कालभोजादित्य रावल
उत्कर्ष श्रीवास्तव द्वारा लिखित
रिव्यू –
किताब की पृष्ठभूमि ऐतिहासिक है | इतिहास मे हुए प्रसंग धरती पर घटित वास्तविक घटनाएं है जिनके सबूत Read more आज भी मिलते हैं | प्रस्तुत किताब मेवाड़ राज्य के संस्थापक “कालभोजादित्य रावल ” जिन्हे बप्पा रावल के नाम से भी जाना जाता है को केंद्र मे रखकर लिखी गई है |
किताब वीररस से भरी हुई है | किताब के हर एक पृष्ठ पर अमूमन युद्ध और वीरता का बखान है | युद्ध मे उपयुक्त होनेवाले हाथी , घोड़े , शस्त्र इनका वर्णन पग – पग पर मिलता है | वीर पुरुषों के साथ-साथ वीरांगनाओं के भी दर्शन होते है जो पराक्रम में कहीं भी पुरुषों से कम नहीं |
यह वीर योद्धा अपने पर्सनल रिवेंज को साइड में रखकर राष्ट्रीय हित में निर्णय लेते दिखेंगे | इसके लिए वह अपनी आशा – आकांक्षाओं का त्याग करते दिखेंगे | राष्ट्र या अपनी मातृभूमि को बचाने के लिए अपने जीवन की आहुति देते हुए दिखेंगे जबकि जीवन से बड़ी कोई चीज नहीं |
युद्ध की विभीषिका बड़ी भयानक होती है | लाखों के प्राण लेकर ही जाती है पर कभी-कभी सत्य पर विजय पाने के लिए , राष्ट्र को बचाने के लिए ,युद्ध ही अंतिम पर्याय होता है | इन युद्धों मे जितने मनुष्य और प्राणियों ने अपने प्राण गवाए | उनसे तो यही लगता है कि तब मानव जीवन का कोई मूल्य ही नहीं था |
शत्रु पक्ष को तो जैसे शांति से कोई मतलब ही नहीं था | इतिहास बताता है की भारत भूमि के बहुत से वीरों को अपनी संस्कृति , अपनी मातृभूमि , अपना धर्म बचाने के लिए बहुत से युद्ध करने पड़े | अपना बलिदान देना पड़ा | ऐसे ही वीरों की यह गाथा है | जिसे किताब के रूप में लेखक , आपके सामने लेकर आए हैं | किताब अत्यंत पठनीय है |
आपको किताब रखने की इच्छा ही नहीं होगी | उन्होंने इतिहास को नीरसता के साथ नहीं बताया बल्कि उपन्यास का रूप देकर कहानी के माध्यम से सारे पात्रों की भावना , विवशता, उनका प्रेम , मित्रता , उनके सुख-दुख से परिचय करवाया है |
जिस वजह से वह अपने से लगने लगते हैं | उनकी सारी पीड़ाए , सुख – दुख अपने लगने लगते हैं | ऐसा लगता ही नहीं कि वह आठवीं सदी में हो गए बल्कि ऐसा लगता है कि वह सारे हमारे परिचितों में से ही कोई हो ! वह हमारे आसपास ही मंडरा रहे हो |
प्रस्तुत किताब मे राजा है ,राज्य है तो राजनीति और षड्यंत्र भी है | राजा के लिए प्राण देनेवाले विश्वासू व्यक्ति है तो विश्वासघाती भी है | राष्ट्रप्रेमी लोग है तो गद्दार भी है | रण में पराक्रम दिखानेवाले योद्धा है तो रण से भागनेवाले बुजदिल भी है |
इस अद्भुत और प्रेरणादाई किताब के –
लेखक है – उत्कर्ष श्रीवास्तव
प्रकाशक – अंजुमन प्रकाशन
पृष्ठ संख्या – 401
उपलब्ध है – अमेजॉन और किंडल पर |
वैसे तो प्रस्तुत किताब के लेखक प्रसिद्ध किताब “रणक्षेत्रम्” के लेखक रह चुके हैं | फिलहाल वह “बोधरण” श्रृंखला में व्यस्त है | वह अपनी पहुंच अंग्रेजी पढ़नेवाले पाठकों तक भी बनाना चाहते हैं | इसीलिए प्रस्तुत श्रृंखला वह अंग्रेजी में ही लिख रहे हैं | अब प्रस्तुत किताब कैसे अस्तित्व में आई ? उसकी बात बताते हैं |
