टॉप 10 छोटी लेकिन प्रभावशाली किताबो मे से पहली किताब है – रघुवंश
BOOK REVIEW AND SUMMARY IN HINDI
रघुवंश
महाकवि कालिदास द्वारा रचित
रिव्यू –
“रघुवंश” रामायण के पहले और बाद की कहानी बयां करता है | हालांकि , कहानी कवि ने त्रेता युग की लिखी पर पृष्ठभूमि अपने ही काल की रखी क्योंकि इसमें वर्णित कुछ कुछ राज्य रामायण के काल में थे ही नहीं | आप जब यह ग्रंथ पढ़ोगे तो आपको पता चलेगा की कालिदास को महाकवि क्यों कहते हैं ?
उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति , वस्तु , प्रकृति और घटनाओं का वर्णन करने के लिए बहुत सारी उपमाये , अलंकार और अद्भुत शब्दों का प्रयोग किया है | महाकवि कालिदास के जन्म संबंध में चर्चा हम उनके द्वारा रचित “अभिज्ञान शाकुंतल” में कर ही चुके हैं | इसलिए वही बात फिर से नहीं दोहराते | इस ब्लॉग का लिंक नीचे दिया है जरूर चेक करें |Check out ABHIGYAN SHAKUNTAL book review
रघुवंश में उन्होंने महाराज रघु की दिग्विजय यात्रा का वर्णन किया है | इसमें उन्होंने भारत के कोने-कोने की भौगोलिक विशेषताओं का वर्णन किया है | महाकवि कालिदास ने अपने काव्य में संपूर्ण भारत के अलग-अलग जगह का वर्णन किया है | उन्होंने अपने आप को और अपनी प्रतिभा को किसी एक प्रदेश में ना समेटते हुए संपूर्ण भारत वर्ष को ही अपना निवास बना डाला है |
यह तो हो गई उनके जन्म स्थान के बारे में बातें | अब बात करें उनके काल की … की वह कौन से समय में हो गए ? तो इस बाबत उनके काव्यों में या कहीं और कोई अन्य प्रमाण नहीं मिलते |
जानकारी के अनुसार वह सम्राट विक्रमादित्य की सभा के नवरत्नों में से एक थे | पश्चिम के विद्वानों ने तो सम्राट विक्रमादित्य को एक काल्पनिक पुरुष माना | इसलिए उन्होंने कई ताम्रपत्रों और शिलालेखों का अध्ययन किया | ऐसे में उनको कई विक्रमादित्य मिले पर वह नहीं जिनके समय में कालिदास होकर गए |
इन सब वाद-विवाद पर जय पाने के बाद यह तय हुआ कि महाकवि कालिदास भारत भूमि पर राज्य करनेवाले प्रतापी सम्राट विक्रमादित्य के राज दरबार के एक रत्न थे | इसी सम्राट विक्रमादित्य का अनुकरण करने के चक्कर में अनेक सम्राटों ने अपने नाम के साथ विक्रमादित्य की उपाधि जोड़ी |
भले ही कवि ने कहीं पर भी अपने बारे में जानकारी नहीं लिख रखी पर उन्होंने अपने काव्य की पृष्ठभूमि अपने समयकाल की ही रखी | इससे हमें उस समय के राजनीतिक भावनाओं , धार्मिक विचारों , सामाजिक और भौगोलिक परिस्थितियों का स्पष्ट और सटीक चित्र मिलता है |
कुमारसंभव , मेघदूत , रघुवंश यह सारे काव्य अमूमन उस काल के राजाओ , राजपरिवारों और राजमहलों की अवस्थाओं का वर्णन करते हैं | इसके साथ ही प्रजा के जीवन की भी थोड़ी बहुत झलक देखने को मिलती है | संक्षिप्त में राजा पराक्रमी और प्रजापालक थे | उनकी वीरता के कारण बुरे आचरणवाले राजा और दस्यु डर कर रहते थे | वह खुद को प्रजा के रक्षक और सेवक मानते थे |
