां पहुंच जाता है |
खांडववन को जलाते समय तक्षक वहां रहता ही नहीं | उसकी पत्नी और पुत्र की रक्षा इंद्र कर लेते हैं | उनका अभियान पूर्ण होता है और वह वापस चले जाते हैं | देव अग्नि ने बहुत बार खांडव दहन करने का प्रयत्न किया था लेकिन इंद्र की वजह से नाकामयाब रहे |
इसलिए इस बार देवअग्नि श्रीकृष्ण और अर्जुन को उनके शौर्य और पराक्रम के अनुसार शस्त्र देते हैं जिसमें शामिल है , श्री कृष्ण के लिए “सुदर्शन चक्र” और “कौमुदकी गदा” | अर्जुन के लिए “गांडीव धनुष” जिसकी सहायता से वह अग्निदेव का मंतव्य पूर्ण करते हैं |
अर्जुन ,सुभद्रा का हरण करने के पहले अपने बड़े भैया युधिष्ठिर और माता की आज्ञा भी लेते हैं क्योंकि सुभद्रा कुंती के भाई की बेटी है | उसके अपहरण से कहीं उन दोनों के संबंध खराब ना हो जाए ! दूसरे यह कि अगर यह रिश्ता होता है तो सुभद्रा के एक बुलावे पर सारे यादव दौड़े चले आएंगे जैसे की द्रोपदी के बुलावे पर उसके भाई दृष्टद्युम्न , शिखंडी और पिता द्रुपद चले आते हैं |
सुभद्रा हरण के वक्त जब वह रथ में रहती है तो बहुत सी बातें अपने आप समझ जाती है जैसे कि कृष्ण का रथ और घोड़े जिसे अर्जुन चल रहा होता है क्योंकि कृष्ण की मर्जी के बिना उनके घोड़े एक पग भी आगे नहीं बढ़ते |
जो शस्त्र रथ मे रखे रहते है | वह कृष्ण की मर्जी के बिना कोई रख ही नहीं सकता | इस से ही वह समझ जाती है की यह सब उसके भाई की इच्छा है | कृष्ण ने रथ में वह भी शस्त्र रखवाए थे जिनका अभ्यास सुभद्रा ने पिछले दिनों किया था |
इससे वह समझ गई की वह अगर अर्जुन के साथ न जाना चाहे तो उन शस्त्रों से उसके ऊपर वार भी कर सकती है लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी | अर्जुन ने अपना शौर्य और पराक्रम दिखा दिया था | वह भी एक भी यादव सैनिक को घायल किए बगैर .. और सुभद्रा अर्जुन के इसी पराक्रम पर मन हार गई और उसने अर्जुन को पति के रूप में स्वीकार कर लिया जैसा कि कृष्ण चाहते थे |
पहले तो द्रौपदी ने सुभद्रा के आने पर बहुत गुस्सा दिखाया | बाद में वह पिघल गई | अब पांडवों का परिवार भी बढ़ गया था | कृष्ण के मौसेरे भाई शिशुपाल ने अपनी बेटी की शादी नकुल के साथ कर दी थी | इस इरादे के साथ कि वह रिश्ते की दुहाई देकर पांडवों को कृष्ण के खिलाफ भड़काकर जरासंध के खेमे में शामिल कर लेगा |
इस रिश्ते का और एक परिणाम यह हुआ की शिशुपाल का बेटा पांडवों के रंग में रंग गया | खांडव दहन में ही अर्जुन और कृष्ण को “मय दानव” मिलता है | वह श्रेष्ठ वास्तुशिल्पी है | यह तक्षक का अतिथि था | अर्जुन ने उसकी जान बचाई | इसकी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए वह पांडवों को एक प्रसाद बनवाकर देगा जो असाधारण होगा |
इससे उसके मन का बोझ कुछ कम होगा | मय दानव के बनाए हुए प्रासाद मे युधिष्ठिर के चक्रवर्ती सम्राट होने की घोषणा की जाएगी | खांडव दहन के पश्चात इंद्रप्रस्थ पर दुर्योधन या फिर अन्य राजा लोग आक्रमण कर सकते हैं |
उसके पहले ही पांडवों ने उन पर आक्रमण करना चाहिए | अपनी शक्ति बढ़ानी चाहिए | इसलिए उन्होंने “राजसूय” यज्ञ करना चाहिए जो कहता है कि छोटे राज्यों की असुविधाओं से , अधर्मी और स्वार्थी राजाओं के अत्याचारों से , उत्पीड़न से प्रजा को बचाने के लिए इस यज्ञ को करना चाहिए |
“राजसुय यज्ञ” की शुरुआत “खांडवदहन” से हो चुकी है | अब “जरासंध” को उसके राज्य “गिरिव्रज” में ही मार देना चाहिए क्योंकि सारे राजा उसी के नक्शे कदम पर चलना चाहते हैं ना कि धर्म के रास्ते पर जिस पर युधिष्ठिर चलता है |
इसलिए कृष्ण चाहते हैं की जरासंध ने जिन राजाओं को बलि देने के लिए बंदी बनाकर रखा है | जरासंध को मारकर उन राजाओं को मुक्त किया जाए ताकि उनका समर्थन और शक्ति युधिष्ठिर को प्राप्त हो सके और सब उसका अनुसरण करें | इसलिए जरूरी है की जरासंध का वध भीम करें ताकि जरासंध का संपूर्ण राज्य , उसके मित्रों की शक्ति युधिष्ठिर को मिले |