उन्होंने 2021 में “नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ इंडिया” की प्रतियोगिता में भाग लिया | इसके बारे में माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदीजी ने ट्वीट करके बताया था | इस प्रतियोगिता में पुस्तक लिखने के लिए बहुत सारे विषय थे जिसमें इतिहास के नायकों की कहानी भी थी | इसी प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए उन्होंने “बप्पा रावल” के पात्र को चुना और दो महीने में एक किताब तैयार कर ली और प्रतियोगिता में भेज दी |
15 अगस्त को जब निर्णय आनेवाला था तो उन्होंने नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ इंडिया ट्विटर हैंडल देखा | वहां एक तस्वीर छपी थी जिसमें प्रतियोगिता के विषय दिए थे | उससे उन्हें पता चला कि उन्हें स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े हीरोज के बारे में लिखना था और बप्पा रावल तो आठवीं शताब्दी के थे पर वह तो किताब लिख चुके थे | अंततः उन्होंने किताब पाठको तक पहुंचा दी | आईए , अब जानते है इस किताब का सारांश –
सारांश –
“सिंध” पर अरबियों ने आक्रमण कर दिया था | इस आक्रमण के नेता तीन अरबी हकीम थे जिनका नाम था “निजाम , शहबाज और अलाउद्दीन”| इन के आक्रमण को ध्वस्त करनेवाले वीर थे सिंधराज दाहिर सेन , कन्नौज नरेश नागाभट्ट , मेवाड़ नरेश मानमोरी और पंधरा वर्षीय कालभोज |
कालभोज के गुरु हरित ऋषि ने उन्हें इस युद्ध में भेजा था हरित ऋषि का कालभोज के जीवन मे अत्यंत ही महत्व का स्थान रहा है | इस युद्ध मे कालभोजादित्य ने अपना अतुल पराक्रम दिखाया था | उसके पराक्रम की स्तुति से मेवाड़ नरेश मानमोरी जलभून गया था क्योंकि वह उसके शत्रु नागादित्य का बेटा था | साथ में उसकी बहन मृणालिनी का भी |
इसी नाते मानमोरी कालभोजादित्य के मामा लगते थे | शत्रुओं का संहार करने के बाद कालभोजादित्य शिव शंभू का दर्शन करने गए | उनका मन अभी भी उद्विग्न था क्योंकि उन्होंने भीलराज बलेऊ को देख लिया था |
भीलराज बलेऊ उनके पिता नागादित्य के हत्यारे थे फिर भी उनकी पालक माता तारा ने भीलराज बलेऊ पर कोई भी शस्त्र ना उठाने की कसम दी थी जिनकी कुछ ही समय पूर्व सर्प दंश से मृत्यु हो गई थी |
सिंधी गुप्तचर दल अद्भुत था जिसके बारे में सिंध के राजकुमार वेदांत ने कालभोज को बताया था | कन्नौज नरेश और राजा दाहिरसेन इस स्वतंत्रता युद्ध में चालुक्यों की भी मदद लेना चाहते थे लेकिन मानमोरी इसके लिए तैयार नहीं था | हरित ऋषि के आश्रम में कालभोजादित्य , सुबर्मण और देवा साथ-साथ पढ़ते थे |
यह तीनों एक दूसरे का अविभाज्य अंग थे | इनमें से सुबर्मण मानमोरी का बेटा था और देवा भीलराज बलेऊ का | इस युद्ध के एक महीने पहले उनके नागदा गांव में एक व्यक्ति ने भीलराज बलेऊ को मारने की कोशिश की थी | बाद में पता चला की वह कालभोज के पिता नागादित्य के बड़े भाई शिवादित्य थे |
उपरयुक्त युद्ध ब्राह्मणाबाद में लड़ा गया था | अब ब्राह्मणवाद को सिंधियों ने स्वतंत्र कर लिया था | अरबियों की हारने की खबर इराक पहुँच गई | वहां के सुल्तान ने अपने सबसे काबिल हाकीम मोहम्मद बिन कासिम को सिंध को जीतने के लिए भेजना चाहा | इसके पहले इराक के बादशाह ,अलाउद्दीन बुठैल के पास राजा दाहिर सेन ने मैसेज भिजवाया की सिंध से अपनी चौकीया तीन महीने में उठा ले | नहीं तो ! हिंद की संयुक्त सेना बगदाद पर आक्रमण कर उस पर अपना कब्जा कर लेगी |