प्रत्येक कवि और लेखक किसी एक कल्पना को केंद्र बिन्दु बनाकर अपनी रचना करते हैं | अब महाकवि कालिदास की रघुवंश की रचना करने के पीछे क्या प्रेरणा रही होगी क्योंकि इन का हेतु लोककल्याण था ना कि यश , धन और कीर्ति | इसीलिए भी शायद यह इतना प्रसिद्ध हुआ |
रामायण का काव्य हमें असत्य पर सत्य की जीत का संदेश देता है | प्रस्तुत ग्रंथ में कवि ने रघुवंश के उत्थान और पतन की बात बताई है | रघुवंश जिस राजा के नाम से प्रसिद्ध हुआ | उनके पिता महाराज दिलीप से लेकर तो राजा कुश तक इस राजकुल का सूर्य प्रखरता से तड़पता रहा |
राम पुत्र कुश और उसके भाइयों में वह बात न थी और यही से रघुकुल का प्रताप खत्म होने लगा | जब तक रघुवंश के राजाओं ने अपनी वीरता का प्रदर्शन किया , अपने को प्रजा का पालक और रक्षक माना | जब तक धर्म के रास्ते पर चले | तब तक उनकी कीर्ति अबाधित रही | जब उन्होंने खुद को सुरा और सुंदरी में डुबो दिया तो उनका पतन हुआ क्योंकि राजवंशों के इमारत की नींव सेवाभाव , तपस्या और वीरता पर खड़ी होती है |
जब इसका स्थान कायरता , लंपटता और प्रमाद ले लेता है तो वह राजकुल ही नष्ट हो जाता है | कवि ने रघुवंश से यही शिक्षा देने की कोशिश की है | यही शिक्षा और चेतावनी उन्होंने अपने मित्र और संरक्षक सम्राट विक्रमादित्य के वंशजों को देने के लिए ही इस ग्रंथ की रचना की हो ! ऐसा विद्वानों का मानना है |
रघुवंश की कहानी को पूरे 19 अध्यायो मे समेटा गया है | प्रस्तुत ग्रंथ के –
रचयिता है – महाकवि कालिदास (संस्कृत )
हिन्दी भाषांतरकार – इन्द्र विद्यावाचस्पति
प्रकाशक – राजपाल एण्ड संस
पृष्ठ संख्या – 94
उपलब्ध – अमेजन और किन्डल पर
सारांश –
रघुवंश के संस्थापक महाराज दिलीप थे | वह बलवान , तेजस्वी और प्रजापालक राजा थे | सब कुछ था उनके पास | सिर्फ एक सुख छोड़कर …. संतान सुख |
अब उन्हें संतान प्राप्ति क्यों नहीं हो रही थी ? यह और इसका उपाय हमने “उल्टा लटका राजा” इस किताब के रिव्यू में बताया है | उसे आप जरूर चेक करें | Check out our other blog post ULTA LATKA RAJA इसीलिए अभी सीधे महाराज दिलीप के पुत्र महाराज रघु के राज्यकाल पर आते हैं | महाराज रघु भी अपने पिता दिलीप के जैसे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी थे |
इसीलिए शायद प्रभु राम भी सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी रहे होंगे | खैर ,बात करते हैं महाराज रघु की तो जब वह युवा हुए तो उन्हें युवराज पद पर बिठाकर महाराज दिलीप 100 अश्वमेध यज्ञ करने बैठ गए |
99 तो पूरे हो गए पर सौ वे यज्ञ का घोड़ा इंद्रदेव ने भगा लिया क्योंकि अगर महाराज दिलीप 100 यज्ञ पूरे कर लेते तो वह देवराज इंद्र के समान सम्मान और अधिकार के योग्य हो जाते | इंद्रदेव यह कदापि नहीं चाहते थे | अब घोड़े को वापस पाने के लिए युवराज रघु और देवराज इंद्र मे घमासान युद्ध हुआ |