युधिष्ठिर की शक्ति बढ़े | उनका राज्य संपन्न हो ! धर्मराज्य स्थापित हो ! इसलिए तो जब बलराम , जरासंध को मारनेवाले थे तो कृष्ण ने उन्हें रोक दिया था | नहीं तो , सारा क्रेडिट यादवों को चला जाता | होता भी यही है | श्रीकृष्णजी की योजना अनुसार भीम जरासंध को मार देता है |
इस कार्य के लिए वह जरासंध की ही नगरी को चुनते हैं | इसके लिए भीम ,अर्जुन और श्रीकृष्ण मगध में जाते हैं | जरासंध के बाद उसका बेटा सहदेव सिंहासन पर बैठता है | वह श्रीकृष्ण का भक्त है | अतः मगध की शक्ति भी युधिष्ठिर को मिल जाती है |
जरासंध मंडल का मुख्य है “शिशुपाल” | शिशुपाल यह देखकर खुश होता है कि पांडवों के राजसुय यज्ञ में यादव और पांचाल अनुपस्थित है | सारे महत्वपूर्ण कार्य सिर्फ कौरवों को दिए गए हैं |
यहाँ उसका विचारमंथन बताया गया है | उसे ऐसे हाईलाइट किया गया है जैसे फिल्मों में किसी पात्र का रोल खत्म होनेवाला होता है तो उसे थोड़ा ज्यादा देर तक स्क्रीन टाइम मिलता है | वैसे ही शिशुपाल का हुआ है क्योंकि थोड़ी ही देर में उसका भी रोल महाभारत से खत्म होनेवाला रहता है |
शिशुपाल ,हालांकी श्रीकृष्ण के मौसी के पुत्र है | फिर भी वह कृष्ण से वैरभाव रखते हैं | इसलिए जब पांडवों के राजसुय यज्ञ में श्री कृष्णजी की अग्रपूजा होती है तो शिशुपाल अपना आपा खो देता है | अनर्गल प्रलाप करने लगता है | तभी श्री कृष्ण अपने सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट लेते हैं क्योंकी उन्होंने राजसुय यज्ञ के सुरक्षा की जिम्मेदारी ली रहती है |
पांडवों का राजसूय यज्ञ निर्विघ्न पूरा होता है | दुर्योधन उनकी प्रतिष्ठा और धन देखकर ईर्ष्या से जलभून जाता है | वह पांडवों से यह सब छीन लेना चाहता है | उसकी यह ईर्ष्या धृतराष्ट्र को पता चल जाती है | उसके अनुसार दुर्योधन अगर पांडवों से युद्ध करेगा तो मारा भी जा सकता है | इसलिए धृतराष्ट्र कोई और मार्ग निकालना चाहता है | वह मार्ग शकुनी उसे सुझाता है | “द्यूत का मार्ग”
पांडवों को निमंत्रण देकर बुलाया जाता है | धृतराष्ट्र युधिष्ठिर को द्यूत खेलने की आज्ञा तो देता है लेकिन युधिष्ठिर को उठ जाने की आज्ञा नहीं देता तब तक , जब तक वह सब कुछ हार नहीं जाता | युधिष्ठिर अगर खुद उठ जाता है तो बड़ों की आज्ञा का उल्लंघन होगा | मतलब पांडवों का धर्म नष्ट होगा |
पांडव अपना धर्म कभी भी नष्ट नहीं करना चाहते क्योंकि इसी धर्म के कारण साक्षात विष्णु के अवतार श्री कृष्ण उनके साथ है | यह धर्म किसी जाती विशेष से संबंधित नहीं है बल्कि सच्चा धर्म मतलब बड़ों की आज्ञा का पालन करना , स्त्री का सम्मान करना , पराक्रमी होते हुए भी सामनेवाले को माफ़ करना , ताकतवर होते हुए भी निर्बलों की – कमजोरों की रक्षा करना , धन होते हुए भी धन का लोभ न करना | उसे जनकल्याण के लिए उपयोग में लाना ..
युधिष्ठिर को पता है की वह धृतराष्ट्र , दुर्योधन और शकुनि के षड्यंत्र में फसता जा रहा है जैसा कि उसे भगवान वेदव्यास ने पहले ही आगाह किया था | वह यह बात अपने किसी भाई को बता भी नहीं सकता | नाही तो इस षड्यंत्र से बाहर निकल सकता है | आखिरकार , दुर्योधन अपने सारे घृणित कार्यों में सफल हो जाता है | द्रौपदी के अत्यंत अपमान के बाद गांधारी इस खेल में हस्तक्षेप करती है |
और पांडवों को बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवास की सजा धृतराष्ट्र की ओर से सुनाई जाती है | इसी के साथ इस भाग की समाप्ति हो जाती है | पांडवों की यात्रा जारी रहेगी इसके अगले भाग “अंतराल” मे | पढ़िएगा जरूर | तब तक पढ़ते रहिए | खुशहाल रहिए | मिलते है और एक नई किताब के साथ | तब तक के लिए ..
धन्यवाद !

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