इसलिए वह कुछ भी कर के सिंध को जीतना चाहता था | बगदाद में पकड़े गए हिंद के जासूस को देखकर कासिम ने सिंध को जीतने की एक योजना बनाई | उसने अपने सैनिकों को हिंदुस्तानी नागरिक बनाकर सिंध भेजा |
इसलिए उसने देबल के किलेदार ज्ञानबुद्ध से हाथ मिलाया | देबल एक बंदरगाह था जिससे होकर विदेशी लोग सिंध में प्रवेश कर सकते थे | ज्ञानबुद्ध ने गद्दारी इसलिए की , क्योंकि दाहिरसेन ने बुद्ध धर्म को राजधर्म के रूप मे निषिद्ध कर दिया था |
कासिम ने अपने सैनिकों के माध्यम से सिंध की जड़ खोखली की | कैसे ? इसके लिए उसके सैनिको ने पहले हिंदुस्तान के तौर – तरीके , बोली – भाषा , आचार – व्यवहार सीखे | उन्होंने पूरी तरह हिंदू बनकर सिंध में नौकरियां पाई जैसे कोई सैनिक बना ,कोई राजमहल का रक्षक तो कोई ब्राह्मणाबाद में लोहार बनकर राजा दाहिर और उसकी सेना के लिए कमजोर हथियार बनाने लगा | इसके लिए कासिम को पूरे 5 साल लगे |
सिंध की राजकुमारी कमलदेवी , कालभोजादित्य से विवाह करना चाहती थी | इसलिए एक शिव भक्त होने के नाते वह कालभोज के भक्ति की परीक्षा लेना चाहती थी | वह इसके लिए अपनी दोनों बहनों प्रीमल , सूर्य और भाई वेदांत को लेकर महाशिवरात्रि के उत्सव पर कालभोज के पैतृक गाँव “नागदा” गई |
वहां उनकी योजना में सुबर्मन और देवा ने भी साथ दिया | इसी योजना को सफल बनाते – बनाते प्रीमल और सुबर्मण भी एक दूसरे के प्रेम में पड़ गए | पर इन चारों के पवित्र प्यार पर वज्रपात बनकर टूट पड़ी मेवाड़ नरेश मानमोरी की वासना |
इसी के तहत उसने कमलदेवी का अपमान किया | झगड़ा इतना बढ़ गया की मानमोरी ने मेवाड़ के सेनापति पद से कालभोज को निकाल दिया | इसी के साथ सुबर्मण और कालभोज की बचपन की मित्रता भी टूट गई | सुबर्मण और प्रीमल का प्यार भी अधूरा रह गया |
मानमोरी ने सिंध से अपनी सेना भी हटा ली | इन वाकयाओ से पता चलता है की जीवन कैसे एक ही पल में बदल जाता है | इसी बात को “महाशिवरात्रि उत्सव” इस अध्याय मे बताया गया है | इनमें सम्मिलित हर एक पात्र का जीवन आगे जाकर कितने दुखों से भर जाता है | यह भी आपको पता चलेगा |
महाशिवरात्रि के बाद कालभोजादित्य को अपने पिता नागादित्य के बारे में पता चलता है | उसके पिता और तातश्री शिवादित्य ने पल्लवराष्ट्र स्थित कांचीपुरम में अपना बहुत पराक्रम दिखाया था | उनकी निष्ठा चालुक्यों के साथ थी क्योंकि वह दोनों भाई जब छोटे थे तब मेवाड़ नरेश मानमोरी ने नागदा ग्राम पर हमला कर उनकी मातृभूमि जीत ली थी और उनके पूरे परिवार को खत्म कर दिया था |
तब चालूक्यों ने ही उन्हे आश्रय दिया था | चालूक्यराज विक्रमादित्य ने उन्हें अपने बच्चों जैसा ही पालन पोषण और प्यार दिया था | चालुक्यराज विक्रमादित्य ने पल्लवराज नरसिंहवर्मन को हरा दिया | अपने अंतिम समय में चालुक्यराज की नजरों में अपने लिए सम्मान देखकर पल्लवराज ने सुख की नींद ली |
