1931 – DESH YA PREM BOOK REVIEW SUMMARY

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1931 – देश या प्रेम
सत्य व्यास द्वारा लिखित
रिव्यू –
लेखक की जानकारी हमने ” बागी बलियाँ ” इस विडिओ मे दी है | हमारे यू ट्यूब चैनल “सारांश बुक ब्लॉग ” पर उसे जरुर चेक करे | अब बात करते है उपन्यास की तो 1931 भारतीय इतिहास में बहुत महत्व रखता है | इस साल में कितने ही हुतात्माओं को फांसी पर चढ़ा दिया गया | जिसमें से मुख्य है भगत सिंह , राजगुरु और उनके बाद भी यह सिलसिला जारी रहा लेकिन हमें उन असली हीरोज का नाम तक याद नहीं |
इन लोगों ने अपना सर्वस्व बलिदान किया | उनकी आने वाली पीढ़ियों के लिए यानी कि , हमारे लिए और हमें ही पता नहीं कि वह कौन लोग थे ? ऐसे ही महान क्रांति वीरों के बारे में बताती यह किताब है जिसकी कहानी कोलकाता की पृष्ठभूमि पर आधारित है |
यह कहानी है “बंगाल वॉलिंटियर्स” की जो की एक क्रांतिकारी दल है | सामान्य लोगों में से कैसे तैयार हुआ यह क्रांतिकारी दल ? कैसे इन्हे ज्ञान हुआ कि हम गुलामी का जीवन जी रहे हैं ? क्यों लगा कि हमें स्वराज चाहिए ? इसका उत्तर इतिहास में ही छिपा है |
अंग्रेजों ने अंग्रेजी स्कूल सबसे पहले कोलकाता और तब की मद्रास में शुरू किए ताकि भारतीय युवा अंग्रेजी संस्कृति के गुलाम होकर अपनी संस्कृति को भूल जाए | जब कभी अंग्रेजों को जरूरत हो ! तो वह अपने फायदे के लिए भारतीय युवाओं को इस्तेमाल कर सके |
पर इसका दूसरा पहलू शायद अंग्रेजों ने सोचा ही नहीं होगा कि भारत का युवा जब पढ़ेगा , लिखेगा तो अपने अधिकारों के प्रति सचेत होगा | सचेत होगा तो अपने सवालों के जवाब मांगेगा | जवाब नहीं मिलेगा तो बवाल करेगा | बस इन्हीं विचारों के तहत जन्म हुआ “स्वराज” का | अंग्रेजी साम्राज्यवाद के ध्वंस का | इसीलिए शायद बंगाल वॉलिंटियर्स का नारा था “ध्वंशो साम्राज्यवाद” |
कोलकता प्रवास के दौरान लेखक जब अलीपुर में रहा करते तब उन्हें क्रांतिकारी आंदोलन और उसके ऐतिहासिक संबंधों के बारे में पता नहीं था लेकिन बाद में वहां रहने वाले लोग बातों ही बातों में इसका जिक्र कर दिया करते |
लेखक लगभग रोज ही अलीपुर जेल के पास से गुजरा करते | तब उन्हें लगा कि वहाँ रहे हुतात्माओं की आत्माए उनसे कह रही हो कि , हमारी कहानी कब लिखोगे ? जैसे ही उन्हें इसके सिरे मिलने शुरू हुए तो उत्कंठा और व्यग्रता चरम पर पहुंच गई और इसके बाद उन्होंने कई फाइले , रिपोर्ट ,अनुवाद , साहित्य , किताबें इनका अध्ययन किया और फिर इस किताब को साकार किया |
जिनका उन्होंने अध्ययन किया उसकी लिस्ट उन्होंने किताब में दी है | प्रस्तुत किताब के –
लेखक है – सत्य व्यास
प्रकाशक है – दृष्टि प्रकाशन
पृष्ठ संख्या है – 173
उपलब्ध है – अमेजन पर
आइए अब देखते है इसका –

सारांश –