युद्ध मे युवराज रघु ने देवराज इंद्र के वज्र का प्रहार सहन कर लिया | यह देखकर देवराज इंद्र चकित हो गए और शांत भी | उन्होंने युवराज रघु को मनचाहा वर देकर युद्ध समाप्त किया |
महाराज दिलीप के 99 यज्ञों ने उनकी मृत्यु के पश्चात स्वर्ग तक जाने के लिए 99 सीढ़ियां तैयार कर ली थी | अब वह अपना राजपाठ रघु को सौंप कर तपोवन में चले गए | पूर्व महाराज तपोवन चले जाए | यही रघुकुल की रीत थी |
रघु ने अब अपनी दिग्विजय यात्रा आरंभ की | उन्होंने अपने प्रताप से अपने पिता से भी ज्यादा ख्याति प्राप्त कर ली | अब वह चक्रवर्ती सम्राट थे | इन्होंने भी गुरु वशिष्ठ के आदेशानुसार लंबे समय तक प्रजा का पालन किया और वृद्धावस्था में अपने राजकाज का भार अपने पुत्र “अज” के कंधों पर डाल दिया |
इनका पुत्र “अज” भी प्रतापी सम्राट हुआ | अज के पुत्र दशरथ की कीर्ति तो दसों – दिशाओं में विख्यात थी | यह भी एक प्रतापी सम्राट हुए | अब तक रघुवंश में हुए सभी सम्राट प्रतापी ,विद्वान और धार्मिक थे | इसीलिए वह अपने वंश के यश और प्रताप को दसों – दिशाओं में फैलाने में कामयाब हुए |
इसी कुल में जन्मे प्रभु श्री राम तो असाधारण महापुरुष थे | उनका स्थान संपूर्ण रघुकुल में , पूरे भारतवर्ष में , यहां तक की संपूर्ण संसार में अद्वितीय है | मर्यादा पुरुषोत्तम राम के उज्जवल चरित्र ने रघुवंश की कीर्ति को अमर कर दिया | राम के पीछे राज्य की बागडोर कुश , लव और उनके भाइयों के हाथों में आ गई पर इनमें वह तेज और प्रताप न था और यही से रघुवंश का पतन शुरू हुआ |
अपने जीवनकाल में ही प्रभु श्री राम ने सबको अपना एक-एक राज्य दे दिया था | अब वह वही के राजा बनकर अपना राज्य कारभार संभालने लगे थे | परिणाम , श्री रामजी के जाने के बाद अयोध्या की जगह अनेक केंद्र राजधानियां बनी |
जब प्रभु श्रीराम अपना नश्वर शरीर छोड़कर यहां से चले गए तो उनके साथ-साथ उनके भाई – बंधु और नगर के प्रजाजन भी चले गए | जब अयोध्या वीरान पड़ी थी तब एक स्त्री फटेहाल रूप में कुश के सपने में गई | उसने खुद का परिचय अयोध्या नगरी के रूप में दिया जो प्रभु राम के जाने के बाद लावारिस पड़ी थी |
उसने कुश को अयोध्या में अपनी राजधानी बनाने के लिए कहा ताकि वह अपने पहले के वैभव को प्राप्त कर सके पर यह हो ना सका | कुश तब अपनी राजधानी “कुशावती” में रहता था और लव “शरावती” में बस गया था | प्रभु राम ने सिंधु देश “भरत” को दे दिया था |
“भरत” ने अपने राज्य सिंधु देश को गंधर्वों के उत्पातो से मुक्त किया | भरत ने अपने पुत्र “पुष्कर” को पुष्कलावती और तक्ष को तक्षशिला का राजा बना दिया |
लक्ष्मण ने अपने पुत्रों अंगद और चंद्रकेतु को “कारापथ” का शासक बना दिया था | इसी वजह से रघुवंश की केंद्र सत्ता रही अयोध्या , महाराज राम के जाने के बाद खंडहर बन गई |