वर्षों पहले पल्लवो ने चालूक्यों की बादामी स्थित राजधानी और राजमहल जीत लिया था | अब पल्लवो को कमजोर करने के लिए उनकी राजधानी कांचीपुरम पर चालूक्यों ने हमला किया ताकि वह बादामी पर , अपने पुरखों के राजमहल पर आसानी से अधिकार कर सके |
इस युद्ध मे विक्रमादित्य घावों के कारण अत्यंत कमजोर हो गए थे | इसलिए उन्होंने अपने पुत्र विन्यादित्य को राजा बनाया | इनके दो पुत्र थे | जिनका नाम था जयसिम्हा और विजयादित्य | जब यह लोग बादामी आनेवाले थे | तब इनको पता चला की मेवाड़ नरेश मानमोरी बादामी पर आक्रमण करनेवाला है | इसलिए अब चालूक्यों ने नरसिंहवर्मन के बेटे महेंद्रवर्मन को कांचीपुरम का राजा बनाकर , उसकी आधी पल्लव सेना अपने साथ ले ली क्योंकि चालूक्यों को मानमोरी के साथ युद्ध करने के लिए ज्यादा सेना चाहिए थी |
चालुक्यों का भुजंगनाथ , मानमोरी के साथ मिला हुआ था | मानमोरी ने चालुक्यराज विन्यादित्य के साथ संधि करनी चाही पर उसने यहां छल किया पर नागादित्य और शिवादित्य ने उसके इस षड्यंत्र को सफल नहीं होने दिया | दोनों भाई चाहते तो मानमोरी को युद्ध में ही मार सकते थे पर उन्होंने विन्यादित्य के लिए उसे छोड़ दिया |
अब विन्यादित्य भी उसे मारना चाहते थे पर राष्ट्र पर आए विदेशी आक्रमण के संकट के कारण मानमोरी को छोड़ना पड़ा क्योंकि सारे हिंद राजाओं की सेना मे मेवाड़ की सेना संख्या मे सबसे ज्यादा और ताकतवर थी | यह वह वक्त था जब आपसी शत्रुता भुलाकर , सारे राजाओं को एक होकर, विदेशियों के खिलाफ लड़ना था क्योंकि सिंध पर अरबियों ने आक्रमण कर दिया था |
पिछले कई वर्षों से राजा दाहिरसेन ने उन्हें रोक रखा था पर अब वह कुछ किले हार चुके थे | अब उन्होंने हिंद के राजाओं से , अपनी मातृभूमि और संस्कृति को बचाने के लिए मदद मांगी थी क्योंकि अगर एक बार सिंध पर अरबों का कब्जा हो जाता तो वह पूरे भारतवर्ष पर जल्दी अपनी सत्ता स्थापित कर लेते |
मेवाड़ नरेश मानमोरी , सिंध की मदद करने के लिए तो तैयार हो गया पर वह एक कपटी राजा था | उसने इस युद्ध में चालूक्यों को भाग लेने से मना कर दिया | महिष्कपुर में बसे छोटे-छोटे राज्यों से संधि या युद्ध कर के उसपर अधिकार करने का काम विन्यादित्य ने नागादित्य को सौंपा था | ऐसे ही एक युद्ध मे नागादित्य का सामना पराक्रमी मृणालिनी से हुआ जो मानमोरी की बहन थी |
परिस्थितियां ऐसी बनी कि नागादित्य को मृणालिनी के साथ विवाह करना पड़ा और चालुक्य और शिवादित्य को छोड़कर नागदा ग्राम में मानमोरी का मांडलीक राजा बनकर जाना पड़ा | उसके पहले विष्यन्त नाम का सेनापति भीलों की मानमोरी के सैनिकों और मांडलिक राजा से सुरक्षा करता था ताकि वह नागदा का राजा बने और भीलों का समर्थन उसे मिले पर नागादित्य के राजा बनने के बाद उसके सारे सपनों पर पानी फिर गया |
उसकी भावनाओं को मानमोरी ने भांप लिया था | इसलिए अब मानमोरी और विष्यन्त ने षड्यन्त्र रचकर नागादित्य , मृणालिनी , भिलराज बलेऊ के परिवार और बहुत से भीलों को मरवा दिया |