कहानी शुरू होती है ” हिजली डिटेंशन कैम्प ” से जिसमें अंग्रेजों के शासनकाल में कैदियों को रखा जाता था जो अभी 1951 के बाद आईआईटी खड़कपुर में तब्दील कर दिया गया है | यहां पर प्रमोद नाम का 18 साल का युवक कैद है | जब उस की कोठरी में एक क्रांति वीर को असह्य टॉर्चर के बाद लाया जाता है तो वह डर जाता है और सब कुछ बताने को राजी हो जाता है क्योंकि उसे कोठरी नंबर 21 का डर दिखाया जाता है जिसका वार्डन “दिलाबर हुसैन कोशाई ” है जो शैतान का दूसरा रूप है |
लड़का बताता है कि फिनिक्स वापस आने वाला है | फिनिक्स की दहशत कोलकाता के मिदनापुर में बहुत है क्योंकि फिनिक्स ने मिदनापुर के कलेक्टर “जेम्स पेड्डी” की हत्या की है | फिनिक्स बंगाल वॉलिंटियर्स का वह कार्यकर्ता है जिसके नाम से ही अंग्रेज सरकार थरथर कापती है |
वह रूप बदलने में माहिर है | कोई नहीं जानता कि वह दिखते कैसे हैं ? दिलाबर कोशाई को तो लगता है कि , उसने फिनिक्स को मार दिया | उसकी लाश तो पूरे दो दिनों तक सरकारी अस्पताल के बाहर कई दिनों तक पड़ी थी | फिर भी उसको लेने कोई नहीं आया |
अब यह लड़का कह रहा है कि फिनिक्स जिंदा है | वैसे भी फिनिक्स कभी मरते नहीं | वह अपनी ही राख से फिर जिंदा हो जाते हैं | लड़का फिनिक्स को अच्छे से जानता है क्योंकि वह उन्हीं का शागिर्द है |
फिनिक्स का नाम है “बिमल दास गुप्त ” | उन्हें सारे लोग बिमल दा के नाम से जानते हैं | कहानी के मुख्य पात्र है – बिमल दा , शशांक दा , ज्योति जीवन , प्रबोध और कुमुद |
बिमल दा क्रांतिकारी गतिविधियों में लिप्त है | इसका पता उनके पिता अक्षय दास गुप्ता को भी नहीं है | जब उनको पता चलता है कि जेम्स पेड्डी का खून हुआ है और उसी रात से उनका बेटा भी घर नहीं आया है तो उन्हे कुछ – कुछ अंदाजा हो जाता है |
शशांक दास से मिलने के बाद खबर पक्की हो जाती है | हमें सबसे समझदार पात्र बिमल दा के पिताजी अक्षयदास गुप्ता लगे | उन्हें अपने बेटे के इस काम से नाहीं तो गुस्सा है , ना ही तो खुशी .. | उनका भगवान पर पूरा विश्वास है और वह जानते हैं कि भगवान ने ही बिमल दा के लिए यह रास्ता तय किया है |
तभी तो विमल दा को मृत्यु से डर नहीं लगता क्योंकि उन्होंने जो रास्ता चुना है | उसका अंत मृत्यु से ही होना है | यह जानते हुए भी वह अपने बेटे का साथ देते हैं क्योंकि माटी पर मर मिटने का सौभाग्य हर किसी को नसीब नहीं होता क्योंकि जिम्मेदारियां उन्हें पीछे खींच लेती है |
वह बिरले ही लोग होते हैं जो सच्चे योगियों की तरह हर माया – मोह के बंधन से खुद को छुड़ा लेते हैं और देश पर अपनी जान हंसते-हंसते न्योछावर कर देते हैं |
जेम्स पेडी को मारने की कोशिशे इसके पहले भी की जा चुकी होती है पर वह असफल होती है | इसके बाद बिमलदा ,ज्योतिजीवन और शशांक दा पूरा फुल प्रूफ प्लान बनाते हैं | इसमें उनका साथ देता है प्रबोध | वह एक जमींदार का 18 साल का बेटा है | उसकी बहन डिलीवरी के लिए मायके आई हुई है |