महाकवि कालिदास ने रघुवंश काव्य के अंत के दो भागों में कुश के 24 उत्तराधिकारियों का उल्लेख किया है | अब सिर्फ उसके ही क्यों ? क्योंकि कुश सब भाइयों में बड़ा था | रघुकुल की रीति के अनुसार सब भाइयों ने कुश को अपना बड़ा भाई मान लिया था और कुश प्रभु श्री राम के वंशज भी थे |
उसके उत्तराधिकारियों में से सिर्फ “अतिथि” नाम के राजा प्रतापी थे | बाकी सब सामान्य थे | “नल” नामक राजा युवावस्था में ही अपने राज्य का भार अपने पुत्र के कंधे पर डालकर बैरागी हो गया | “परीयात्र” असमय मृत्यु को प्राप्त हुआ | ध्रुवसंधि को शिकार का बड़ा शौक था | परिणाम ! वह शेर द्वारा मारा गया |
सुदर्शन को सिर्फ 16 साल में ही राजा बना दिया गया | यद्यपि उसकी शिक्षा अधूरी थी फिर भी उसने अपने महान पूर्वजों के प्रताप और तेज को याद कर अपना कर्तव्य अच्छे से निभाया | इसीलिए कविवर्य कालिदास ने अपने काव्य मे उन्हें विशेष सम्मान दिया है |
राम के बाद कुश और कुश के बाद अतिथि और अतिथि के बाद उनके वंशजो कि नामावली देखे तो उनके पराक्रम और वीरता का पतन ही दिखाई देता है और यह आगे भी जारी रहा | इतना की आज हम उनके वंशजों को जानते तक नहीं | रघुकुल के संस्थापक महाराज दिलीप , सिंह को देखकर भी विचलित नहीं हुए थे | उनका ही एक वंशज सामान्य शेर द्वारा मारा जाए | यह विटम्बना नहीं तो क्या है ?
ध्रुवसंधि और सुदर्शन के समय जो थोड़ी बहुत कीर्ति बची थी | वह तो सुदर्शन के अयोग्य पुत्र “अग्निवर्ण” के कारण रसातल को ही चली गई | अग्निवर्ण , सुंदर और वीर तो था पर वह चरित्र से उतना ऊंचा नहीं था जितना कि उसके पूर्वज …
कुछ समय तक तो उसने अपने पूर्वजो जैसे राज्य कारभार किया | उसके बाद वह भोग – विलास में डुब गया | राज्य – कारभार मंत्रियों के हवाले कर दिया | राजा के पतन ने उसके राज्य का भी पतन किया | उसे सुरा और सुंदरी के अती भोग से अत्यंत जानलेवा रोग हो गया | परिणामी ,वह राज्य को वारिस दिए बगैर ही स्वर्ग सिधार गया |
उसके जाने के बाद उसकी गर्भवती पत्नी को ही सिंहासनारूढ किया गया | एक अजन्मे बच्चे को ही लोगों ने अपना राजा चुन लिया था | इस प्रकार जिस वंश की कीर्ति दिलीप की तपस्या , रघु के पराक्रम और राम के प्रभावशाली व्यक्तित्व के कारण दसों – दिशाओं में फैल चुकी थी |
वह ध्रुवसंधि और अग्निवर्ण जैसे व्यसनी और लंपट उत्तराधिकारियों की वजह से पतन की ओर अग्रसर हुई | ऐसे असभ्य आचरण से बचा जाए | यही संसार के शासको के लिए महाकवि कालिदास का अमर संदेश है | रघुवंश को विस्तृत रूप से जानने के लिए जरूर पढिए – महाकवि कालिदास रचित -“रघुवंश”…. अमेजन से अभी खरीदे और पढ़ना शुरू करे | https://amzn.to/4muBX9v तब तक पढ़ते रहिए | खुशहाल रहिए | मिलते है और एक नई किताब के साथ | तब तक के लिए ..
धन्यवाद !!
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