तो उधर चालूक्यों की नगरी बादामी में भी पल्लवो की मदद से मानमोरी ने शिवादित्य को षड्यंत्र में फंसा कर उसके हाथों राजकुमार जयसिम्हा को मरवा दिया | इस कारण शिवादित्य को चालुक्यों की मातृभूमि से निष्कासित होना पड़ा | यह सब कहानी तब की है जब कालभोज सिर्फ 3 वर्ष के थे |
वर्तमान समय में मानमोरी ने सिंध से अपनी सेना हटा ली थी | साथ ही सिंध से मदद मांगने के लिए जानेवाले गुप्तचरों की हत्याएं भी करवा रहे थे ताकि राजा दाहिर अरबियों के साथ चलनेवाले युद्ध में अकेले पड़ जाए | अब तक कासिम ने सिंध में आक्रमण की तैयारिया शुरू कर दी थी |
उसने ब्राह्मणाबाद पर हमला कर वहां का विष्णुजी का मंदिर ध्वस्त करने का प्रयत्न किया | इस मंदिर को बचाने के लिए काम्हदेव और बाजवा ने अपने पराक्रमो की पराकाष्ठा की जिससे वह इतिहास में अपना नाम अमर कर गए |
हिंदुओं का विश्वास और मनोबल बनाए रखने के लिए इस मंदिर का सुरक्षित रहना बहुत जरूरी था क्योंकि एक भविष्यवाणी के अनुसार जब तक इस मंदिर का ध्वज लहरा रहा है तब तक सिंध पर राजा दाहिर का शासन है | जब यह मंदिर ध्वस्त हो जाएगा तब सिंध पर अरबो का आधिपत्य होगा | इसलिए कासिम ने इसे नष्ट करवाया | इसके नष्ट होते ही सारे हिंदू सामंत और राजाओं ने दाहिरसेन का साथ छोड़ दिया |
विवश अवस्था में वह आलोर आए | यहां के युद्ध में उन्हें और उनके बड़े पुत्र विजयशाह को वीरगति प्राप्त हुई | तो आलोर के किले में उनकी पत्नियों ने जौहर किया | बड़ी पुत्री कमलदेवी ने जलसमाधि ले ली तो उनके पुत्र वेदांत और दोनों पुत्रियां एक दूसरे से बिछुड़ गए |
राजा दाहिर को हराने के पीछे कासिम का पाँच साल का षड्यंत्र था | ज्ञान बुद्ध की गद्दारी थी तो ब्राह्मणाबाद में बननेवाले और युद्ध में प्रयुक्त होनेवाले नकली और कमजोर हथियार थे |
जब राजा दाहिरसेन और उनके पुत्र अलवर में युद्ध लड़ रहे थे तब कालभोज , पल्लवों के साथ युद्ध में बिजी थे क्योंकि वह चालुक्यराज की मदद अरबों के विरुद्ध चाहते थे पर चालुक्यराज पल्लवों को कमजोर किए बगैर अपनी सेना नहीं भेजना चाहते थे क्योंकि वह चाहते थे की आगे पीछे जब कभी पल्लव आक्रमण कर तो उनकी राजधानी कमजोर न पड़ जाए |
पल्लवों को जितने के बाद जब कालभोज को मानमोरी के राष्ट्रद्रोह का पता चला तो उन्होंने उसे दंडित करने का निश्चय किया | तो अब आप ही पढ़कर जानिए की क्या वह उसे दंडित करने में कामयाब हो पाए या मानमोरी पुत्र सुबर्मण उनकी कमजोरी बना |
वेदांत कालभोज तक पहुंचने में कामयाब हुआ या उसका भी अंत हुआ ? क्या कमलदेवी , प्रीमल और सूर्य अरबों के खलीफा तक पहुंचा दी गई या वीरगति को प्राप्त हुई ? कालभोज सिंध के प्रदेशों को अरबों से मुक्त करने में कामयाब रहे या नहीं ?
क्या हुआ जब कालभोज और कासिम का सामना हुआ ? सिंध को बर्बाद करनेवाले कासिम के लिए भी एक भविष्यवाणी है की उसे भी उसी का कोई अपना धोका देगा तो उसका वह अपना कौन है ?
ऐसे अनगिनत सवालों के जवाब पाने के लिए पढ़िए “कालभोजादित्य रावल” | इसके आगे की कहानी “विजययात्रा” नामक किताब मे दी है जो की इस शृंखला का दुसरा भाग है | जरूर पढिए | तब तक पढ़ते रहिए | खुशहाल रहिए | मिलते है और एक नई किताब के साथ | तब तक के लिए ..
धन्यवाद !!
KALBHOJADITYA RAVAL BOOK REVIEW HINDI