उसके घर के बगल में ही रहती है कुमुद जो एक केमिस्ट्री टीचर की बेटी है | उन्ही की लैब से प्रबोध अपने मित्र शशांक के साथ मिलकर कुछ कच्चा माल चुराने की कोशिश करता है जिससे वह विस्फोटक बना सके | कुमुद की वजह से उसका प्लान फेल हो जाता है |
इसी कुमुद के कॉलेज में एक प्रोग्राम के लिए कलेक्टर जेम्स पेड्डी आने वाला है | अब इसके लिए यह सब मिलकर कैसा प्लान बनाते हैं ? किताब में जरूर पढ़िएगा |
इस दिन प्रबोध , कुमुद को लेकर मिदनापुर के बाहर रहता है ताकि उस पर कोई शक ना कर सके | उधर बिमल दा और ज्योतिजीवन अपना काम पूरा कर के कोलकाता भाग जाते हैं | वहाँ फनी कुंडू उन्हें मदद करता है |
इधर दूसरे दिन युवकों की गिरफ्तारियाँ शुरू हो जाती है | इसी के चलते दिलाबर कोशाई प्रबोध के घर की तलाशी लेना चाहता क्योंकि प्रबोध के मित्र शितांशु ने पुलिस को बताया है कि प्रबोध के पास बंदूक है |
प्रबोध अपनी बहन “मेजदी ” लिए दाई लाने जाने ही वाला रहता है की पुलिस उसके घर आ धमकती है | वह पूरी जांच होने तक ना किसी को घर के अंदर आने देती है , ना किसी को बाहर जाने देती है |
इस दौरान प्रसव पीड़ा असह्य होने के कारण मेजदी के प्राण पखेरू उड़ जाते हैं | प्रबोध के पिता विक्षिप्त हो जाते हैं | उधर बिमल दा और ज्योति जीवन को संगठन मिदनापुर वापस बुला लेता हैं लेकिन संगठन को जल्द ही अपनी गलती का एहसास होता है तो बिमल दा को फिर से कोलकाता भेज दिया जाता है |
कुछ दिनों के बाद उन्हें संगठन एक और काम देता है | वह यह कि अबकी बार उन्हें खुद को गिरफ्तार करवाना है ताकि वह देश के युवाओं तक यह संदेश पहुंचा सके कि , वह अंग्रेजी सरकार से डरते नहीं | सरकार के किसी भी अफसर तक वे सहज ही पहुंच सकते हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग संगठन में भर्ती हो सके और उनका यह आहुति यज्ञ चलता रहे |
इसके पहले बिमल दा अपने सारे साथियों से मिलते हैं | सब की आंखें नम है | हृदय में पीड़ा है क्योंकि गोरी सरकार को गिरफ्तारी देना मतलब फांसी के तख्ते पर झूलना | इसी के चलते जब बिमल दा अपने पिता से मिलने और आखरी बार उनकी आज्ञा लेने आते हैं तो वह कातर स्वर में अपने बेटे से पूछते हैं कि ,”क्या महाविश्रांति का समय आ गया ?” तो कलेजा ऐसे चर्र हो जाता है |
वह अपने बेटे से कहते हैं कि ,उन्होंने पितृऋण से उन्हें मुक्त किया | बेटे के जाने के बाद घर का हर एक कोना उनका करुण रुदन सुनता है | इसी बात पर गायन साम्राज्ञी लता मंगेशकरजी का वह गाना हमें याद करना ही चाहिए |
“ए मेरे वतन के लोगों जरा आंख में भर लो पानी |
जो शहीद हुए हैं उनकी | जरा याद करो कुर्बानी |
लेखक ने इन सारी परिस्थितियों का वर्णन दिल को छूने लायक किया है | खैर , बिमल दा खुद को गिरफ्तार करवा देते हैं | उनके हिस्से की दौड़ यही समाप्त होती है | वह अपने हाथ का ” बैटन ” प्रबोध के हाथ में सौपना चाहते हैं | उसे अपने कार्यों का उत्तराधिकारी चुनकर ….
प्रबोध बिमल दा की बात बता ही रहा था कि जेल में हंगामा हो जाता है | इसी का फायदा उठाकर वह भाग जाता है | घर आकर उसे कुमुद के प्रेम का पता लगता है लेकिन अभी बहुत देर हो चुकी है | वह चाहकर भी सामान्य जीवन नहीं जी सकता |
प्रबोध “देश या प्रेम” में से “देश” को चुनता है | वह यह भी नहीं सोचता कि उसके पीछे उसके विक्षिप्त पिता का ख्याल कौन रखेगा ? या उसकी जमींदारी का क्या होगा ? क्योंकि यह सब मोह तो वह पहले ही छोड़ चुका हैं |
इसीलिए कुमुद रूपी देश के लोगों का कर्तव्य है कि ,वे उनका ख्याल रखें | घर आकर प्रबोध वही बंदूक कुसुम से हासिल करता है | वह फिर से “हिजली डिटेंशन सेंटर “जाकर दिलाबर कोशाई का अंत कर देता है |
लेखक ने भी यह कहानी इसलिए लिखी और हमने भी इस किताब का रिव्यू इसीलिए किया क्योंकि आप और हम जैसे लोगों को इन महान लोगों के बलिदानों के बारे में पता होना चाहिए | इन्होंने जो किया वह अमूल्य है | उनके बारे में जानकर कम से कम हम उन्हें श्रद्धा सुमन तो अर्पित कर पाए और अपने देश को और बेहतर बना पाए |
अपनी स्वतंत्रता को बरकरार रख पाए | 1931 देश या प्रेम यह एक देशभक्ति से सराबोर और ध्यान आकर्षित करता हुआ उपन्यास है जिसकी पृष्ठभूमि भारत में क्रांतिकारी दौर की है | 1931 वह साल है जब गांधीजी ने नमक का सत्याग्रह किया | इसी सत्याग्रह के दौरान बूढ़ी गांधी कहे जाने वाली महिला गोली लगकर शहीद हो गई |
इसी साल भगतसिंह , राजगुरु और सुखदेव जी को फांसी दे दी गई थी | प्रस्तुत उपन्यास की कहानी उन क्रांतिवीरों की अनकही कहानी सुनाती है जो इतिहास में अब तक अपनी पहचान न पा सके | नौजवानों के इस क्रांति के पथ पर चलने से समाज और उनके परिवारों पर क्या असर होता है ? इसका बहुत ही मर्मस्पर्शी वर्णन लेखक सत्य व्यास इन्होंने प्रस्तुत उपन्यास में किया है |
बंगाल वॉलिंटियर्स के लोग माँ , माटी और मानुष की बात करनेवाले थे | उनके लिए “स्वराज” ही सबकुछ था | इसके लिए उन्होंने अपने प्राणों की भी आहुति देने में संकोच नहीं किया | स्वाधीनता के इस यज्ञ में ऐसे माताओ के पुत्रों ने , बहनों के प्यारे भाइयों ने , सुहागनो के सिंदूरो ने अपने प्राणों की आहुति दी जिनके नाम का उल्लेख तक इतिहास में नहीं मिलता |
बिमल दासगुप्त , अश्विनी कुमार गुहा , ज्योतिजीवन , मातंगिनी हाजरा यह वे नाम है जिनको इतिहास के पन्नों में वह मान – सम्मान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे | लेखक आपको उसी दौर में लेकर जाते है |
कहानी पढ़ते – पढ़ते आप कहानी के साथ ही एकसार हो जाते हो !कहानी के पात्र जिन भावनाओं का एहसास करते हैं | आप भी उन भावनाओ के साथ समरूप हो जाते हो !
ऐसे ही जब बिमलदास गुप्त अपने पिताजी का आखिरी बार आशीर्वाद लेने आते हैं तो उनके पिताजी अक्षयदास गुप्त पूछते हैं की ,” क्या महाविश्रांती का समय आ गया ? यह पूछते समय उनका कलेजा कितनी बार पीड़ा से फटा होगा | इसका अंदाजा हम लगा ही नहीं सकते | यही सोचकर हमारा हृदय भी पीड़ा से भर आया और हम भी भड़भड़ाकर रो पड़े | इतनी अनमोल स्वतंत्रता को टिका कर रखना हमारा पहला कर्तव्य है |
जयहिंद !

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